उक्ति-संग्राम और मुक्ति-संग्राम के बीच प्रतिबद्धता और क्षमता का सवाल

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भारत में लोकतंत्र के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखनेवाले राजनीतिक नेताओं की जरूरत है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था कि इस समय ‘पहले भारतीय और बाद में कुछ’ की नहीं बल्कि ‘पहले भी भारतीय और बाद में भी भारतीय, सिर्फ भारतीय’ नागरिकों और नेताओं की जरूरत है। ‘पहले भारतीय और बाद में कुछ और’ में छिपी पवित्र भावना की खंडित निष्ठा हमें गहरी चुभन दे सकती है। क्या, चुभन महसूस हो रही है! तो फिर क्या किया सकता है!

भारत की प्रकृति की सुषमा की स्मृति को याद करना और शोषण के चिह्न को पहचानना बड़े भारत-बोध का हिस्सा है। सुषमा ऐसी कि विद्यापति के शब्दों में जनम-अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपित भेल! शोषण ऐसा कि जन्म-जन्मांतर खट मरे ‘ऋण’ कबहुं न चुकता होए! सुषमा और शोषण साथ-साथ! इतना बड़ा देश, इतनी विविधता, इतनी दरिद्रता, बड़े लोगों के इतने संकुचित मन, इतनी आस्था, इतना विश्वास! आस्था-दर-आस्था, विश्वास-दर-विश्वास विखंडित लोकमन! शोषित जीवन! टूटे और उलझाव सूत्रों के बीच एकता के इतने मजबूत और अटूट प्राण-प्रवाही आंतरिक शिराएं! आजादी के आंदोलन से ताप में तप कर निकले नेताओं के सामने राष्ट्र निर्माण की बहुत बड़ी चुनौती थी।

उलझाव सूत्रों और प्राण-शिराओं के बीच उन्हें और उन के बीच फर्क को पहचानने और बचाने की चुनौती! तरीका एक ही था, उन सूत्रों और शिराओं पर अंगुली रखकर उनके स्पंदन के संवाद को संविधान और कानून की भाषा में संरक्षित करने की चुनौती! उलझाव सूत्रों और प्राण-शिराओं का एक ही उपकरण था स्पंदन! उलझाव सूत्रों पर अंगुली रखने से स्थानीय हल-चल होती थी और प्राण-शिराओं को छूते ही पूरा राष्ट्र कसमसा जाता है। उलझाव सूत्रों के सुलझने का इंतजार और प्राण-शिराओं को बचाने की चुनौती!

भारत संघ की परिकल्पनाओं की राज्यवार व्यवस्था में उलझाव सूत्रों के सुलझने के इंतजार और केंद्रीय व्यवस्था में प्राण-शिराओं को बचाने के प्रयास की संवैधानिक व्यवस्था की चुनौती थी। कहना न होगा कि हमारे पुरखों ने इस चुनौती का मुकाबला किया। कहना चाहिए, ‘हिंदुस्तान-पाकिस्तान’ हो जाने के बाद भी सफलतापूर्वक मुकाबला के लिए कारगर संविधान का निर्माण किया, राष्ट्र-जीवन का आधार तैयार किया। हालांकि आजादी के आंदोलन के ताप से निकले कई नेताओं ने भारत को भर आंख देखा भी नहीं था, आज के अधिकतर नेताओं की तो बात ही क्या की जाये!

सच पूछा जाये तो आज यह किसी बड़े चमत्कार से कम नहीं लगता है। बहुत बड़े चमत्कार की तरह इसलिए लगता है कि आज हमारी व्यवस्थाएं न तो उलझाव सूत्रों के सुलझाव का इंतजार करने का धैर्य रख पा रही हैं और न प्राण-शिराओं को बचाने के दायित्व के महत्व को समझ पा रही हैं। समझ ही नहीं पा रही है कि उलझाव सूत्रों के सुलझाव के इंतजार का धैर्य खो देने से एकता की प्राण-शिराओं की रक्षा करना मुश्किल हो जायेगा!

पलटकर देखा जाये तो सांगठनिक रूप से भारतीय जनता पार्टी जिस वैचारिक संगठन की उत्तरजीवी है, उस वैचारिक संगठन का भारत की आजादी के आंदोलन से दूर-दूर तक कोई लगाव नहीं था। कई मामलों में वह ब्रिटिश हुकूमत के जारी रहने के प्रति न सिर्फ सहानुभूतिशील था बल्कि सक्रिय भी था। यह इतिहास की विडंबना ही है कि ‘भारत देश’ के ‘भारत राष्ट्र’ बनने की प्रक्रिया के जो न भागीदार थे, न जानकार वे आज बढ़-चढ़कर ‘राष्ट्र-भक्ति’ का ‘पाउच, प्रमाण और ताबीज’ भारत के लोगों को बेचने-बांटने-देने के सब से बड़े ‘व्यवसायी’ हैं! जिन्होंने भारत को अचरज उल्लास और हर्ष से भर आंख देखा भी नहीं कोई उन से लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और प्रतिस्पर्धा की उम्मीद में बिछी हुई देश की आंख पथरा चुकी है।

हमारे पुरखों ने राष्ट्रीय समृद्धि से अधिक राष्ट्र-वासियों ने समृद्धि से अधिक सुमति, सहमेल और एकता की कमाना की थी। हमारे कर्मठ पुरखों ने अपने सांस्कृतिक बोध से समझ लिया था कि ‘स्वर्ण-हिरण’ के पीछे भागने का अंजाम आखिर क्या होता है। लेकिन यहां तक आते-आते हमारी व्यवस्था के संचालक ‘राष्ट्रीय समृद्धि’ के नाम पर नितांत अपने वास्ते ‘स्वर्ण-हिरण’ हासिल करने के लिए ‘मित्र-निभाव’ में लिप्त होते चले गये और समता का अपहरण हो गया। समता के बिना न राम, न आराम! मनुष्य की सभ्यता का समृद्धि से कोई विरोध नहीं है, बल्कि सचाई यह है कि मनुष्य की सभ्यता के सारे संघर्ष समृद्धि के लिए होता है। यहां एक पेच है कि मनुष्य का संघर्ष समृद्धि के लिए तो होता ही है लेकिन सिर्फ समृद्धि के लिए नहीं होता है। बल्कि समृद्धि के साथ-साथ और समानांतर संघर्ष स्वाधीनता और शांति के लिए भी होता है।

1990 के बाद ‘समृद्धि’ का जो नागरिक सपना और राजनीतिक माया-जाल फैलाया गया उस की शर्त है, समृद्धि और स्वाधीनता में से किसी एक ही का चुनाव करना होगा। व्यवस्था आम लोगों के लिए ‘स्वाधीनता-हीन समृद्धि’ विशिष्ट लोगों के लिए ‘समृद्धि की स्वाधीनता’ को व्यवस्था का अंतर्निहित अनिवार्य मूल्य बना दिया गया। जाहिर है कि समृद्ध लोगों की स्वाधीनता और वंचित लोगों की स्वाधीनता के चरित्र की गुणवत्ता में व्यावहारिक फर्क पैदा हो गया।

ऐसी अर्थ-नीति जो अ-नियंत्रित विषमताओं को बढ़ावा देती है, रोक नहीं पाती है वह स्वाधीनता की अखंडता के खंडित होने देने की भी जवाबदेह होती है। खंडित स्वाधीनता विषमताओं को स्थाई बना देती है। आरक्षण विरोध, निर्धन विरोध का नीति-निर्धारण नई अर्थ-नीति से निकली है, रह-रहकर निकलती रहती है। भारत के संविधान में आरक्षण के बिल्कुल सुस्पष्ट और सुपरिभाषित प्रावधान हैं। अब इन प्रावधानों के प्रति भरपूर ‘मतदाता-जागरूकता’ भी हो गई है। वोट की राजनीति से चलनेवाली लोकतांत्रिक व्यवस्था इस मतदाता-जागरूकता की अवहेलना का जोखिम किसी हाल में नहीं उठा सकती है।

पिछले दिनों एक गलत धारणा फैल गई है कि बहुमत हो तो पार्टी अपने ‘हिसाब’ से सरकार चलाने के लिए ‘स्वतंत्र’ है। गलत इसलिए कि बहुमत चाहे जितना बड़ा हो, सरकार मनमानेपन से नहीं चल सकती है। सरकार के गठन के पहले संविधान की शपथ ली जाती है। सीधे बहुमत की शपथ लेने का प्रावधान नहीं है, तो इसका कुछ-न-कुछ मतलब भी जरूर है। हां, लोकतंत्र में बहुमत का महत्व होता है और वह महत्व संविधान के अंतर्गत ही होता है। लेकिन हासिल बहुमत को ‘स्थाई बहुमत’ मानकर मनमानेपन ढंग से सरकार चलाने की कोशिश ही नहीं की बल्कि विपक्ष-मुक्त करने के इरादा से चलाने की कोशिश की गई।

इस दृष्टि से देखा जाये तो घरेलू मामलों में देश के लोगों का शोषण करने, क्रोनी कैपिटलिज्म लागू करनेवाली, खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार करनेवाली, इलेक्ट्रॉल बांड बटोरनेवाली और मनमर्जी से चलनेवाली मजबूत सरकार से अच्छी, मजबूर सरकार होती है। जहां तक विदेशी शक्तियों से व्यवहार की बात है तो उन मामलों में पूरा देश एक साथ, एकजुट रहता है। माननीय कांशीराम ने इसी नजरिये से मजबूर सरकार को बेहतर बताया था।

सरकार की संकल्पना में यदि सेवा-प्रधानता है तो सरकार की मजबूती की नहीं, नागरिकों की मजबूती की ही कामना की जा सकती है, की जानी चाहिए। ध्यान देने की बात है कि माननीय कांशीराम जिस सामाजिक संवर्ग के हित में राजनीति से जुड़े थे, उन्होंने वर्चस्वशाली सामाजिक समूह की ‘मजबूती’ का बहुत खामियाजा भोगा है, आज भी भोग रहा है। साफ-साफ और बिना हकलाये कहा जा सकता है कि सिद्धांततः ‘लोकतंत्र’ अपनी जगह साबूत, लेकिन वास्तव में ग्रामीण इलाकों में वर्चस्वशालियों की ‘सामाजिक सरकार’ वैसे ही चलती है, जैसे कमोबेश शहरी इलाकों में ‘न्याय-पुरुषों’ की ‘सरकारें’ चलती हैं।

समझना जरूरी है कि बुलडोजर-न्याय की जय-जय करनेवाली राजनीति के समर्थक ‘मजबूत’ सरकार के लिए क्यों परेशान रहते हैं। व्याख्या और विश्लेषण के कई प्रस्थान-बिंदु हो सकते हैं, अर्थात व्याख्या और विश्लेषण कई तरह से संभव है। एक प्रस्थान-बिंदु यह है कि लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई ‘मजबूत’ सरकार और सामाजिक परंपराओं से प्राप्त वर्चस्वशाली ‘सामाजिक सरकार’ में जन-शोषण करने के लिए आसान सांठ-गांठ और दुष्ट मिलीभगत की संभावना बन जाती है। समझ में आने लायक बात है कि क्यों वर्चस्व पीड़ितों के सामाजिक-समूह के हित-पोषक देश के आंतरिक मामलों में राजनीतिक व्यावहारिकता की दृष्टि से ‘मजबूर सरकार’ को बेहतर मानते हैं।

यहां यह भी साफ-साफ दिख जायेगा कि क्यों वर्चस्व पीड़कों के पोषक राजनीतिक और सामाजिक-खित्ता ‘मजबूत सरकार’ की पैरवी करते हैं। मजबूत निर्वाचित सरकार को अ-निर्वाचित शक्तियों के प्रभाव और कब्जा की राज-दशा (Deep State) बनाने में अधिक सहूलियत होती है। ‘अ-निर्वाचित शक्ति’ कमजोर सरकार में शक्ति की बहु-केंद्रीयता के चलते अपना गोड़ ठीक से जमा नहीं पाती है। ‘अ-निर्वाचित शक्ति’ सत्ता प्रमुख के अलावा किसी के प्रति सम्मानजनक रुख नहीं रखती है। जवाबदेह तो खैर वह किसी के प्रति होती ही नहीं है, सत्ता प्रमुख के प्रति भी नहीं। जब तक स्वार्थ सधता रहा, तब तक ठीक नहीं तो मजमा समेटे चल दिये किसी अन्य ठौर!

सांध्य-कालीन टीवी परिचर्चा में उपस्थित और सक्रिय राजनीतिक प्रवक्ताओं और विश्लेषकों की बात अपनी जगह। असल में अधिकतर प्रवक्ताओं का राजनीतिक दलों के साथ न तो कोई विचारधात्मक लगाव होता है न उन दलों के प्रति कोई राजनीतिक निष्ठा होती है। ये प्रवक्ता लोग तो अदालतों में वकीलों की तरह चैनलों पर वचन प्रवीण पेशेवर होते हैं। जैसे कोई वकील अपने मुवक्किल की हकीकत को जानते हुए भी अदालत में मुवक्किलों के हित के खिलाफ नहीं बोल सकता है, वैसे ही वचन प्रवीण प्रवक्ता अपने राजनीतिक दल के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकता है। अन्य पेशों की तरह प्रवक्तागिरी भी एक पेशा है। प्रवक्ताओं का काम ‘उन के अनुकूल’ माहौल बनाना है, उचित-अनुचित पर विचार करना नहीं।

प्रवक्ताओं को राजनीतिक विचारक मानना भूल है। प्रवक्ता विचारक नहीं, ‘उक्ति-संग्राम’ के सिपाही होते हैं। कहना न होगा कि सिपाही और बलिदानी में फर्क होता है। ‘मुक्ति-संग्राम के बलिदानी’ और ‘उक्ति-संग्राम के सिपाही’ में फर्क को कभी नहीं भुलाया जाना चाहिए। ‘उक्ति-संग्राम’ प्रतिदान मिलने की संभावनाओं से चलता है जबकि ‘मुक्ति-संग्राम’ बलिदान करने की उत्कंठा और क्षमता से चलता है। लोकतंत्र की राजनीतिक प्रक्रिया जनता के ‘मुक्ति-संग्राम’ की प्रक्रिया होती है। भारत के लोकतंत्र के संकट का एक पहलू राजनीति की मुख्य धारा के ‘उक्ति-संग्राम’ में बनते-बदलते जाने से भी जुड़ा है।

लोकतंत्र हित-निरपेक्ष तटस्थों का कारोबार नहीं होता है। लोकतंत्र हित-सापेक्ष पक्षकारों का कर्मठ पर्व होता है। लोकतंत्र हित-सापेक्ष पक्षकारों और व्यापक जनता के हित-साधन का आधार होता है। जन-हित की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध मुक्ति-संग्रामी ही लोकतांत्रिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य को सही कर सकते हैं। भारत के लोकतंत्र की विडंबना है कि इस की राजनीतिक प्रक्रियाएं दुश्चक्र के भंवर में पड़ती चली गई है। नतीजा यह है कि जहां प्रतिबद्धता है, वहां क्षमता नहीं है; जहां क्षमता है, वहां प्रतिबद्धता नहीं है। लोकतंत्र में सभी शक्तियों का एक मात्र स्रोत जागरूक जन-शक्ति होती है।

लोकतांत्रिक राजनीति में जनता की जागरूक भागीदारी से प्रतिबद्धता और क्षमता में संतुलन आने की उम्मीद की जानी चाहिए। भरोसा कुछ किया जा सकता है तो ‘मुक्ति-संग्रामी’ पर, ‘उक्ति-संग्रामी’ से लोकतंत्र की रक्षा के उपायों पर नागरिक समाज को सोचना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति सम्मान रखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सार्थक इस्तेमाल के प्रति भी सावधान रहना होगा। जाहिर है कि इस समय भारत के लोकतंत्र को जन-हित के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखनेवाले राजनीतिक नेताओं की क्षमता बहाली पर नजर रखने की जरूरत है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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