Friday, April 19, 2024

सुप्रीम कोर्ट को नहीं लगता राफेल डील में हुई कोई गड़बड़ी

राफेल डील की जांच के लिए दाखिल रिव्यू पिटिशन को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया है। उच्चतम न्यायालय ने मोदी सरकार को क्लीनचिट देते हुए कहा कि मामले की अलग से जांच करने की कोई आवश्वयकता नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार की दलीलों को तर्कसंगत और पर्याप्त बताते हुए माना कि केस के मेरिट को देखते हुए फिर से जांच के आदेश देने की जरूरत नहीं है।

सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और अन्य की ओर से राफेल डील मामले में जांच की मांग की गई थी। केंद्र सरकार ने कहा कि राफेल देश की जरूरत है और याचिका खारिज करने की मांग की थी। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति केएम जोसफ की पीठ ने राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मामले पर 10 मई को सुनवाई पूरी की थी। पीठ ने कहा था कि इस पर फैसला बाद में सुनाया जाएगा।

चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस केएम जोसेफ की पीठ ने कहा कि अधिवक्ता प्रशांत भूषण, पूर्व केंद्रीय मंत्रियों यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी की दायर समीक्षा याचिकाओं में योग्यता का अभाव है। जस्टिस कौल ने अपने और सीजेआई गोगोई के फैसले को पढ़ते हुए कहा कि ललित कुमारी मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार शिकायत पर सामान्य रूप से एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए थी, लेकिन चूंकि अदालत ने सभी मुद्दों पर विस्तृत चर्चा की है, इसलिए एफआईआर दर्ज करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जस्टिस केएम जोसेफ ने इस तरह के मामलों पर न्यायिक समीक्षा के दायरे को बहुत ही सीमित बताते हुए एक अलग लेकिन संक्षिप्त निर्णय लिखा। इस प्रकार, समीक्षा याचिकाओं को सर्वसम्मति से खारिज कर दिया गया।

मामले की सुनवाई के दौरान एक तरफ जहां याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि राफेल मामले में उच्चतम न्यायालय का 14 दिसंबर 2018 का जजमेंट खारिज किया जाए और राफेल डील की उच्चतम न्यायालय की निगरानी में जांच कराई जाए।

प्रशांत भूषण ने इस दौरान कहा कि केंद्र सरकार ने कई फैक्ट उच्चतम न्यायालय से छुपाया। दस्तावेज दिखाता है कि पीएमओ ने पैरलल बातचीत की थी और यह गलत है। पहली नजर में मामला संज्ञेय अपराध का बनता है और ऐसे में उच्चतम न्यायालय के पुराना जजमेंट कहता है कि संज्ञेय अपराध में केस दर्ज होना चाहिए। इस मामले में भी संज्ञेय अपराध हुआ है ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में जांच का आदेश देना चाहिए।

याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया था कि जजमेंट गलत तथ्यों पर आधारित है, क्योंकि केंद्र सरकार ने सील बंद लिफाफे में गलत तथ्य कोर्ट के सामने पेश किए थे। यहां तक कि सरकार ने खुद ही कोर्ट के सामने जजमेंट के अगले दिन 15 दिसंबर 2018 को अपनी गलती सुधार कर दोबारा आवेदन दाखिल किया था।

केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि मामले में पहली नजर में कोई संज्ञेय अपराध नहीं हुआ है। साथ ही पीएमओ ने कोई पैररल निगोशियेशन नहीं किया था। मामले में याचिकाकर्ता लीक हुए दस्तावेज (उड़ाए गए) के आधार पर रिव्यू पिटिशन दाखिल कर रखी है और इसे खारिज किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार ने कहा था कि उच्चतम न्यायालय ने कभी कीमत नहीं जानना चाहा है। उच्चतम न्यायालय ने सिर्फ प्रक्रिया के बारे में जानना चाहा है। हमने कोर्ट के सामने प्रक्रिया बताई थी। सीएजी की रिपोर्ट के बारे में जो बयान केंद्र सरकार ने दिया था उसे ठीक करने के लिए अगले दिन अर्जी दाखिल कर दी थी जो पेंडिंग है। इस प्रक्रिया में अगर कोई गलती हुई तो भी इस आधार पर रिव्यू नहीं हो सकता है।

पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, पूर्व दूरसंचार मंत्री अरुण शौरी और मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने याचिका दायर कर कहा था कि इस फ़ैसले पर फिर से विचार किया जाए, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि 36 लड़ाकू विमान खरीदने के मामले में सरकार के फ़ैसले की प्रक्रिया पर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। इसके अलावा वकील विनीत धंधा और आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने भी इसी तरह की अलग-अलग याचिकाएं दायर की थीं। उच्चतम न्यायालय ने 14 दिसंबर, 2018 को उन याचिकाओं को खारिज कर दिया था, जिनमें 58 हज़ार करोड़ रुपये के रक्षा सौदे में गड़बड़ियां करने के आरोप लगाते हुए पूरे मामले की जांच करने की दरख़्वास्त की गई थी। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि कोर्ट को केन्द्र सरकार ने ‘सीलबंद लिफाफे’ में ग़लत सूचना देकर गुमराह किया है, लिहाज़ा, उस फ़ैसले की समीक्षा की जानी चाहिए।

राफेल पर उच्चतम न्यायलय के फैसले में पेज नम्बर 21 में पैराग्राफ 25 पर विवाद खड़ा हुआ था, जिसमें कहा गया था कि राफेल की कीमत की जानकारी कैग (सीएजी) के साथ साझा की गई थी, जिसने अपनी रिपोर्ट पीएसी यानी लोक लेखा समिति को सौंपी थी। पीएसी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था कि पीएसी को ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं सौंपी गई है और ना ही सीएजी को इसकी कोई जानकारी थी।

‘द हिंदू’ की रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे पहले तो सौदा फ़ाइनल करने के लिए रक्षा मंत्रालय की कमेटी को किनारे कर दिया गया और प्रधानमंत्री कार्यालय ने ख़ुद सौदा करना शुरू कर दिया। इस सौदे के लिए रक्षा मंत्रालय ने सात सदस्यों की कमेटी बनाई थी। प्रधानमंत्री कार्यालय के कुछ अधिकारियों ने सीधे सौदे की बातचीत शुरू की तो कमेटी के तीन सदस्यों एमपी सिंह, एआर सुले और राजीव वर्मा ने लिखित तौर पर आपत्ति दर्ज कराई और साफ़ तौर पर कहा कि इससे देश को नुक़सान होगा। अब जो सबूत सामने आए हैं, उससे लग रहा है कि विमान की क़ीमत तीन गुना बढ़ने का एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री कार्यालय की दखल है। प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप के बाद दसॉ कंपनी को मुख्य तौर पर ये छूट दीं।

आरोप है कि मनमोहन सिंह के समय हुए सौदे में सभी 126 विमानों के लिए समान क़ीमत रखी गई थी। क़ीमत बढ़ाने का प्रावधान नहीं था। नयी व्यवस्था में प्राइस एस्कलेशन यानी क़ीमत बढ़ाने की छूट दी गई। आरोप लगाया गया है कि भारत सरकार विमान बनाने वाली कंपनी दसॉ के खातों की जानकारी नहीं ले पाएगी। पिछली सरकार के सौदे में इसकी व्यवस्था थी। इसके ज़रिये सौदे में आर्थिक गड़बड़ी पकड़ी जा सकती थी। आरोप है कि पिछली सरकार ने सौदे के क्लॉज 22 और 23 में व्यवस्था की थी कि सौदे में कोई बिचौलिया या एजेंट नहीं होगा। मोदी सरकार ने इसे हटा दिया।

आरोप है कि राफेल बनाने वाली कंपनी दसॉ और भारत सरकार के बीच विवाद होने पर मध्यस्थ नियुक्त करके उसका हल निकालने की व्यवस्था पिछले सौदे में थी जबकि नए सौदे में इसे हटाकर फ़्रांस सरकार से एक पत्र ले लिया गया कि फ़्रांस सरकार शिकायतों पर ख़ुद कार्रवाई करेगी। आरोप है कि मनमोहन सरकार के सौदे में विमान आपूर्ति में देर होने पर जुर्माने का प्रावधान था। नये सौदे में उसे भी हटा दिया गया। आरोप है कि मनमोहन सिंह के समय हुए सौदे में भारत में ऑफ़सेट पार्टनर के तौर पर एचएएल का नाम था।

‘द हिंदू’ और ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में अब तक छपे दस्तावेज़ों के अनुसार नया सौदा प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ ने ख़ुद किया। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का नाम भी नये सौदे में जोड़ा गया है। जहां तक भारत में ऑफ़सेट पार्टनर के लिए एचएएल की जगह अनिल अंबानी की कंपनी को चुनने का सवाल है उसमें मोदी सरकार की भूमिका की चर्चा फ़्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ़्रांस्वा ओलांद भी कर चुके हैं। ओलांद ने एक बयान में कहा कि भारत सरकार ने इसके लिए एक ही कंपनी (रिलायंस) के नाम की सिफ़ारिश की थी। यानी ख़ुद मोदी सरकार ने इस सौदे से एचएएल को अलग कर दिया। इसमें एक विवाद यह भी है कि राफेल सौदे से कुछ पहले अनिल अंबानी की एक कंपनी ने उस समय फ़्रांस के राष्ट्रपति फ़्रांस्वा ओलांद की पत्नी जूली गाये की फ़िल्म निर्माण कंपनी में पैसा लगाया था।

प्रधानमंत्री कार्यालय के सीधे हस्तक्षेप के चलते राफेल की क़ीमत बढ़ी और उसका फ़ायदा सीधे तौर पर अनिल अंबानी की कंपनी को होता नज़र आ रहा है। सरकार ज़्यादातर मुद्दों पर कोई साफ़ जवाब अब तक नहीं दे पाई है। तकनीकी आधार पर उच्चतम न्यायालय से भी तथ्य छिपाए गए। मोदी सरकार का यह दावा भी खोखला साबित हो चुका है कि नये सौदे से राफेल की क़ीमत कम हुई। रक्षा मंत्रालय के दस्तावेज़ बताते हैं कि बेंच मार्क यानी अधिकतम क़ीमत 5.06 बिलियन यूरो तय किया गया था, जबकि सौदा 7.87 बिलियन यूरो में किया गया।

प्रधानमंत्री कार्यालय ने सीधे ही सौदे की बातचीत शुरू की तब रक्षा सचिव जी मोहन कुमार ने आपत्ति जताई। इसे भी प्रधानमंत्री कार्यालय ने अनदेखा कर दिया। पुराने सौदे में फ़्रांस सरकार और भारत सरकार को एक साझा एकाउंट एस्क्रो एकाउंट खोलने की बात थी, जिसके मुताबिक़ भारत सरकार को क़ीमत का भुगतान फ़्रांस के एस्क्रो एकाउंट में जमा करना था और विमान की आपूर्ति से भारत सरकार के संतुष्ट होने पर फ़्रांस सरकार दसॉ कंपनी को भुगतान देती। इसी तरह दसॉ कंपनी को आपूर्ति को लेकर संप्रभु और बैंक गारंटी देनी थी। मोदी सरकार के सौदे से इसे भी हटा दिया गया। इसके बदले फ़्रांस सरकार से एक आश्वासन पत्र ले लिया गया।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ ही कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

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