झारखंड के नए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने घोषणा की है कि वे सत्ता पर बैठे लोगों को गार्ड ऑफ ऑनर की परंपरा को खत्म करेंगे। उन्होंने अभी-अभी मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें दिए गए गार्ड ऑफ ऑनर के मौके पर यह बात कही। वे एक मंदिर में गए थे, और वहां पुलिस काफी देर से उन्हें सलामी देने के लिए खड़ी कर दी गई थी। उन्होंने मंदिर से निकलते ही चप्पल पहनीं, और वैसे ही गार्ड ऑफ ऑनर लिया। उन्होंने कहा कि जूते-चप्पल का रिवाज अंग्रेजों द्वारा बनाया गया एक पाखंडी रिवाज था जिसे वे नहीं मानते। उन्होंने कहा कि पुलिस को वीआईपी-रूढ़िवादिता में समय बर्बाद करने की जगह जनता की सेवा में लगाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पिछली सरकारों द्वारा मुख्यमंत्री के दौरे पर दी जाने वाली ऐसी सलामी को वे जल्द से जल्द खत्म करेंगे।
आदिवासी समुदाय से आए हुए हेमंत सोरेन की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने सामंती परंपरा तोडऩे का साहस किया है जिस पर जनता का मेहनत का पैसा बर्बाद होता है, और किसी बड़े सत्तारूढ़ नेता, या किसी बड़े अफसर को सलामी देने के लिए सलामी-गारद को दिन-दिन भर तैनात कर दिया जाता है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लगातार ऐसे सामंती रिवाजों के खिलाफ लिखते हैं। छत्तीसगढ़ में राजभवन में सभागृह बना, तो राष्ट्रपति भवन के अंदाज में उसका एक सामंती नाम दरबार हॉल रख दिया गया। जनता के पैसों से जो राजभवन बना है, जिस राज्य में 40 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे है, वहां पर दरबार हॉल, दरबार, महलनुमा सरकारी-म्युनिसिपल दफ्तर, राज्यपाल के कार्यक्रमों के लिए बस भरकर पहले से पहुंचने वाला पुलिस बैंड, यह सब परले दर्जे का दिखावा है, जिसे जल्द से जल्द खत्म करना चाहिए। राज्यपाल के हर कार्यक्रम के पहले और बाद पुलिस बैंड राष्ट्रगान बजाता है, और वहां मौजूद लोग खड़े रहते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि एक राज्यपाल के लिए पूरे वक्त का ऐसा समर्पित पुलिस बैंड क्यों होना चाहिए, जिस पर गरीब जनता के लाखों रूपए महीने तनख्वाह और बाकी खर्च पर डुबाए जाते हों? एक-एक पुलिस कर्मचारी का सरकार पर बोझ 25-50 हजार रूपए महीने का होता है, और ऐसे आधा-एक दर्जन कर्मचारी बैंड बजाते गवर्नर के साथ क्यों घूमें? कायदे की बात तो यह है कि जिस तरह प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति बनने के बाद अपने लिए महामहिम शब्द का इस्तेमाल खत्म करवाया था, और जिसे देखकर बाद में कई, या सभी, राज्यपालों ने भी अपने लिए वैसा ही किया था, उस तरह का काम देश के सभी मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों को करना चाहिए, सलामी-गारद खत्म होनी चाहिए, और पुलिस बैंड का ऐसा राजकीय इस्तेमाल भी खत्म होना चाहिए। किसी भी सभागृह में कोई भी एक व्यक्ति माईक पर राष्ट्रगान गा सकते हैं जिसे बाकी लोग दुहराएं, राष्ट्रगान के लिए भी अगर लाखों रूपए महीने का खर्च किया जाता है, तो यह गर्व की नहीं, शर्म की बात है।
इसी तरह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कल जंगल-अफसरों की एक बैठक में कहा है कि अफसरों को जनसेवक की तरह काम करना चाहिए। राज्य सरकार को चाहिए कि वे जिलों में सत्ता के सबसे बड़े प्रतीक, कलेक्टर के पदनाम को बदलकर जिला जनसेवक करे। आज कलेक्टर, जिलाधीश, जिलाधिकारी जैसे नामों से ऐसा लगता है कि वे जनता से लगान कलेक्ट करने का ही काम करते हैं, जबकि उनका जिम्मा टैक्स वसूली से अधिक जनकल्याण पर खर्च का हो चुका है, लेकिन अंग्रेजों के वक्त का दिया हुआ कलेक्टर पदनाम अब तक जारी है, जिसे अलग-अलग प्रदेशों में जिलाधीश जैसे नाम से भी बुलाते हैं जो कि किसी मठाधीश जैसा लगता है।
सामंती शब्दावली महज कागज पर नहीं रहती, वह सत्ता की कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों की मानसिकता पर भी हावी हो जाती है, आज देश में जिला कलेक्टरों की बड़ी जिम्मेदारी जनसेवा की हो गई है, जनकल्याण और विकास की हो गई है। इसलिए कलेक्टर और जिलाधीश जैसे शब्द खत्म करने चाहिए। इसके साथ-साथ सरकार को अपनी भाषा से वीआईपी शब्द भी खत्म करना चाहिए जो कि मोटेतौर पर सत्तारूढ़ बड़े लोगों के अहंकार के हिंसक और अश्लील प्रदर्शन का ही शब्द हो गया है।
भाषा की राजनीति और भाषा का समाजशास्त्र बदलने का काम आमतौर पर सत्ता पर काबिज लोग नहीं कर पाते क्योंकि वे उसका मजा लेने के आदी हो जाते हैं। आज राष्ट्रपति भवन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इतने किस्म की पोशाकें, इतने किस्म के रिवाज और आडंबर दिखते हैं जिन पर जनता का पैसा खर्च होता है। अंग्रेज चले गए और ऐसी महंगी गंदगी छोड़ गए हैं जिन्हें ढोने में आज के काले देसी अंग्रेजों को मजा आता है।
सुप्रीम कोर्ट में जजों और वकीलों की पोशाक देखें, तो जादूगरों जैसे काले लबादे पहनना एक बंदिश है, और ऐसी बंदिश की वजह से वहां के एयरकंडिशनरों को अतिरिक्त काम करना पड़ता है ताकि लोग लबादों के भीतर भी गर्मी महसूस न करें। हिन्दुस्तानी मानसिकता को अंग्रेजों का छोड़ा गया पखाना अपने सिर पर ढोना बंद करना चाहिए। हर राज्य को चाहिए कि वह अपने भीतर के ऐसे सामंती पाखंड की शिनाख्त करे, और ऐसा सिलसिला तुरंत खत्म करे। ऐसा ही काम राष्ट्रपति से लेकर अदालतों तक को करना चाहिए। हेमंत सोरेन ने एक अच्छा इरादा जाहिर किया है, और अंग्रेजों के छोड़े रिवाजों के पखानों से आजादी पाना ही सही लोकतंत्र होगा।
(यह सुनील कुमार का लेख है जिसे देवेंद्र सुरजन की फेसबुक वाल से साभार लिया गया है।)