नई दिल्ली। समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग पर चल रही सुनवाई के दौरान गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में विशेष विवाह अधिनियम में शादी से पहले 30 दिन का नोटिस दिए जाने के नियम पर सवाल उठा। जब याचिकाकर्ताओं की ओर से नोटिस के नियम को निजता और स्वायत्तता के अधिकार के खिलाफ बताते हुए रद्द करने की मांग की गई तो चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवींद्र भट, जस्टिस हेमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की संविधान पीठ ने याचिकाकर्ताओं की ओर से उठाई गई चिंताओं से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यह प्रावधान पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित है। यह तब बना था जब महिलाओं को खुद की स्वायत्तता नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक पीठ के समक्ष विवाह समानता के मुद्दे पर दायर याचिकाओं पर सुनवाई गुरुवार को भी जारी रही। मामले में कुछ याचिकाकर्ताओं ने विशेष विवाह अधिनियम 1954 के उन प्रावधानों को चुनौती दी है, जिसमें विवाह के इच्छुक पक्षों को 30 दिनों की अग्रिम सूचना देना आवश्यक होता है, जिसे रजिस्ट्रार कार्यालय में प्रकाशित किया जाता है और उन पर सार्वजनिक आपत्तियां आमंत्रित की जाती है।
समलिंगी विवाह की मान्यता के पक्षकारों ने इन प्रावधानों को निजता और निर्णयात्मक स्वायत्तता के मौलिक अधिकारों के खिलाफ माना है और उन्हें चुनौती दी है। उन्होंने तर्क दिया है कि ‘नोटिस और आपत्तियों’ की व्यवस्था के कारण उन जोड़ों को निगाह में आने का खतरा है, जो गैर-पारंपरिक विवाह में प्रवेश कर रहे हैं। उन्हें परिवारों और निगारानी समूहों की ओर से धमकियों और हिंसा का सामना करना पड़ता है।
उत्कर्ष सक्सेना और अनन्या कोटिया की ओर से दायर रिट याचिका में पेश सीनियर एडवोकेट डॉ अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम या व्यक्तिगत कानूनों के तहत शादी करने वाले जोड़ों को आम जनता के लिए अग्रिम सूचना देना अनिवार्य नहीं है। हालांकि विशेष विवाह अधिनियम, जो एक धर्मनिरपेक्ष कानून है, और अंतर-धार्मिक जोड़ों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से बना है, में ऐसे प्रावधान हैं।
उन्होंने दलील दी कि विषमलिंगी दुनिया में किस विवाहित जोड़े को सभी के सामने सबसे पहले यह घोषणा करनी होती है कि हम शादी करने का इरादा रखते हैं? मुझे क्यों करना चाहिए? यह मेरी व्यक्तिगत निर्णय लेने की स्वायत्तता है। यह मेरी निजता का विषय है कि मैं किसके साथ कब, कैसे, कितने समय के बाद वैवाहिक संबंध स्थापित करूं- चाहे वह समान लिंग का हो या विपरीत लिंग का।
इस बिंदु पर जस्टिस रवींद्र भट ने कहा कि ये प्रावधान “पितृसत्ता पर आधारित” हैं। यह ऐसे समय में बना था, जब महिलाओं की खुद की स्वायत्तता नहीं थी। सिंघवी ने कहा कि यह आपदा और हिंसा को निमंत्रण है। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि और उद्देश्य रक्षा करना था। आप वस्तुतः उन्हें समाज द्वारा आक्रमण के लिए पेश कर रहे हो, कलेक्टरों, जिला मजिस्ट्रेटों, पुलिस अधीक्षक के जरिए।
समलैंगिक जोड़े काजल और भावना की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट राजू रामचंद्रन ने भी विशेष विवाह अधिनियम के इन प्रावधानों के औचित्य पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि ये प्रावधान वास्तव में “गुप्त विवाह” को रोकने के उद्देश्य से ब्रिटिश कानून का एक अवशेष हैं और आश्चर्य है कि उन्हें सुरक्षात्मक कानून में कैसे रखा जा सकता है।
रामचंद्रन ने तर्क दिया कि नोटिस की आवश्यकता उनके मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए नोटिस देने की आवश्यकता के बराबर है। यह 30-दिवसीय नोटिस माता-पिता और अन्य व्यक्तियों को बाधाएं डालने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
चीफ जस्टिस ने कहा कि इस बात की बहुत संभावना है कि यह उन स्थितियों को असमान रूप से प्रभावित करेगा, जिनमें पति या पत्नी में से एक हाशिए के समुदाय से संबंधित है। इसका समाज के सबसे कमजोर लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। जस्टिस हिमा कोहली ने कहा, “यह विषमलैंगिक जोड़ों के लिए भी उतना ही सच होगा।”
रामचंद्रन ने जोर देकर कहा, “हां, इसे सभी के लिए खत्म कर देना चाहिए। यह एक प्रतिगामी प्रावधान है और यह अप्रिय है। 2021 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था कि विशेष विवाह अधिनियम के ये प्रावधान अनिवार्य नहीं हैं, क्योंकि अग्रिम नोटिस की अनिवार्यता निजता के अधिकार का उल्लंघन करती है।
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