सामने हरियाणा और जम्मू-कश्मीर की विधानसभाओं का चुनाव है। राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक चुनाव के माहौल और संभावित परिणाम को लेकर अपना-अपना आकलन बता रहे हैं। विधानसभाओं के चुनाव का परिणाम साबित करेगा कि 2024 में संपन्न लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत के आंकड़े से दूर रखने में कामयाब इंडिया गठबंधन अपनी राजनीतिक सफलता को नया विस्तार देने की दिशा में बढ़ पा रहा या नहीं। भले ही भारतीय जनता पार्टी बहुमत के आंकड़े को छू नहीं पाई हो लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सब से बड़े घटक दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता एन चंद्रबाबू नायडू के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे हैं।
यह जरूर है कि पिछले बार की तरह से इस बार सरकार चलाने में मनमानेपन पर रोक तो लग गई दिखती है। इस ‘रोक’ को नरेंद्र मोदी कितने दिन तक ‘सम्मान’ दे पायेंगे! इस पर कुछ भी कहना मुश्किल है। यदि हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधान सभा के चुनाव भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में आते हैं तो राजनीतिक हवा बदलने के संकेत के रूप में इसे पढ़ा जाने लगेगा। इस के बाद महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में भी सफल रहने पर नरेंद्र मोदी सरकार फिर से मनमानेपन पर उतर आये इस की पूरी आशंका है।
पराजय के बाद शस्त्र समर्पण सामान्य बात है। इतिहास असोक को इसलिए महान कहता है कि उस ने जीत के बाद शस्त्र समर्पित किया था। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत आज ऐसा ‘बहुत कुछ’ कह रहे हैं, जो नरेंद्र मोदी की शासकीय नीति के खिलाफ प्रतीत होती है। 240 में सिमटने के पहले उन बातों का थोड़ा-बहुत मतलब तो हो भी सकता था। अपनी विचारधारा की शासकीय नीति की विफलताओं के प्रभाव क्षेत्र से अपनी विचारधारा को बाहर निकाल लेने के लिए राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख का बयान ‘कवर फायर’ की तरह लग रहा है।
कार्योपरांत हवाई बयान के भ्रम में पड़कर यह सोचना कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी में या मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी में किसी तरह का कोई मनभेद या मतभेद उभर आया है, भारी राजनीतिक भूल हो सकती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि विचारधारा पर निष्ठा रखनेवाली राजनीतिक पार्टी को असली ताकत चुनावी जीत से नहीं उस की सांगठनिक जिद से मिलती है। स्वाभाविक है कि विचारधारा संपन्न राजनीतिक पार्टी अपनी संसदीय जमात और सांगठनिक जमात को एक दूसरे के क्रिया-कलाप के नकारात्मक प्रभाव से मुक्त रखने की कोशिश करती है। बल्कि यह कि संसदीय जमात को चुनावी जमात और विचारधारा के नियंत्रण में रखने की कोशिश करती है। भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के आस-पास सुख-सुविधा का लोलुप आवरण और आडंबर खड़ा कर दिया।
संसदीय जमात पर नियंत्रण तो दूर की बात राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ खुद भारतीय जनता पार्टी के आश्रित होती चली गई! नतीजा यह कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने लोकसभा के लिए जारी चुनाव के बीच खुले मन से खुदमुख्तारी का ऐलान कर दिया! खुदमुख्तारी के ऐलान से निकला सांगठनिक आत्म-छल नीचे तक पसर गया। प्रसंगवश पश्चिम बंगाल में भी संगठन के वास्तविक नियंत्रण के ढीला पड़ते ही बुद्धदेव भट्टाचार्या की तमाम सदाशयताओं के बावजूद वाम फ्रंट की सरकार के पांव उखड़ते चले गये, नतीजा पार्टी आज नये सिरे से संघर्ष कर रही है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ कहें या दक्षिण-पंथ की विचारधारा कहें, इन के माया-जाल का पसार और प्रभाव कहीं अधिक है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी के 240 पर सिमटने के उल्लास का कोई अवसर इंडिया अलायंस या नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के पास है नहीं। सामान्य नागरिक समाज और अपने-अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने की रणनीति के तहत उल्लास की गुंजाइश बनाई गई हो तो बात दीगर है। इस दृष्टि से घोषित हो चुके और घोषित होनेवाले विधानसभाओं के चुनाव के परिणाम भारत के लोकतंत्र की नई दिशा की यात्रा के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे।
नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अभी विदेश यात्रा पर हैं। वहां दिये जा रहे बयान पर यहां देश में भारतीय जनता पार्टी के लगभग सभी स्तर के नेता तीखी टिप्पणी कर रहे हैं। उन्हें ‘देश द्रोही’ तक घोषित करते हैं। असल में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचारधारा से जो सहमत नहीं हैं, वह सभी ‘देश द्रोही’ हैं।
इस अर्थ में भारतीय जनता पार्टी के नेता राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को भारत संघ का एवजी मानने लगे हैं क्या? उन्हें लग रहा है कि देश के सभी लोगों को संविधान की नहीं, कानून की नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचारधारा और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की परवाह करनी चाहिए। गजब स्थिति यह कि वे राहुल गांधी को ‘देश द्रोही’ घोषित कर रहे हैं और इधर चुनावी राज्यों में भारतीय जनता पार्टी में उथल-पुथल का बेसंभाल ‘अनुशासनहीन’ दौर चल रहा है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के सिद्धांतकारों ने अपनी विचारधारा के आईने में साहसपूर्वक सच का ‘साक्षात्कार’ करते हुए सावधान किया था कि चाल-चरित-चेहरा को बचाये रखना। गैर-स्वयं-सेवकों की तो बात ही क्या, एक बार यदि स्वयं-सेवकों को भी सत्ता का स्वाद लग गया तो वे राष्ट्र और संघ दोनों को भूल कर स्वयं की सेवा में लग जायेंगे। सत्ता के कीचड़ और पानी में खिलकर भी कीचड़ और पानी से बचना! चाल-चरित-चेहरा का पानी जिस दिन सूख जायेगा उस दिन तुलसीदास से मंथरा की सलाह पूछ लेना, ‘भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।’ यह ठीक है कि चाल-चरित-चेहरा का पानी सूख गया है, लेकिन राजनीतिक मरीचिका का भरोसा तो अभी बाकी ही है न!
सामाजिक न्याय हो या आर्थिक न्याय हो, सामाजिक समरसता या समानता का सवाल हो, संसाधनिक वितरण में संतुलन कायम किये बिना संभव नहीं है। संतुलन के लिए निश्छल जातिवार जनगणना जरूरी है। इस के साथ-साथ जातिवार जनगणना का उद्देश्य शुद्धता, शुचिता और पवित्रता के नाम पर सामाजिक भेद-भाव को धीरे-धीरे नहीं, बल्कि जल्दी-जल्दी दूर किया जाना जरूरी है; धीरे-धीरे के चक्कर में पहले ही काफी देर हो चुकी है।
अब मीडिया के एक अंश में खबर चल रही है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने देश भर में पूरे जोर-शोर से उठ रही जातिवार जनगणना की जायज मांग का समर्थन किया है। समर्थन किया है या भारतीय जनता पार्टी को चुनावी आघात से बचाने के लिए जातिवार जनगणना पर अपनी अनापत्ति जाहिर की है! इस बतकुच्चन में उलझे बिना नागरिक समाज को सकारात्मक ढंग से इस फैसले को लेना चाहिए और निश्छल जातिवार जनगणना करवाये जाने के लिए लगे रहना चाहिए।
समझ में आने लायक बात है कि सामाजिक अन्याय हो या आर्थिक विषमता या प्रतिकूल जीवन परिस्थिति हो वर्ण-व्यवस्था की कोई-न-कोई भूमिका जरूर रही है। लेकिन वर्ण व्यवस्था के सह पर विकसित जाति आधारित अन्याय से मुक्ति की कोशिश को राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचारधारा समाज का विषय मानती है, राजनीति का नहीं! कोई विचारधारा किसी भी तरकीब से करे। राजनीतिक तरकीब से करे। सामाजिक तरकीब से करे। मगर अब करे। आश्वासन की टोकरी की पेंदी गायब हो गई है। टोकरी खाली और ‘पारदर्शी’ हो गई है। कोरे आश्वासन की बात करनेवाले लोकतंत्र के आंगन में बिन-पेंदी के लोटे की तरह कभी इस दल तो कभी उस दल की ओर कब तक लुढ़कते रहेंगे! कमाल है, वोट बटोरुआ रणनीति की!
‘हिंदू एकता’ को समाज का नहीं, राजनीति का विषय माननेवाले जाति आधारित अन्याय से मुक्ति को राजनीति का नहीं, समाज का विषय बताते थकते नहीं! ‘समता’ के बिना ‘समरसता’ की बात करते हैं ‘समानता’ का रास्ता काफी लंबा बताते हैं, समरसता के आग्रह और अपील की घोषणा करते रहते हैं। संसाधनिक वितरण में संतुलन की चिंता किये बिना ‘सामाजिक समरसता’ के लिए सामाजिक संरचना को समझने की बात को बहुत ‘कोमल किंतु दृढ़ वाणी’ में तरह-तरह से पेश करते रहते हैं।
‘पवित्र ग्रंथ गीता’ के ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ के हवाले से भगवान के कहे का अर्थ निकालते हैं, ‘भगवान के द्वारा गुण और कार्य के आधार पर चार वर्णों की रचना की गई है। यहां ध्यान दिया जाना चाहिए ‘कर्म’ का अर्थ ‘कार्य’ नहीं है। ‘कर्म’ का अर्थ है, पूर्व-जन्म में किये गये ‘धर्म-संगत’ आचरण, यानी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार किया गया आचरण संचित भाग्य, अर्थात ‘संचीयमाण कर्म’। अभी इस जन्म में जो आचरण किया जाता है, वह ‘क्रियमाण कर्म’ होता है। यह ‘क्रियमाण कर्म अगले जन्म में भाग्य फल बन जायेगा।
‘पुनर्जन्म’ और ‘कर्म-फल’ सिद्धांत की फांस पर विचार किया जा सकता है। लोक-आख्यान में ‘कर्म’ का मतलब ‘भाग्य’ ही होता है। करम फूटने का अर्थ तो सभी जानते हैं। लेकिन पांडित्य का कमाल कि उसी लोक को विश्वास दिला देता है कि ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’ का अर्थ है जो जैसा काम करेगा वैसा भरेगा; हद है कि विश्वास दिलाने की कोशिश किया जाता है कि आज का ‘उत्पीड़ित’ अन्याय नहीं भोग रहा, पिछले जन्म किये का फल भोग रहा है। जो अभी कर रहा है उस का फल अगले जन्म में भोगेगा।
मजे की बात है कि आजादी के आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के सिद्धांतकार सामान्यतः एक तरफ गीता की प्रशंसा करते थे और दूसरी तरफ हक के लिए हिंसक या अहिंसक किसी तरह के संघर्ष के खिलाफ ‘सिद्धांत’ बघारते थे। क्योंकि संघर्ष से सामाजिक गठन का नियम खंडित होता है! ‘सामाजिक गठन के नियम’ का आशय इतना तो अबूझ नहीं है कि अलग से व्याख्या जरूरी हो! इतना ही नहीं आजादी के बाद भी दक्षिण-पंथ के कई सिद्धांतकारों के अनुसार लोकतंत्र ने हिंदू समाज की एकता को बर्बाद कर दिया!
ये भारतीय समाज की एकता की बात नहीं करते, सिर्फ हिंदू समाज की एकता की बात करते हैं। ‘अखंड भारत’ की बात करते हैं लेकिन, ‘अखंड भारतीय समाज’ की बात नहीं करते हैं! ‘हिंदू समाज’ में व्याप्त भेद-भाव की बात तो कभी-कभार कर भी लेते हैं, लेकिन उसे दूर करने का प्रयास सही दिशा में नहीं करते हैं। भाई-भतीजावाद के साथ-साथ सांगठनिक आधार पर नये किस्म के भेद-भाव को लागू करते हैं। इनकी ‘सेवा नामधारी’ संगठन की ‘सेवा-चेतना’ में समता का कोई पुट नहीं होता है, सामाजिक विषमता को चुनौती देनेवाली किसी प्रक्रिया को इन की उपस्थिति से आश्वासन जरूर मिलता रहता है।
समस्या की राजनीति करनेवाले कभी समाधान की तरफ समाज को नहीं जाने देते हैं। समाधान की राजनीति करनेवाले समस्याओं को समझकर उस के समाधान की तलाश करने की तरफ समाज को ले जाना चाहते हैं। ‘आपदा में अवसर’ की तलाश करनेवाले ‘सही अवसर’ न मिलने पर, ‘आपदा’ की तलाश करने लग जाते हैं। ‘आपदा’ न हो तो कोई-न-कोई आपदा खड़ी कर लेने से भी नहीं हिचकते हैं। कुछ लोगों में प्रवृत्ति होती है कि किसी मन चाहे व्यक्ति के करीबी और विश्वसनीय बनने के लिए उस के आपदा में फंसने का इंतजार करते हैं। इतना ही नहीं कभी-कभी मन-ही-मन उस के आपदा में फंसने की कामना भी करने लग जाते हैं।
राज-शक्ति, धर्म-शक्ति और न्याय-शक्ति यानी शक्ति के सभी स्वरूपों पर वर्चस्व उच्च-कुल-शील का! धरती उनकी, आसमान उन का, शिखर उन का, सागर उन का! जीवन के अनिवार्य आधार पानी पर पहरा! धर्म! धर्म में तो गुण, अधिकार, कर्तव्य, शासनादेश, युद्धादेश सब समाहित! धर्म का लक्ष्य, ध्यान और ध्येय येन-केन-प्रकारेण वर्ण-व्यवस्था की रक्षा होता है! ईश्वर के प्रतिनिधि धर्म-पारायण राजा, ईश्वर स्वरूप ब्राह्मण और धर्म-पारायण जनता सब की मोक्ष-प्राप्ति की पूर्व-शर्त धर्म की रक्षा। फिर भी बात न संभले तो बिगड़ी बनाने के लिए ईश्वर का अवतार, अर्थात ‘संभवामि युगे-युगे’!
धर्म-पारायण व्यक्ति यानी वर्ण-व्यवस्था के रक्षक के लिए सुनिश्चित न्याय का आश्वासन पुनर्जन्म के बाद यानी ‘नये वस्त्र’ की तरह से ‘नया शरीर’ धारण करने के बाद! इस तरह की बातों को फैलानेवालों से नागरिक समाज को खुद सावधान रहना होगा और दूसरों को भी सावधान करना होगा। यहां श्रुति परंपरा श्रमण परंपरा के विकास के सामाजिक-प्रभाव पर भी ध्यान दिया जा सकता है। शुद्धता शुचिता पवित्रता की प्रचलित धारणाओं पर गौर करना भी दिलचस्प हो सकता है।यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि चुनावी राजनीति में ‘धर्म’ का भरपूर इस्तेमाल हो, ‘धर्म शास्त्रों के सिद्धांतों के आधार पर वर्णाश्रयी शोषण और वंचना की ‘संस्कृति’ के विरोध का इस्तेमाल चुनावी राजनीति में बिल्कुल ही न हो!
दक्षिण-पंथ की विचारधारा की समझ है कि महात्मा गांधी और कांग्रेस की पहली बड़ी गलती प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों का समर्थन करना था। दुश्मन की ‘आपदा में अवसर’ की तलाश करते हुए दुश्मन की कमजोरी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था। ध्यान में होना चाहिए कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इस मुद्दे पर न सिर्फ गांधी जी से असहमत थे, बल्कि उन्होंने विरोध भी किया था। शुरुआती दौर में कांग्रेस के साथ-साथ ‘सोशल कांफ्रेंस’ की भूमिका को भी याद किया जाना प्रासंगिक हो सकता है।
दक्षिण-पंथ की विचारधारा ‘असहयोग’ आंदोलन को भी गलत मानती है क्योंकि ‘असहयोग’ के आग्रह और अपील से अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है। आज भी हक की किसी लड़ाई, किसी आंदोलन को दक्षिण-पंथ के लोग नागरिकों की अनुशासनहीनता ही मानते हैं! मजे की बात है कि अपनी विचारधारा के वर्चस्व के लिए लगातार उन्माद और उत्तेजना का माहौल बनाये रखने को धार्मिक अधिकार मानते हैं। दक्षिण-पंथ की विचारधारा महात्मा गांधी की विचारधारा को आजादी के बाद नागरिक जीवन के लिए विनाशकारी मानती रही है। इस विचारधारा को माननेवाले महात्मा गांधी को सभी धर्मों का सम्मान करने वाला और हजार साल के ‘इतिहास’ को भुलाकर मुसलमान को भारत राष्ट्र में समान हकदार और हिस्सेदार मानने का दोषी बताते हैं।
यह विदित ही है कि दक्षिण-पंथ की विचारधारा की ‘नजदीकी’ ब्रिटिश हुकूमत से इसलिए बनी कि इसे माननेवाले लोगों के अनुसार ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय को नहीं, ‘मुसलमान’ को पराजित किया था। हिंदुत्व की अन-अभिव्यक्त आकांक्षा थी कि ब्रिटिश हुकूमत के साथ मिलकर मुसलमान से निपटा जाये और देश की सत्ता देशी हिंदू रजवाड़ों को देर-सबेर सौंप दिया जाये। लोकतंत्र को तो वे विनाशकारी ही मानते थे। लोकतंत्र से सब से बड़ी शिकायत तो यही है कि लोकतंत्र में ‘कृपा’ का नहीं ‘अधिकार’ का प्रावधान होता है। लोकतंत्र शासकों से सवाल का अधिकार देता है।
जो लोग आपाद-मस्तक वर्ण-व्यवस्था की पवित्रता से ग्रस्त हैं, वे शासन में आने के बाद संविधान में निहित वर्ण-व्यवस्था विरोधी प्रावधानों को लागू करेंगे, यह उम्मीद ही बेकार है। उच्च-कुल-शील के लोग ‘ऐसे-वैसे लोगों’ के संपर्क में पड़ जाने पर घर जाकर स्नान नहीं करते हैं, बल्कि स्नान करने के बाद घर में प्रवेश करते हैं। याद किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हार के बाद जब मुख्यमंत्री का सरकारी आवास खाली किया था तो नये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री के उस आवास को धुलवाया था।
इस में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। स्वच्छता की दृष्टि से आवास को एक बार नहीं बार-बार धुलवाना चाहिए। लेकिन अस्वाभाविक यह कि मुख्यमंत्री आवास को स्वच्छता की दृष्टि से नहीं, पवित्रता की दृष्टि से धुलवाया गया था, गंगाजल से धुलवाया गया था। इस तरह के आचरण के दंश की टीस अखिलेश यादव को स्वाभाविक रूप से परेशान करती रहती है, जैसे विपरीत हवा चलने पर पुरानी चोट का दर्द नये सिरे से जाग जाता है। शुद्धता, शुचिता, पवित्रता और स्वच्छता में फर्क और फांक से ही वर्ण-व्यवस्था के आचरण को देखा, समझा जा सकता है।
लेकिन ‘हिंदू एकता’ की बात करनेवाली संस्था, संगठन को क्या स्वच्छता और पवित्रता की फांक में फंसी और आहत लोकतांत्रिक चेतना की पीड़ा का जरा भी एहसास नहीं होता है। वर्ण-व्यवस्था के सह पर विकसित जाति आधारित अन्याय से मुक्ति की कोशिश को राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचारधारा समाज का विषय मानता है, राजनीति का नहीं! कमाल है, ‘हिंदू एकता’ को समाज का नहीं, राजनीति का विषय मानने वाले जाति आधारित अन्याय से मुक्ति को राजनीति का नहीं, समाज का विषय बताते थकते नहीं! ‘समता’ के बिना ‘समरसता’ की बात करते हैं। ‘समानता’ का रास्ता काफी लंबा बताते हैं, संसाधनिक वितरण में संतुलन की चिंता किये बिना ‘सामाजिक समरसता’ के लिए सामाजिक संरचना को समझने की बात बहुत ‘कोमल वाणी’ पेश करते हैं।
कहना जरूरी है कि जातिवार जनगणना का समर्थन और वर्ण-व्यवस्था आधारित आचरण को हिंदू धर्म के नाम पर अपनाने का विरोध भारत में लोकतंत्र के होने की अनिवार्य शर्त है। चुनावी हार-जीत अपनी जगह लेकिन सामाजिक समता हो या समरसता सुनिश्चित करने के लिए संसाधनिक वितरण में संतुलन का सवाल भारत के लोकतंत्र की पहली राजनीतिक जरूरत है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)