Wednesday, April 17, 2024

पुस्तक चर्चाः पीएम मोदी के न्यू इंडिया में मंदी

(एक ऐसे दौर में जबकि देश भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहा है और समाधान के नाम पर सरकार के पास कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। तब आर्थिक विषय पर चर्चा बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। और यह चर्चा अगर पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ी हो तब उसकी अहमियत और बढ़ जाती है। वरिष्ठ पत्रकार और यूएनआई में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके सीपी झा ने कुछ इसी तरह की कोशिश की है। उन्होंने आर्थिक विषय पर पूरी एक किताब लिख डाली है। जिसका शीर्षक है ‘न्यू इंडिया में मंदी’। इसमें अर्थव्यवस्था से जुड़े विभिन्न पहलुओं को उठाया गया है और इसके साथ ही नीति निर्माताओं से सवाल भी पूछे गए हैं। यह पुस्तक ऑन लाइन मौजूद है। जनचौक ने इसे श्रृंखलाबद्ध तरीके से प्रकाशित करने का फैसला किया है। इस कड़ी में एक-एक लेख बारी-बारी से जनचौक पर दिए जाएंगे। पेश है उसकी पहली किस्त- संपादक)

“सीपी झा की हिंदी ई-पुस्तक “न्यू इंडिया में मंदी” नीति निर्धारकों और विश्लेषकों को सोचने के लिए खादपानी देती है।”

जीडीपी दर वित्त्त वर्ष 19 की 6.8 फ़ीसदी के मुकाबले 2019-20 के लिए 5 फ़ीसदी होने की आशंका को देखते हुए, भारत की अर्थव्यवस्था बेहद बुरी स्थिति में है। एनएसओ के राष्ट्रीय आय के प्रारंभिक अनुमान के अनुसार विनिर्माण क्षेत्र उत्पादन विकास पिछले साल के 6.9 फ़ीसदी के मुकाबले 2019-20 के लिए 2 फ़ीसदी तक गिरने और निर्माण क्षेत्र विकास 2018-19 के 8.7 फ़ीसदी की तुलना में 3.2 होने की आशंका है।

जाहिर है, आर्थिक मंदी के जिस दौर से भारत गुज़र रहा है, वह 2008-09 जैसा है, जब आर्थिक विकास 3.1 दर्ज किया गया था। 2008-09 के दौरान मंदी सीधे-सीधे उस समय के वैश्विक आर्थिक संकट का नतीजा थी, लेकिन यह मंदी एक तरह से ‘मानव (मोदी) निर्मित’ है। अपने स्तर पर मोदी सरकार ने देश के वर्तमान आर्थिक संकट की गंभीरता को कम आंकने और दुनिया के अन्य हिस्सों में मंदी से जोड़ने की कोशिश की है। पर, सच यही है कि देश की वर्तमान मंदी देश में कमज़ोर आर्थिक प्रशासन या लगभग इसके अभाव का नतीजा है।

बहुत समय नहीं हुआ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को ट्रिलियन डॉलर अर्थ व्यवस्था बनाने की बात करते थे। पर पिछले पांच से छः सालों में विमुद्रीकरण और जीएसटी जैसे विनाशकारी निर्णयों से अर्थव्यवस्था प्रबंधन में जिस तरह मोदी ने गलतियां की हैं, भारत के ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था बनने में कई साल लग जाएंगे।

भारत की बिगड़ती अर्थव्यवस्था का संज्ञान लिया जा रहा है, यह सिंगापुर के वरिष्ठ मंत्री और जाने-माने अर्थशास्त्री और राजनेता थर्मन शन्मुगरत्नम की हाल की टिप्पणी से समझा जा सकता है। उन्होंने भारतीय रिज़र्व बैंक के तृतीय सुरेश तेंदुलकर व्याख्यान देते हुए कहा, “2024-25 तक पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था हासिल करने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि बेरोज़गारी बढ़ती न रहे, भारत को अगले एक दशक में 14 करोड़ नौकरियां पैदा करनी होंगी, जिसमें से आधी पहले पांच साल में।”

एक फरवरी को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बजट पेश करने के पहले आई चन्द्र प्रकाश झा की नयी हिंदी ई-पुस्तक “न्यू इंडिया में मंदी” के आने का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता था। यह भारतीय भाषा में अपनी तरह का पहला गंभीर प्रयास है जो बताता है कि वर्तमान मंदी के सन्दर्भ में देश की अर्थव्यवस्था में क्या गड़बड़ी है।

लेखक जो कि अपने पेशे के लोगों में सीपी के रूप में जाने जाते हैं, जेएनयू से पढ़े हैं और वरिष्ठ द्विभाषी पत्रकार हैं, यूनाइटेड न्यूज़ इंडिया के लिए विशेष संवाददाता के रूप में ग्रामीण-शहरी भागों से लेकर आर्थिक और वित्तीय मामलों पर व्यापक रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अपने लगभग चार दशक के करियर में उन्होंने लगभग दो दशक देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में गुज़ारे हैं।

किताब का यह पहला भाग है जिसमें मंदी के अर्थ को विस्तार में समझाया गया है। सीपी ने 100 पृष्ठों से अधिक की इस किताब में कुल 10 चैप्टर लिखे हैं। किताब मुख्य रूप से तथ्यों नज़रियों और वास्तविकताओं पर केन्द्रित है और यह ‘न्यू इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्ट अप इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ आदि बहुप्रचारित जुमलों के अलावा सरकार के एयर इंडिया के विनिवेश के विफल प्रयासों, पीएनबी घोटाले, भारत में वालमार्ट के प्रवेश, काले धन आदि विषयों की विश्वसनीय आंकड़ों से पड़ताल करती है। इसके अलावा इसमें मई दिवस शताब्दी की पूर्व संध्या पर ट्रेड यूनियन मूवमेंट पर अपनी तरह का एक ऐतहासिक दस्तावेज़ भी है।

लेखक ने अपने वक्तव्य “कुछ बातें” में पाठकों को बताया है कि आर्थिक विषयों पर उनका पहला लेख 1985 में छपा था। वह बताते हैं, “मैंने यह लेख जेएनयू के पुराने परिसर पुस्तकालय में तैयार किया था और विमुद्रीकरण के मोदी सरकार के कदम के बाद लोगों को हुए पीड़ादायक अनुभव के बाद इसे अपडेट किया, जो विभिन्न मीडिया आउटलेट में प्रकाशित हुआ।” वह कहते हैं कि काला धन जब सफ़ेद हो जाता है तो इसकी ताकत और बढ़ जाती है और यही मोदी के विमुद्रीकरण के नतीजे के रूप में सामने आया।

सीपी के अनुसार भारतीय भाषाओं के पत्रकारों को आर्थिक विषयों पर लिखने में खासी समस्या इसलिए भी होती है कि उनके पाठकों में आर्थिक लेखन गूढ़ता के कारण समझने के लिए पर्याप्त जानकारी का अभाव होता है। लेखक के अनुसार, “मैंने वर्तमान स्थिति को समझाने के लिए “जटिल महामंदी” जैसे विशेषण का इस्तेमाल किया, क्योंकि मेरे पाठक मंदी के बाद ‘स्टैगफ्लेशन’ जैसे शब्दों का अर्थ आसानी से नहीं समझ सकते, जो कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने ‘द हिंदू’ के लेख में इस्तेमाल किया था।”

भारत में ट्रेड यूनियन मूवमेंट पर अपने पुराने लेख को लेकर लेखक कहते हैं कि श्रम आर्थिक उत्पाद का अभिन्न अंग है और इसलिए आर्थिक विषयों की रिपोर्टिंग करने या इन पर लिखने के लिए इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। वह कहते हैं कि मुंबई में कपड़ा मिलों का बोलबाला के तहत, वहां के अखबारों में ‘लेबर बीट’ हुआ करती थी पर मिलों के बंद होने के बाद धीरे-धीरे यह समाप्त हो गई।

उनके अनुसार, “इसके स्थान पर अब आईपीओ बीट है, जिसके तहत विभिन्न कंपनियों के शेयर बाज़ार में उतरने पर शेयर बेचे जाने की प्रक्रिया कवर की जाती है। हालांकि भारतीय भाषाओँ के पत्रकार ऐसे आईपीओ और एफपीओ की घोषणा के समय प्रेस कांफ्रेंस में वितरित दस्तावेजों में शामिल आवश्यक खुलासों के बारे में कुछ ख़ास रिपोर्ट नहीं करते।”

इंडियन बिज़नस जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन के संस्थापक महासचिव के रूप में वह अपने अनुभव का ज़िक्र करते हैं, जो ट्रस्ट के रूप में बनाया गया था और पूंजी बाज़ार के गूढ़ मामले समझने में पत्रकारों की मदद करना जिसका उद्देश्य था तथा व्यापार एवं उद्योग से जुड़े प्रेस कार्यक्रमों को अनौपचारिक रूप से रेगुलेट भी करता था। “दुर्भाग्य से, आईबीजेए अपनी आंतरिक समस्याओं और आपसी मतभेदों के कारण ठप पड़ गया और मैंने इस्तीफ़ा दे दिया।”

इस किताब के मुखपृष्ठ पर घोंघा की  तस्वीर के बारे में सीपी का कहना है कि यह जर्मन लेखक गुंटर ग्रास (1927-2015) की 1959 में प्रकाशित और नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास ‘द टिन ड्रम’ से अलग एक कविता से प्रेरित है। उपन्यास नात्सी जर्मनी में आर्थिक विनाश, विश्व युद्ध की आशंका और उसमें जर्मनी की हार के नतीजतन अपराध की भावना दर्शाता है। सीपी बताते हैं, “कविता से निकलती भावना और भारत की वर्तमान आर्थिक और सामरिक स्थिति में थोड़ी समानता भी है।”

किताब की एक प्रस्तावना (अग्रेज़ी में) में इकनोमिक टाइम्स के कंसल्टिंग एडिटर टीके अरुण कहते हैं कि लेखक ने दशकों व्यावसाय और अर्थ की स्पष्ट, पठनीय और सरल भाषा में रिपोर्टिंग, लेखन में गुज़ारे हैं। उन्होंने लिखा है, “आर्थिक व्यवस्था पर मेरे पुराने मित्र, जिसे हम ‘सुमन’ कहकर बुलाते हैं और जो जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (नयी दिल्ली) में हमारे हॉस्टल के सह निवासी, साथी के हिंदी में लिखे लेखों के संग्रह पर कुछ लिखने का मौका मिलने पर मैं बेहद प्रसन्न हूं। अर्थव्यवस्था पर अंग्रेजी से अनुवाद के बजाय भारतीय भाषाओं में लिखा जाना बेहद ज़रूरी है, और ऐसा कई कारणों से है।”

जैसा कि अरुण अपनी प्रस्तावना में कहते हैं, जो व्यक्ति हिंदी में लिखता है तो वह हिंदी भाषियों की चिंताओं को प्राथमिकता देता है। अंग्रेजी प्रेस में पत्रकारों के मन की चिंताएं भारतीयों के बड़े वर्ग की चिंताओं जैसी ही हों, ज़रूरी नहीं है। अंग्रेजी एलिट वर्ग की भाषा है और अखबार उन्हीं लोगों की चिंताओं को तरजीह देते हैं जो उनके पाठक हैं, बजाय कि व्यापक समाज की चिंताओं को।” अरुण के अनुसार आर्थिक विषयों पर भारतीय भाषाओं में मूल लेखन न सिर्फ व्यापक वर्ग की चिंताओं को प्रतिबिंबित करता है बल्कि विषय की समझ का स्तर भी बढ़ाता है। एक आर्थिक अखबार में भी पत्रकार को मौद्रिक नीति पर लिखते समय समझाना पड़ता है कि रेपो रेट या रिवर्स रेपो रेट क्या है।”

उनके अनुसार आर्थिक अखबार पड़ने वाले पाठकों के लिए इतना ही बताना काफी है कि रेपो रेट वह ब्याज दर है जो भारतीय रिज़र्व बैंक को पैसा मुहैया कराती है। अब यह बैंकों के लिए अतिरिक्त धन राशि का सबसे सस्ता स्रोत है, इसलिए जब रेपो रेट बढ़ता है, बैंकों की निधि की लागत बढ़ती है और उनके ऋण देने की दरें भी बढती हैं, इसे विस्तार में नहीं बताया जाता, लेकिन गैर कारोबारी पृष्ठभूमि के पाठकों को यह खोलकर बताना आवश्यक होता है। एक हिंदी पत्रकार जब हिंदी में लिखता है तो वह स्वाभाविक रूप से ऐसा करता है।”

अरुण लिखते हैं, “जो सड़क के आदमी के लिए लिखते हैं वह कारोबार और आर्थिकता को राजनीतिक अर्थव्यवस्था के नज़रिए से देखते हैं बजाय इसके कि वह कारोबार में राजनीतिक हस्तक्षेप के रूप में देखें। डॉलर के मुकाबले रुपये की मजबूती का राजनीतिक अर्थव्यवस्था का पहलू है यह बहुत लोग नहीं जानते। यहां तक कि फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और पेट्रोलियम सब्सिडी भी राजनीतिक निर्णय होते हैं।”

“भारतीय भाषा का एक पत्रकार यह सोचेगा कि फोरेन एक्सचेंज में भारतीय रिज़र्व बैंक के हस्तक्षेप का आम आदमी पर या विभिन्न कारोबारी हितों पर क्या असर होगा जबकि एक आर्थिक पत्रकार एक्सचेंज दर को विदेशी करंसी की मांग और आपूर्ति के उत्पाद के तौर पर ही देखेगा।” पुस्तक की दूसरी प्रस्तावना में मार्केट एंड स्ट्रेटेजी एडवाइज़र डॉ. अहमद शाह फ़िरोज़ लिखते हैं, “सीपी झा के प्रयास सराहनीय हैं। पत्रकारिता में लम्बे समय के जुड़ाव ने विषय को एक नया स्वरूप दिया है और परिवर्तन के लिए धड़कते उनके ह्रदय को सामने लाया है।”

डॉ. फ़िरोज़ कहते हैं, “कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकेगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था चुनौतीपूर्ण समय से गुज़र रही है। मामला संगीन इसलिए भी है कि न तो इसमें सुधार के लक्षण दिखाई देते हैं और न ही बदलाव के लिए आवश्यक सरकार के नीतिगत हस्तक्षेप दिखाई दे रहे हैं।”

डॉ. फ़िरोज़ कहते हैं कि देश की पहले से नाज़ुक अर्थव्यवस्था को विमुद्रीकरण जैसे क़दमों से झटके लगे, जिसमें नवंबर 2016 में चलन में रहे करंसी नोटों के कुल मूल्य के 85 फीसदी का विमुद्रीकरण किया गया। हालांकि इस कार्रवाई के लिए कई तर्क पेश किए गए पर सच यही है कि इसके नतीजे वांछित उद्देश्यों के करीब भी नहीं थे और इसने छोटे कारोबारियों, किसानों और समाज के कई अन्य कमज़ोर तबकों की अर्थव्यवस्था और आजीविका चौपट कर दी। जैसी कल्पना की गई थी, काले धन का कोई नाश नहीं हुआ।”

अपना कर राजस्व बढ़ाने की हड़बड़ी में सरकार जल्दबाजी में जीएसटी लाई, वह भी बिना ढांचागत कार्य व्यवस्था के। इससे भ्रम और टकराव बढ़ गए। हड़बड़ी में व्यवस्था लागू करने के कारण इसकी कमियों से टैक्स चोरी और कर बचाने के तरीके तलाशने की प्रक्रिया में जटिलताएं बढ़ गईं। ताज़ा आर्थिक इतिहास से यह दो उदाहरण हैं, जिनमें समाज के कमज़ोर तबकों और मध्यम वर्ग को अपनी किसी गलती के बिना भुगतना पड़ा। इसके बाद सरकार ने कई समाज कल्याण कार्यक्रम शुरू किए जो राजनीतिक नज़रिए से थे पर इन दो क़दमों से हुए नुक्सान की भरपाई की कोशिश दर्शाते थे।

लेकिन बहुत कुछ नहीं बदला और आर्थिक विकास धीमा पड़ता गया जैसा कि पिछले कुछ सालों में देखा गया है। इस समय दर्शनीय नीतिगत अराजकता समाज के भीतर हितों में टकराव का प्रतिबिम्ब है, जिन्होंने प्रतिक्रियात्मक  सरकारी फैसलों का आधार बनाया है। ऐसे कुछ निर्णयों से राजनीतिक उद्देश्य हल हो सकते हैं, पर आर्थिक तर्क की कसौटी पर यह विफल हो जाते हैं।

डॉ. फ़िरोज़ के अनुसार, “इसीलिए आर्थिक गतिविधियों, उनकी दिशाओं और सामग्री को दीर्घावधि नज़रिए से देखा जाए और अलग-अलग घटनाओं को जोड़कर एक विचार समाज के सामने रखा जाए कि आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में वह कोई निर्णय ले सके।”

वह कहते हैं, “सीपी के लेखों का संग्रह एक लम्बी अवधि में समय-समय पर लिखा गया है और यह उस समय के समाज और अर्थ व्यवस्था पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां हैं। ऐतिहासिक नज़रिए से इनको देखा जाए तो यह आधुनिक नीति निर्धारकों और विश्लेषकों को सोचने के लिए खादपानी देते हैं।
(जारी…)

नीलाभ श्रीवास्तव
सीईओ नॉटनल, लखनऊ

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles