सर्दी के सितम से नहीं, व्यवस्था की काहिली से मरते हैं लोग

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नया साल शुरू हो चुका है और उससे पहले शुरू हो गई कंपकपा देने वाली सर्दी। इस समय भी देश के विभिन्न इलाकों में शीतलहर कहर बरपा रही है, जिससे हर साल की तरह देश के विभिन्न इलाकों से लोगों के मरने की खबरें भी आ रही है। अब तक 150 से ज्यादा लोग सर्दी की ठिठुरन से मौत की नींद सो चुके हैं। वैसे इस तरह की खबरें आना कोई नई बात नहीं है। कहीं भूख और कुपोषण से होने वाली मौतें तो कहीं गरीबी और कर्ज के बोझ से त्रस्त किसानों और छोटे कारोबारियों की खुदकुशी के जारी सिलसिले के बीच हर साल ही सर्दी की ठिठुरन, गरम लू के थपेड़ों और बारिश-बाढ़ से भी लोग मरते ही रहते हैं।

मौसम की अति के चलते असमय होने वाली ये मौतें हमारे उस भारत की नग्न सच्चाइयां है, जिसके बारे में दावा किया जाता है कि वह तेजी से विकास कर रहा है और जल्द ही दुनिया की एक आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा। यह सच्चाइयां सिर्फ हमारी सरकारों के ‘शाइनिंग इंडिया’, ‘भारत निर्माण’ ‘न्यू इंडिया’ ”स्टार्टअप इंडिया’, ‘स्टैंडअप इंडिया’, ‘मैक इन इंडिया’ जैसे हवा-हवाई कार्यक्रमों और पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हो जाने जैसे गुलाबी दावों की ही खिल्ली नहीं उड़ाती है, बल्कि व्यवस्था पर काबिज लोगों की नालायकी और संवेदनहीनता को भी उजागर करती हैं।

वैसे सर्दी हमारे नियमित मौसम चक्र का ही हिस्सा है। कड़ाके की सर्दी इसका हल्का सा विचलन भर है। सर्दी और भीषण सर्दी अंत में हमें कई तरह से फायदा ही पहुंचाती है। सबसे बड़ी बात है कि कड़ाके की सर्दी हमें आश्वस्त करती है कि ग्लोबल वार्मिंग उतनी सन्निकट नहीं है, जितना कि अक्सर हम मान बैठते हैं।

मौसम की मौजूदा अति भी हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। हर कुछ साल के बाद हमारा इससे सामना होता रहता है- कभी सर्दी में, कभी गरमी में तो कभी बारिश में। ज्यादातर भारतीय इस मायने में खुशनसीब हैं कि उन्हें मौसम की विविधताएं देखने को मिलती है। अन्यथा दुनिया में ऐसे कम ही इलाके हैं जहां हर मौसम का मजा लिया जा सके। हर मौसम अपने रौद्र रूप में भी सुंदर होता है, बशर्ते कि उसकी मार से लोगों को बचाने के इंतजामात हो। दुनिया में संभवत: भारत ही ऐसा देश है, जहां हर मौसम की अति होने पर लोगों के मरने की खबरें आने लगती है।

लेकिन हकीकत यह है कि लोग मौसम की अति से नहीं मरते हैं, वे मरते है अपनी गरीबी से, अपनी साधनहीनता से और व्यवस्था तंत्र की नाकामी या लापरवाही की वजह से। यूरोप के देशों में सरकारें मौसम की अति का मुकाबला करने के चाकचौबंद इंतजाम करती हैं, इसलिए वहां लोग हर मौसम का तरह-तरह से लुत्फ उठाते हैं। हमारे देश में भी खाया-अघाया तबका ऐसा ही करता है, जिसके पास हर मौसम की अति का सामना करने और उसका लुत्फ उठाने के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं।

भारत के ज्यादातर हिस्सों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती, लेकिन हमारे यहां जब हिमालय परिवार की पहाड़ियों पर गिरने वाली बर्फ से मैदानी इलाकों में शीतलहर चलती है तो देश के विभिन्न इलाकों में सर्दी की ठिठुरन से होने वाली मौतों के आंकड़ें आने लगते हैं। लेकिन अभी जो शीतलहर जारी है, वह सिर्फ हिमालयी प्रदेशों और गंगा-यमुना के मैदानों तक ही सीमित नहीं है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और रेगिस्तानी राजस्थान के साथ ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और सुदूर छत्तीसगढ़ तथा ओडिशा तक ठंड से ठिठुर रहे हैं।

सर्दी के इस सितम से सामान्य जनजीवन बुरी तरह गड़बड़ा गया है। देश के विभिन्न इलाकों से बेघर लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं। हालांकि बड़े शहरों से निकलने वाले समाचार पत्रों में अब सर्दी से होने वाली मौतों की खबरों को जगह मिलनी लगभग बंद हो गई है। कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था। तब अखबारों में नियमित खबरें छपती थी और हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट उन खबरों का संज्ञान लेकर संबंधित राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों से जवाब तलब करते थे, उन्हें साधनहीन लोगों के उचित इंतजाम करने के निर्देश देते थे।

लेकिन अब सरकारों का मीडिया प्रबंधन तंत्र ऐसी खबरों को छपने से रोकने मे सफल होने लगा है। यही वजह है कि अब कुछ गिने-चुने अखबारों में ही सर्दी से लोगों के मरने की खबरें छपती हैं। टेलीविजन चैनल तो सुबह से रात तक हिंदू-मुसलमान करने में ही व्यस्त रहते हैं। अगर थोड़ी फुरसत मिलती भी है तो उनके लिए अपने दर्शकों यह बताना ज्यादा जरूरी होता है कि फलां अभिनेत्री कब शादी करने वाली है, फलां अभिनेत्री कब मां बनने वाली है और किस अभिनेत्री का किस अभिनेता से तलाक होने वाला है या फिर वे यह बताते हैं कि लोग सर्दी का लुत्फ लेने के लिए क्या-क्या कर रहे हैं और कहां-कहां जा रहे हैं।

हकीकत यह है कि अगर समूचे भारत के आंकड़ें इकट्ठे किए जाएं तो हर साल सर्दी से मरने वालों की संख्या हजारों में पहुंचती है। ज्यादातर मौतें बड़े शहरों और महानगरों में होती हैं। जो मरते हैं, उनमें से ज्यादातर बेघर होते हैं। ऐसे लोग काम की तलाश में दूरदराज के इलाकों से अपने ही राज्य में या दूसरे राज्यों के बड़े शहरों या महानगरों में जाते हैं, ताकि मेहनत-मजदूरी कर अपने परिवार के जिंदा रह सकने लायक कुछ कमा सके। इनमे कोई साईकिल रिक्शा चलाते हैं, कोई रेस्तरां और ढाबों में काम करते है तो कोई किसी और काम में लग जाते हैं।

लेकिन चूंकि ऐसे लोगों के पास रहने के लिए अपना कोई ठिकाना नहीं होता है, इसलिए खुले आसमान के नीचे रात गुजारना उनकी मजबूरी होती है। गरमी या दूसरे में मौसम में तो किसी तरह उनकी रातें कट जाती हैं, लेकिन कड़ाके की शीतलहर में एक रात भी सुरक्षित बीत जाने पर वे असीम राहत महसूस करते हैं। अगर वे सर्दी जनित किसी बीमारी की चपेट में आ जाते हैं तो उनके पास इतने पैसे नहीं होते हैं कि वे अपना इलाज करा सके। सर्दी के दिनों में ऐसे जानलेवा हालात का सामना करने वाले लोगों की तादाद लाखों में होती है। सवाल है कि अगर इन लोगों के सामने साधनहीनता एक लाचारी है तो कल्याणकारी मूल्यों पर चलने का दावा करने वाली सरकारों की क्या जिम्मेदारी बनती है?

मौसम कोई भी हो, जब भी उसकी अति दरवाजे पर दस्तक देती है तो हमारी सारी व्यवस्थाओं की पोल का पिटारा खुलने लगता है। फिलहाल सर्दी की बात की जाए तो हमेशा की तरह इस बार भी सबसे ज्यादा पोल खुली है पूर्वानुमान लगाने वाले मौसम विभाग की। बारिश का मौसम खत्म होते ही हमें बताया गया था कि इस बार सर्दी कम पड़ेगी। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की चर्चाओं के बीच इस भविष्यवाणी पर किसी को भी हैरानी नहीं हुई। लेकिन जैसे ही सर्दी ने अपने तेवर दिखाने शुरू किए तो फिर मौसम विभाग की ओर से बताया गया कि यह कड़ाके ठंड चंद दिनों की ही मेहमान है, जल्द ही मौजूदा उत्तर पश्चिमी हवाओं का रुख बदलेगा और तापमान सामान्य के करीब पहुंच जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

सर्दी के तेवर और तीखे हुए तो शीतलहर के एक चक्र की घोषणा हो गई। सिर्फ मौसम विभाग ही नहीं, बाकी सरकारी महकमों का भी यही हाल है। फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और भूमिगत पारपथों पर रात गुजारने वाले बेघर लोगों के लिए रैन बसेरों की व्यवस्था अभी भी कई जगह अधूरी है या बिल्कुल ही नहीं है, जबकि सुप्रीम कोर्ट पूर्व में कई बार इस मामले में राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए पुख्ता बंदोबस्त करने के निर्देश दे चुका है। जहां रैन बसेरों की व्यवस्था करना संभव नहीं है, वहां अलाव जलाने के लिए लकड़ी मुहैया कराई जाती है, लेकिन यह भी नहीं हो पा रहा है।

दरअसल शहरी और अर्द्ध शहरी इलाकों में मौसम की मार से लोगों के मरने के पीछे सबसे बड़ी वजह है शहरी नियोजन में सरकारी तंत्र की अदूरदर्शिता। जब से आवासीय कॉलोनियों की बसाहट के मामले में विकास प्राधिकरणों और गृह निर्माण मंडलों के बजाय निजी भवन निर्माताओं और कॉलोनाइजरों का दखल बढ़ा है, तब से रोज कमाकर रोज खाने वालों और बेघर लोगों के लिए आवासीय योजनाएं हाशिए पर खिसकती गई हैं।

करोड़ों लोग आज भी फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर या टाट और प्लास्टिक आदि से बनी झोपड़ियों में रात बिताते हैं। बहुत से लोगों के पास तो पहनने को गरम कपड़े या ओढ़ने को रजाई-कंबल तो दूर तापने को सूखी लकड़ियां तक उपलब्ध नहीं है। ऐसे लोगों को मौसम की मार से बचाने के लिए अदालतें हर साल सरकारों और स्थानीय निकायों को लताड़ती रहती हैं, लेकिन सरकारी तंत्र की मोटी चमड़ी पर ऐसी लताड़ों का कोई असर नहीं होता है।

शीतलहर, बाढ़ और भीषण गरमी जैसी प्राकृतिक आपदाएं कोई नई परिघटना नहीं है। यह तो पहले से आती रही है और आती रहेंगी। इन्हें रोका नहीं जा सकता। रोका जा सकता है तो इनसे होने वाली जान-माल की तबाही को, जो सिर्फ राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र की ईमानदार इच्छा शक्ति से ही संभव है। ताजा शीतलहर और उससे होने वाली मौतें हमें बता रही हैं कि जब मौसम के हल्के से विचलन का सामना करने की हमारी तैयारी नहीं है और हमारी व्यवस्थाएं पंगु बनी हुई हैं, तो जब ग्लोबल वार्मिंग जैसी चुनौती हमारे सामने होगी तो उसका मुकाबला हम कैसे करेंगे?

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंदौर में रहते हैं)

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