Tuesday, April 23, 2024

लक्ष्मणपुर-बाथे की तरह सेनारी नरसंहार में भी पटना हाईकोर्ट को सबूत नहीं मिला, 13 आरोपी बरी

पटना हाईकोर्ट ने 9 अक्टूबर, 2013 को लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार के सभी 26 आरोपियों को बरी कर दिया था और कहा था कि किसी के खिलाफ 58 लोगों के नरसंहार में कोई सबूत नहीं था। इसी तरह बिहार के जहानाबाद जिले के चर्चित सेनारी नरसंहार मामले में पटना हाईकोर्ट ने निचली अदालत का फैसला पलट दिया है। कोर्ट ने 18 मार्च, 1999 में 34 लोगों की हत्या के आरोपी सभी 13 आरोपियों को बरी कर दिया है।जस्टिस अश्वनी कुमार सिंह और जस्टिस अरविंद श्रीवास्तव की खंडपीठ ने लंबी सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। खंडपीठ ने शुक्रवार को अपना फैसला सुनाते हुए 5 साल पहले निचली अदालत के फैसले को रद्द करते हुए सभी 13 आरोपियों को तुरंत रिहा करने का आदेश दे दिया। एमसीसी के कार्यकर्ताओं के खिलाफ सेनारी नरसंहार का आरोप था।

फैसले में कहा गया है कि गवाह इस स्थिति में नहीं थे कि रात में अभियुक्तों की पहचान कर सकें। गवाह यह स्पष्ट नहीं कर पाए कि वो अभियुक्तों को देख पाने में सक्षम थे। उच्च न्यायालय के समक्ष आए अभियुक्तों में कोई भी प्राथमिकी में नामित नहीं था। वहीं गवाह घटना स्थल पर एक-दूसरे की उपस्थिति की पुष्टि भी नहीं कर सके। जहानाबाद जिला अदालत ने 15 नवंबर 2016 को इस मामले में 10 को मौत की सजा सुनाई थी, जबकि 3 को उम्र कैद की सजा दी थी।

18 मार्च, 1999 की रात प्रतिबंधित नक्सली संगठन के उग्रवादियों ने सेनारी गांव को चारों तरफ से घेर लिया था। इसके बाद एक जाति विशेष के 34 लोगों को उनके घरों से जबरन निकालकर ठाकुरवाड़ी के पास ले जाया गया, जहां बेरहमी से गला रेत कर उनकी हत्या कर दी गई थी। इसके बाद जहानाबाद में जातीय और उग्रवादी हिंसा की जो चिंगारी से निकली आग की लपटें तकरीबन अगले डेढ़ दशक तक पूरे इलाके के सामाजिक शांति को राख करती रहीं। मामले में निचली अदालत के फैसले की पुष्टि के लिए पटना हाईकोर्ट में राज्य सरकार की ओर से डेथ रेफरेंस दायर किया गया, जबकि आरोपी द्वारिका पासवान, बचेश कुमार सिंह, मुंगेश्वर यादव और अन्य की ओर से क्रिमिनल अपील दायर कर निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी गई थी।

18 मार्च 1999 में यह नरसंहार हुआ था, जिसमें 34 लोगों की हत्या हुई थी। घटना में 10 को फांसी और तीन लोगों को उम्रकैद की सजा निचली अदालत ने सुनायी थी। 15 नवंबर 2016 को जहानाबाद जिला अदालत ने अपना फैसला सुनाया था। जिला अदालत ने 17 साल बाद फैसला सुनाते हुए 10 दोषियों को मौत की सजा सुनाई थी। 34 लोगों के इस बहुचर्चित नरसंहार कांड के तीन दोषियों को उम्रकैद की सजा दी गई थी और उन पर एक-एक लाख रुपए जुर्माना लगाया गया था।उस फैसले के वक्त इस केस में दो दोषी फरार भी थे। तब निचली अदालत ने फैसले में इस नरसंहार में मारे गए लोगों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश दिया था। इस केस के कुल 70 आरोपियों में से 4 की मौत हो चुकी है। 2016 में निचली अदालत पहले ही 20 आरोपियों को बरी कर चुकी थी।

18 मार्च 1999 को जहानाबाद के सेनारी गांव में 34 लोगों को काट दिया गया था। सेनारी में वो काली रात थी। भेड़-बकरियों की तरह नौजवानों की गर्दनें काटी जा रही थीं। एक की कटने के बाद दूसरा अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। सोच कर देखिए दिल दहल जाएगा। कातिल धारदार हथियार से एक-एक कर युवकों की गर्दन रेतकर जमीन पर गिरा रहे थे और वहीं तड़प-तड़पकर सभी कुछ पलों में हमेशा के लिए चिरशांत हो जा रहे थे।

90 के दशक में बिहार जातीय संघर्ष से जूझ रहा था। सवर्ण और दलित जातियों में खूनी जंग चल रहा था। जमीन-जायदाद को लेकर एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। एक को रणवीर सेना नाम के संगठन का साथ मिला तो दूसरे को माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर का। 18 मार्च 1999 की रात को सेनारी गांव में 500-600 लोग घुसे। पूरे गांव को चारों ओर से घेर लिया। घरों से खींच-खींच के मर्दों को बाहर निकाला गया। चालीस लोगों को खींचकर बिल्कुल जानवरों की तरह गांव से बाहर ले जाया गया।

गांव के बाहर सभी को एक जगह इकट्ठा किया गया। फिर तीन ग्रुप में सबको बांट दिया गया। फिर लाइन में खड़ा कर बारी-बारी से हर एक का गला काटा गया। पेट चीर दिया गया। 34 लोगों की नृशंस हत्या कर दी गई। प्रतिशोध इतना था कि गला काटने के बाद तड़प रहे लोगों का पेट तक चीर दिया जा रहा था। ताकि पूरी तरह कन्फर्म हो जाए की वो मर ही जाएगा। पेट चीरने का मकसद बस इतना ही था।

मरने वाले सभी भूमिहार जाति से थे और मारने वाले एमसीसी के। इस घटना के अगले दिन तब पटना हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार रहे पद्मनारायण सिंह अपने गांव सेनारी पहुंचे। अपने परिवार के 8 लोगों की फाड़ी हुई लाशें देखकर उनको दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई।

90 के दशक में बिहार के जहानाबाद में भूमिहारों और भूमिहीनों के बीच हुआ था।  भूमिहारों का सारी जमीनों पर कब्जा था। इनका कहना था कि हमने सब खरीदा है। बाप-दाद की मिल्कियत है। भूमिहीनों का कहना था कि सब छीना हुआ है। धोखे से जबर्दस्ती से। लोगों को मूर्ख बना के। इसे लेकर भूमिहारों की रणवीर सेना और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) आमने सामने आ गये।

18 मार्च 1999 को जब केंद्र में वाजपेयी सरकार अपना एक साल पूरा होने का जश्न मना रही थी तब उसी रात सेनारी गांव में 500-600 लोग घुसे। चारों ओर से घेर लिया। घरों से खींच-खींच के मर्दों को बाहर किया गया। कुल 40 लोगों को चुना गया। चालीसों को खींचकर गांव से बाहर ले जाया गया। एकदम जानवरों की तरह। तीन समूहों में बांट दिया गया। खींच-खींच के खड़ा कर दिया गया। फिर बारी-बारी से हर एक का गला और पेट चीर दिया गया। 34 लोग मर गये। 6 तड़प रहे थे। ये गांव भूमिहारों का था और मारने वाले एमसीसी के थे। इस घटना के अगले दिन पटना हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार पद्मनारायण सिंह यहां पहुंचे। सेनारी उनका गांव था। अपने परिवार के 8 लोगों की फाड़ी हुई लाशें देखकर उनको दिल का दौरा पड़ा। वो भी मर गये।  

इस हत्याकांड के पीछे डेढ़ साल पहले एक दिसंबर 1997 को जहानाबाद के ही लक्ष्मणपुर-बाथे के शंकरबिगहा गांव में 58 लोगों को मौत के घाट उतारने की घटना को जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसके बाद 10 फरवरी, 1998 को नारायणपुर गांव में 12 लोगों को काट दिया गया था। मरने वाले सारे दलित थे।मारने वाले भूमिहार। इस घटना के बाद केंद्र ने बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था, पर कांग्रेस के विरोध के चलते 24 दिनों में ही वापस लेना पड़ा था। राबड़ी सरकार फिर आ गई थी।

सेनारी कांड के दिन गांव को घेरने के अलावा दूसरे गांवों के रास्तों की भी मोर्चाबंदी कर दी गई थी। सेनारी से एक किलोमीटर दूर पुलिस चौकी को घेरकर गोलीबारी कर दी गई। जब पूरा कांड हो गया तो 45 मिनट बाद पुलिस पहुंच पाई। पुलिस कह रही थी कि अगर हम लोग नहीं आते तो और ज्यादा लोग मरते। हमने इतनी तत्परता दिखाई कि लोग बच गये।

1980 के फरवरी महीने में जहानाबाद के पिछड़े तथा दलित बहुल परसबिगहा गांव को चारों ओर से घेरकर आग लगाने और उसके बाद बाहर घर से बाहर निकलने वाले बीस लोगों को गोलियों से भूनने के बाद जहानाबाद में जातीय और उग्रवादी हिंसा की जो चिंगारी से निकली, आग की लपटें तकरीबन अगले डेढ़ दशक तक पूरे इलाके के सामाजिक शांति को राख करती रही। 1980 के दशक से शुरू हुए नरसंहारों के दौर से 2005 में नीतीश सरकार के अभ्युदय के बीच जहानाबाद तथा अरवल में नक्सली जातीय वर्चस्व को ले हुए खूनी संघर्ष में छोटी-बड़ी तकरीबन चार दर्जन नरसंहार की वारदातें हुईं, जिनमें तकरीबन साढ़े तीन सौ बेगुनाह लोगों के खून से दोनों जिलों की धरती लाल होती रही। पड़ोस के गया जिले में भी मियांपुर में पैंतीस और बारा में 36 लोगों का कत्लेआम किया गया था।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।) 

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