Thursday, March 28, 2024

माओवादियों को खत्म करने से नहीं होगा समस्या का अंत

हाल में छत्तीसगढ़ में चौबीस सिपाहियों की मृत्यु हुई। सारा देश इस खबर से दुखी हुआ। गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ गये। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से माओवाद से निर्णायक युद्ध की घोषणा की। सोशल मीडिया और चैनलों पर बदला लेने और माओवादियों को मिटा देने के स्वर गूंजने लगे।

सुरक्षा बलों पर इस तरह का यह हमला कोई पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी अनेकों बार हमले हुए, हर बार गृहमंत्री और मुख्यमंत्री ने माओवाद के खात्मे का अपना दावा पेश किया। लेकिन सुरक्षा बलों के सिपाहियों की मौत होती रहीं।

हमारे देश में दरअसल गंभीर चिंतन और चर्चा के पक्ष में माहौल नहीं है। जैसे अगर कोई कहे कि आइये इस समस्या पर गंभीर चिंतन करते हैं। आइये इस बात पर विचार करते हैं कि इतने वर्षों से लगातार होने वाले हमलों को कोई सरकार क्यों नहीं रोक पा रही है। हर बार सुरक्षा बलों के जवानों की संख्या बढ़ा दी जाती है। लेकिन हमले फिर भी क्यों नहीं रुक पाते हैं।

आइये इस पर चर्चा करें कि क्या माओवाद को सिपाहियों की संख्या बढ़ा कर रोका जा सकता है? साथ ही इस बात की भी चर्चा करें कि कहीं ऐसा तो नहीं सरकार की नीति और योजना और इस समस्या से निपटने का तरीका गलत हो।

क्योंकि अभी तक का अनुभव तो यही बताता है कि सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाने से माओवाद में कोई कमी नहीं आई है। तो ऐसे सवाल उठाने वाले को माओवादी समर्थक या सिम्पैथाइजर का इल्जाम मिल जाता है। इस डर से कोई भी पत्रकार, बुद्धिजीवी या सामाजिक कार्यकर्ता इस तरह के सवाल उठाने में डरता है।

और सही सवाल उठाने में होने वाले खतरे का अंदेशा काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविक है। आखिरकार सही सवाल उठाने वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी, वकील साहित्यकार आज जेलों में डाले जा चुके हैं। सुधा भारद्वाज,गौतम नवलखा,आनंद तेलतुंबडे और अन्य बहुत सारे लोग सही सवाल उठाने की वजह से ही सरकार की आँखों में खटकने लगे थे और अंत में उन्हें जेल जाना पड़ा।

आखिर सरकार इस समस्या को हल क्यों नहीं करना चाहती। आखिर सरकार सही सलाह देने वालों को जेल में क्यों डाल देती है। इसी बात में इस समस्या के हल ना होने का पूरा रहस्य छिपा हुआ है।

असल में माओवादी समस्या को हल करने के लिए सरकार को जो करना पड़ेगा वह सरकार करना नहीं चाहती। क्योंकि उसे करने से कमाई बंद हो जायेगी।

आदिवासी इलाकों में खनिज हैं, कीमती जंगल है,प्रचुर मात्रा में पानी है। यह सब अरबों रूपये की कीमत का माल है। बड़े पूंजीपति इस माल को बेच कर अपनी तिजोरी भरना चाहते हैं। लेकिन इस कीमती माल के ऊपर तो आदिवासी बैठा हुआ है। आदिवासी को जंगल से भगाए बिना इस माल पर पूंजीपति का कब्जा कैसे होगा? इसलिए छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साढ़े छह सौ गाँव खाली कराये गये। इसके लिए आदिवासियों के घरों को आग लगाई गई, हत्याएं की गईं, बलात्कार किये गये, निर्दोषों को जेलों में ठूंसा गया।

यह सब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में लिखा गया है। आप चाहें तो सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर नंदिनी सुन्दर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का आदेश देख लीजिये। सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे सरकारी अभियान को संविधान विरुद्ध घोषित किया। लेकिन कोई सरकार आपको कभी नहीं बतायेगी कि उसने संविधान विरोधी काम किया है।

सलवा जुडूम से पहले बस्तर में मात्र चार सौ पूर्णकालिक माओवादी थे। लेकिन जब आदिवासियों के गावों को बार-बार जलाया गया। तब माओवादियों ने आदिवासी नौजवानों को सुरक्षा बलों से अपने गावों को बचाने का प्रशिक्षण दिया और जन मिलिशिया का गठन किया। इस तरह सलवा जुडूम से पहले जिन माओवादियों की संख्या मात्र चार सौ के लगभग थी, सरकार के सलवा जुडूम के बाद उनकी संख्या पचास हजार हो गई क्योंकि बड़ी तादाद में आदिवासी नौजवान अपने गावों को सुरक्षा बलों के हमलों से बचाने के लिए जन मिलिशिया में शमिल हो गये थे।

इस तरह एक छोटी समस्या को सरकारी गलत नीतियों और तौर तरीकों ने और ज्यादा बढ़ा दिया। आज भी अगर माओवाद की समस्या को कम करना है तो सरकार को आदिवासी का दिल जीतना होगा। तब उस आदिवासी के दिल में सरकार के प्रति विश्वास और प्रेम पैदा होगा।

लेकिन जब आदिवासी प्रदेश के मुख्य मंत्री के स्विस बैंक में खाते हों जिनमें खनन कम्पनियों से मिली रिश्वत जमा हो तब उसकी सरकार आदिवासी का दिल जीतने का काम कैसे कर सकती है। तब तो उस मुख्यमंत्री के पास एक ही रास्ता बचता है कि गरीब सिपाही से कहो कि जाओ जिस इलाके में पूंजीपति को मुनाफा कमाना है वहाँ के सारे माओवादियों को मार डालो। अब वह सिपाही माओवादियों और उनसे सहानुभूति रखने वाली आबादी के बीच घिर जाता है और मारा जाता है। सिपाही जो किसान का बेटा है वह पूंजीपति के लालच के लिए मारा जाता है।

इसे रोका जाना चाहिए। इसका एकमात्र तरीका है कि जनता को सारी सच्चाई पता होनी चाहिए कि असल में यह खूनखराबा पूंजीपतियों नेताओं और अधिकारियों के लालच की वजह से हो रहा है। जब जनता सच्चाई को समझेगी और अपने नेताओं से कहेगी कि ये माओवादियों को मिटा देने के अपने झूठे वादे मत करो बल्कि लालच से बाज आओ। तब सिपाहियों का खून बहना बंद होगा और सच्चा लोकतंत्र बहाल होगा। वरना नेता तो आपको हमेशा मारो मारो, काटो काटो, मिटा दो का नारा लगाने वाली भीड़ बना कर रखना चाहता है ताकि आप सही सवाल कभी ना उठा सकें।

(हिमांशु कुमार गांधीवादी कार्यकर्ता हैं और तकरीबन 20 साल छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच रहकर सामाजिक काम कर चुके हैं।)

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