शनिवार 26 सितंबर को इंडियन मुस्लिम फॉर प्रोग्रेस एंड रिफॉर्म्स (IMPAR) ने वेबिनार पर ‘Delhi riots & Partition Police’ विषय से एक कार्यक्रम आयोजित किया। जिसमें वक्ता के तौर पर लेफ्टिनेंट जनरल जमीर उद्दीन शाह, जस्टिस इकबाल अहमद अंसारी, डॉक्टर ख्वाज़ा शाहिद, एडवोकेट फ़िरोज़ ग़ाज़ी, मिस्टर फ़ैजी ओ. हाशमी, मिसेज खैर उल निशा और मिसेज ख़ुशनुमा ख़ान ने हिस्सा लिया। जबकि सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी विकास नारायण राय कार्यक्रम के मुख्य वक्ता रहे।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए पत्रकार शीबा असलम फहमी ने कार्यक्रम की भूमिका में कहा- “ पचास, अस्सी और नब्बे के दशक में जब पुलिस का ये रूप अख़बारों के जरिए हमारे सामने आता था तब उसमें विजुअल नहीं होते थे। और जब विजुअल नहीं होते थे तो एक तरह का इंसुलेशन था हमारी सेंस्टिविटी और पुलिस के व्यवहार के बीच में। लेकिन इस बार का जो उत्तर-पूर्वी दिल्ली का मामला है उसमें एक खास बात ये हुई है कि पुलिस ये जानती थी कि कैमरे उस पर हैं। और ये बात जानते हुए कि कैमरे उसके ऊपर हैं पुलिस ने जो किया वो ज़ुर्रत हठधर्मिता संविधान और कानून का नागरिक अधिकारों का मज़ाक और अवहेलना जो इस बार हुई है उसको लेकर एक खास तरह की फिक्र नागरिक समाज, समाजिक कार्यकर्ताओं और क़ानून के जानकारों के बीच आई है वो ये कि ये धृष्टता कैसे मुमकिन है।
जबकि वो जानते हैं कि क़ानून से बंधे होने के बावजूद वो ऑन-कैमरा गैरक़ानूनी काम कर रहे हैं। पुलिस सुधार की बात एक बार फिर से हर ओर होने लगी है। जनता और पुलिस का जो रिश्ता है उनके बीच क्या कुछ इंटरसेक्सनिलिटी भी है क्या। या क्या पुलिस सिर्फ़ स्टेट का ब्रूट पावर रहेगी या पुलिस में किसी तरह की डिसेंसी हो सकती है किसी तरह की मर्यादा हो सकती है किसी तरह की संवेदना हो सकती है। ये सवाल केंद्र में आ गया है।”
दिल्ली दंगों की जांच में दिल्ली पुलिस ने जांच के बेसिक नियम तक का पालन नहीं किया
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुए पूर्व आईपीएस अधिकारी विकास नारायण राय ने कहा, “ दिल्ली पुलिस का जो पूर्वाग्रह है वो तरह तरह के वीडियो में सामने आया ही है। अलग क्या है। अलग ये है कि सामाजिक पूर्वाग्रह तो पुलिस का रहता ही है। क्योंकि पुलिस वाला भी उसी समाज से आता है और समाज के सारे पूर्वाग्रह लेकर आता है। हम रोजमर्रा के पुलिसिंग जीवन में देखते हैं कि उनमें जातीय, वर्गीय और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह रहता ही है।
दिक्कत तब शुरू होती है जब इसमें एक तरह की राजनीतिक दुराग्रह भी शामिल हो जाए। और इतने आक्रामक ढंग से शामिल हो जाए। हालांकि ये कोई पहली बार नहीं हुआ है ये हमने पहले भी देखा है। गुजरात में भी पुलिस का राजनीतिक दुराग्रह देखा गया था। लेकिन दिल्ली में जो है वो उससे अलग है। क्योंकि दिल्ली में पुलिस के षड्यंत्र की बात की जा रही है। और ये लोगों के समझ में नहीं आता कि कैसे दिल्ली पुलिस द्वारा पीड़ित को ही साजिशकर्ता बना दिया जा रहा है।
न्यायिक जांच कमेटी क्यों नहीं गठित की गई
वीएन राय आगे कहते हैं, “अब जांच करने वाले पुलिस वाले की नज़र से देखें तो दो चीजें हैं। एक तो सीएए के खिलाफ़ प्रोटेस्ट चल रहे थे और अलग-अलग प्रोटेस्ट साइट बनाए गए थे। दूसरी चीज है कि सारी चीजें पहले हिंसा में और फिर सांप्रदायिक हिंसा में कैसे तब्दील हो गईं। अब पुलिस द्वारा ये कहना कि जिन लोगों ने सीएए के खिलाफ़ प्रोटेस्ट साइट सेट किए थे, जो इन साइट के मॉडरेटर थे उन्होंने पहले से ही इस नज़रिए से प्रोटेस्ट ऑर्गेनाइज किए थे कि आगे इन प्रोटेस्ट साइट को सांप्रदायिक हिंसा में बदलना है। दिल्ली पुलिस की ये थियरी बहुत ही बेवकूफी भरी है क्योंकि इसका कोई सबूत नहीं है। नई-नई चार्जशीट जो आई हैं उनमें जो सबूत दिए गए हैं वो सब बहुत अधूरा एविडेंस है। और वो नज़र आता है कि फैब्रिकेटेड एविडेंस है और पोलिटिकली मोटिवेटेड एविडेंस है।”
वीएन राय आगे कहते हैं, “जब दंगे चल रहे थे बहुत सी चीजें चाहे-अनचाहे कैमरे में रिकॉर्ड हो रही थीं और उनके वीडियो रिकार्डिंग बाहर आ रहे थे। ये तो उनकी चार्जशीट में भी है कि उस वक्त कितनी एसओएस कॉल हो रही थीं लेकिन इतनी एसओएस कॉल हो रही थीं तो उनके फॉलोअप में क्या किया गया। सच इनट्रांसपरेंसी में छुपा हुआ है। य़दि पुलिस ट्रांसपेरेंट हो जाए तो सच को सामने आने में कोई समय नहीं लगेगा। अमूमन होता ये है कि हर दंगे के बाद कि जो सरकार होती है वो दंगे के नाम से एक जांच कमेटी गठित करती है। लेकिन दिल्ली दंगे के संदर्भ में ऐसा नहीं है।
इस दंगे में सरकार ने कोई जांच कमेटी ही नहीं घोषित की। न दिल्ली सरकार ने, न केंद्र सरकार ने। बहुत बाद में दिल्ली सरकार ने विधानसभा कमेटी घोषित की वो न्यायिक कमेटी भी बना सकते थे। केंद्र सरकार के नीचे एमएचए और दिल्ली पुलिस है। जिनके ऊपर इतने आरोप लग रहे हैं जब इतनी एसओएस कॉल आई हुई हैं और ये आरोप है कि उनका फॉलोअप नहीं हुआ है। तो आपको अगर न्यायिक कमेटी नहीं बनाना है तो एडमिनिस्ट्रेटिव कमेटी ही बना देते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। इससे ये साबित होता है कि सब नियोजित था।”
जांच पुलिस को लीड करती है, पुलिस जांच को नहीं
जांच के बेसिक्स पर बात करते हुए वीएन राय कहते हैं, “जांच एक ऐसी चीज है जिसमें इन्वेस्टिगेशन लीड करता है पुलिस वाले को। जैसे क्लू (सुराग) मिलता है, जैसे घटनाएं अनफोल्ड होती हैं उसके हिसाब से पुलिस वाले को चलना चाहिए। ये पुलिस वाले की ट्रेनिंग है कि वो सबको शक़ की नज़र से देखे। जो भी उस घटना के इकोलॉजी में मौजूद व्यक्ति है वो सबको शक़ की नज़र से देखे। लेकिन किसी को पूर्वाग्रह की नज़र से नहीं देख सकता। शक़ तो ठीक है, जैसे-जैसे दूर होता गया आगे बढ़ता गया।
इन्वेस्टिगेशन पुलिस को लीड करता है, पुलिस इन्वेस्टिगेशन को नहीं। लेकिन दिल्ली दंगे की जांच मामले में इसका उल्टा हो रहा है। एफआईआर संख्या 59 जिसमें कांस्पिरेसी थियरी की बात की गई है उसके ठीक बाद की एफआईआर संख्या 60 जो है वो 24 तारीख को दर्ज़ होती है। चांदबाग़ क्षेत्र की एफआईआर है जहां कि एक हेड कांस्टेबल को मार दिया जाता है। इस एफआईआर की चार्जशीट जून में फाइल होती है।
दिल्ली पुलिस की ‘फोर डायमेंशनल कांस्पिरेसी’ थियरी
दिल्ली पुलिस की फोर डायमेंशनल कांस्पिरेसी थियरी पर बात करते हुए वीएन राय कहते हैं, “इस एफआईआर का मैंने अध्ययन किया है जिसमें दिल्ली पुलिस ने कहा है कि एक फोर डायमेंशनल कांस्पिरेसी थी जो कि एक लांग टर्म कांस्पिरेसी थी। 23 तारीख की घटनाओं और 24 तारीख की घटनाओं को लेते हुए 25 तारीख में ये एफआईआर दर्ज़ होती है। 25 तारीख को बीट कांस्टेबल के बयान पर ये एफआईआर दर्ज़ की जाती है। 25 तारीख की स्थिति बहुत फ्लुएड थी। इतनी फ्लुएड थी कि आप एक डॉक्टर्ड एफआईआर कांस्पिरेसी या लांग टर्म कांस्पिरेसी कहते हुए नहीं दर्ज़ कर सकते। इसलिए उस एफआईआर में चाहते न चाहते हुए भी स्वतःस्फूर्त हिंसा की बात आती है।
अगर आप शुरु की बात करते हैं शुरु में ये कांस्पिरेसी की बात नहीं आती लेकिन जैसे-जैसे जांच डेवलप हो रहा है और जब ओवर व्यू आता है तो ओवरव्यू कांस्पिरेसी की बात करने लगता है। ये ओवरव्यू इंजीनियर्ड है इसमें वो फोर डायमेंशनल की बात करते हैं। वो कहते हैं एक डायमेंशन तो उन लोगों का है जो कि पोलिटिकल लीडर हैं, सीनियर लोग हैं, इंटिलेक्चुएल हैं। जो ये चाहते थे कि ये चीजें बढ़कर अंततः सांप्रदायिक हिंसा में बदल जाएं। और इन लोगों का एक इंटरफेस है।
इंटरफेस इनके वो स्टूडेंट लीडर हैं, वो जामिया के स्टूडेंट्स हैं, आइसा के स्टूडेंट हैं, सीनियर एक्टिविस्ट हैं, जो उस इलाके और इनके बीच काम कर रहे थे। जो इनकी बातचीत, इनके इंटेंशन को रिले कर रहे थे। तीसरे जो लोकल एरिया के सीनियर लोग थे। जो सीएए के खिलाफ प्रोटेस्ट ऑर्गेनाइज कर रहे थे। इनको पुलिस ने दिखाया है कि ये वो लोग हैं जो प्रोटेस्ट को हिंसा की ओर बढ़ा रहे थे।
चौथे वो लोग हैं जिन्होंने 24 तारीख को हिंसा में हिस्सा लेना शुरु किया। ये कॉमन मैन थे। जिन्हें ये पता नहीं था कि उन्हें हिंसा के लिए लाया जा रहा है वो तो बेचारे अंजाने में हिंसा में शामिल हो गए। और ये सारी चीजें शुरु हो गईं। ये पुलिस का फोर डायमेंशनल थियरी है। अपनी इस फोर डायमेंशनल कांस्पिरेसी थियरी को साबित करने के लिए इन्होंने बीच में इन्फॉर्मर डाल दिए। कि साहेब इन्फॉर्मर ने हमें ये बताया था कि साहेब ऐसी बाते हो रही थीं। उनके बीट कांस्टेबल, इंटेलिजेंस और सिक्योरिटी एजेंट की बात डाल दी कि साहब हमने ऐसी बातें सुनी थी वहां पर ऐसी बातें हो रही थीं। और ये सब डालकर लांग टर्म कांस्पिरेसी का केस बनाया गया।
दिल्ली पुलिस सिर्फ़ अपने चार डॉक्यूमेंट रिलीज कर दे सच सामने आ जाएगा
विकास नारायण राय जांच को पारदर्शी बनाने की वकालत करते हुए कहते हैं- “प्राइवेट आदमी की बात छोड़िये मैं सिर्फ़ दिल्ली पुलिस के अपने डॉक्यूमेंट की बात कर रहा हूँ। दिल्ली पुलिस केवल चार बातें करे-
- कृपा करके आपके जितने भी एसओएस कॉल आए हैं वो सारे एसओएस कॉल और उसके फॉलोअप को आप रिलीज कर दीजिए। जो एसओएस कॉल पुलिस स्टेशन और कंट्रोल रूम में आई हैं वो रिकॉर्डेड होती हैं। उन कॉल्स पर आपकी क्या बात-चीत होती है और उसका क्या फॉलोअप आपने किया वो रिलीज कर दीजिए।
- दूसरी चीज जब से प्रोटेस्ट साइट बनती है दिल्ली पुलिस के लोग बाकायदा वहां जाते होंगे प्रोटेस्ट साइट को कवर करने के लिए जिन्हें हम बीट कांस्टेबल कहते हैं या उन्हें हम सिक्योरिटी एजेंट या इंटेलिजेंस एजेंट कहते हैं। और ये पुलिस का सिस्टम है कि पुलिस वहां जा करके उनकी रिपोर्ट्स रोज फाइल करती है। दिसंबर से प्रोटेस्ट साइट शुरु हो जाती हैं। यदि ये कांस्पिरेसी है तो ये संभव ही नहीं है कि वो पुलिस की उस रिपोर्ट में रिफ्लेक्ट न हो रही हों। आप वो रिपोर्ट रिलीज कर दीजिए। रिपोर्ट में वो सब जो होगा सामने आ जाएगा।
- तीसरी चीज कि आपकी जो पुलिस पार्टी मौके पर जाती है दंगों को कंट्रोल करने के लिए या कानून और व्यवस्था की स्थिति को पुनर्बहाल करने के लिए ये सुप्रीम कोर्ट का भी दिशा-निर्देश है और हर एक पुलिस के प्रोटोकॉल में शामिल है कि वो अपने साथ में वीडियो ग्राफर और फोटोग्राफर को लेकर जाते हैं। इसके लिए पुलिस में तमाम पोस्ट तक नियत हैं। दिल्ली पुलिस में तो फोटोग्राफर मौजूद हैं। और वो इन टीम के साथ गए भी होंगे। आप उनके वीडियोग्राफ और फोटोग्राफ दिखा दीजिए।
- चौथी सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि जब इनफ्लिक्ट ऑफ द एक्शन यानि जब पुलिस जाती है तो पुलिस वाले की जान पर भी बनी होती है। वो आपस में तरह तरह के मैसेजेज लेते-देते रहते हैं। आपस में बात करते रहते हैं, फोन पर बाते करते हैं और उनकी वो बातें फोन पर रिकॉर्ड होती हैं। और वो सारा कॉल रिकार्ड और ट्रांसक्रिप्ट है उसे रिलीज कर दीजिए।
आप चारों चीजें रिलीज कर दीजिए और एक कमीशन बैठा दीजिए कि वो चारों चीजों को देखे तो सारा सच निकलकर बाहर आ जाएगा। सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। साहेब आप किसी प्राइवेट आदमी की बातें उसके डॉक्य़ूमेंट पर भरोसा मत कीजिए। लेकिन कम से कम अपने डॉक्यूमेंट पर भरोसा करते हुए इन सबको रिलीज कीजिए एनालिसिस कीजिए। और उस एनालिसिस को अपनी चार्जशीट का हिस्सा बनाइए। फिर आप जिस नतीजे पर पहुँचेंगे उसकी काट नहीं होगी किसी के पास कि वो झुठला सके।
(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)