Friday, April 19, 2024

रमेश उपाध्याय: अब कोई शोक-गीत नहीं गाएगा

कोरोना जैसी नामुराद बीमारी और स्वास्थ्य सुविधाओं के लुप्त हो जाने के कारण देश की राजधानी दिल्ली में पिछले कुछ दिनों में बहुत तेजी से जिन इनसानों ने अपनी जान गंवाई है, उनमें से रमेश उपाध्याय भी एक थे। हिन्दी के प्रख्यात जनवादी लेखकों में से एक रमेश उपाध्याय बहुत ही प्यारे मित्र थे। वह सबके मित्र थे, अपने बच्चों के भी और अपने विद्यार्थियों के भी। एक ऐसे इंसान जिनकी तारीफ लोग उसके पीठ पीछे भी करते थे। जब भी मिलते मुसकुराते हुए ‘जफ़्फ़ी’ डाल के ऐसे मिलते जैसे कोई ख़ज़ाना मिल गया हो। जज़्बात संगीत पैदा करते हैं और संगीत सभी पसंद करते हैं। मुझे भी वह बहुत अज़ीज़ थे। ऐसा बंदा छोड़कर चला जाए तो शोकाकुल स्मृतियां मन के आंगन में आ बैठती हैं।

रमेश उपाध्याय कोई बहुत समृद्ध परिवार से नहीं थे। अपने शुरुआती दिनों में उन्होने बहुत मेहनत-मुशक्क्त की। पर अपनी गुरबत का रोना कभी नहीं रोया। एक छोटी सी प्रिंटिंग प्रेस में कंपोज़ीटर का काम करते रहे और साथ-साथ पढ़ाई भी जारी रखी और उच्च शिक्षा हासिल करके आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय के वोकेशनल स्टडीज़ कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए, जहां आगे तीन दशकों तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया।

अपने लेखन की वजह से रमेश उपाध्याय हमेशा चर्चा में रहे। पहली कहानी 1962 में प्रकाशित हुई थी और पहला कहानी संग्रह ‘जमी हुई झील’ 1969 में। जब कमलेश्वर ‘सारिका’ के संपादक हुआ करते थे, उनकी कहानियाँ सारिका में छपती रहती थीं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में सारिका अब तक की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पत्रिका रही है। उस जमाने में सारिका के दो लाख से भी ज्यादा पाठक थे। उन दिनों में उनकी कहानी ‘देवी सिंह कौन?’ काफी लंबे समय तक चर्चा में रही। हर नई कहानी के साथ उनके नाम के साथ कुछ और चमक जुड़ जाती थी। कहानी-संग्रह छपने लगे और फिर पुरस्कार भी मिलने लगे। पर उन्होने ‘अहं’ के नाग वाली पिटारी कभी नहीं खोली। नहीं तो दो कहानियां भी किसी टूटे-से अखबार में छप जाएँ तो कहानीकार की चाल पहलवान जैसी और बोल पैगम्बर जैसे हो जाते हैं।

वह चाय के शौकीन थे और दारू से परहेज नहीं करते थे। बढ़िया क्वालिटी का खुशबूदार तम्बाकू उनके चमड़े के बैग में हुआ करता, जिसे पाइप में भरके सुलगाते समय उनकी निगाहें सामने बैठे बंदे के चेहरे पर टिकी रहतीं। चेखव और गोर्की उन्हें बहुत पसंद थे और देर गए घर लौटना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। कभी किसी की निंदा करते उन्हें सुना नहीं था। थे तो वह नास्तिक ही लेकिन किसी दोस्त की बीवी उन्हें मंदिर-गुरुद्वारे का प्रसाद देती तो मिठाई समझकर खा लेते थे।
  
उनकी रचनाएँ हरेक अखबार-पत्रिका में छपती थीं पर किसी संपादक के पास बैठे हुए मैंने कभी नहीं देखा। एक दिन देखा वह राजेंद्र यादव के दफ्तर में कहानीकार अरुण प्रकाश के साथ बैठे हुए थे। मैंने खामखाह पंगा लिया कि कहानियाँ तो आपकी कमलेश्वर छापते हैं और बैठे आप राजेंद्र यादव के पास हैं? राजेंद्र यादव को शायद मौका मिल गया था कहने लगे, “मैं इनकी कहानियाँ नहीं छापता हूँ तभी तो मेरे पास पास बैठे हैं।” उसके बाद मैंने उन्हें कभी राजेंद्र यादव के यहां नहीं देखा। बड़े मिसकीन और खुद्दार शख़्स थे। ऐसे इंसान केले के पत्ते की तरह होते हैं, ओस भी पड़ जाए तो नहीं टिकती।

‘जमी हुई झील’ के बाद ‘शेष इतिहास’, ‘नदी के साथ’, ‘चतुर्दिक, बदलाव से पहले’, ‘पैदल अँधेरे में’, ‘राष्ट्रीय राजमार्ग’, ‘किसी देश के किसी शहर में’, ‘कहाँ हो प्यारेलाल!’, ‘अर्थतंत्र तथा अन्य कहानियाँ’, ‘डॉक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’, ‘एक घर की डायरी’, ‘साथ चलता शहर’ खासे चर्चित हुए। उनके उपन्यास चक्रबद्ध,  द्वंद्वद्वीप, स्वपनजीवी और हरे फूल की खुशबू को भी पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। उनके नाटक ‘सफाई चालू है’, ‘पेपरवेट’, ‘बच्चों की अदालत’, ‘भारत-भाग्य-विधाता’, ‘हाथी डोले गाम-गाम’, ‘गिरगिट’, ‘हरिजन-दहन’, ‘राजा की रसोई’, ‘हिंसा परमो धर्मः’ ‘ब्रह्म का स्वाँग’, ‘समर-यात्रा’, ‘मधुआ’, ‘तमाशा’ आदि भी काफी लोकप्रिय हुए। आलोचना की करीब 32 किताबों का उन्होंने सम्पादन किया।

80 के दशक की बात है। उन दिनों जिन्हें उत्तर- आधुनिकता समझ आ रही थी वो तो परेशान थे, जिनकी समझ से परे थी ज्यादा उत्साहित थे। रमेश उपाध्याय उन दिनों उत्तर-आधुनिकता की आलोचना पर काम कर रहे थे और जाक देरिदा भी दिल्ली आए हुए थे। उन्हें मिलने के लिए साहित्यकारों में अफ़रा-तफ़री मची हुई थी। मैंने रमेश उपाध्याय से पूछा आप नहीं गए देरिदा से मिलने? मेरे सवाल का जवाब देने की बजाए वे हँस दिये और एक दिलचस्प वाकया सुनाया। कहने लगे एक मुलाक़ात के दौरान किसी पत्रकार ने जाक देरिदा से पूछा कि हाइडेगर, कांट या हीगल पर कोई दस्तावेजी फिल्म बने तो उसमें आप क्या देखना चाहेंगे? थोड़ा सोच कर उन्होंने कहा, मैं उनके यौन-जीवन के प्रसंग देखना चाहूँगा क्योंकि इस पर उन्होने कभी कोई बात नहीं की। ऐसे कई रोचक किस्सों का रमेश उपाध्याय (जिन्हें पंजाबी साहित्यकार ‘उप-अध्धा जी’ ही कहते थे) के पास अथाह भंडार था।       

उनके लेखन का मूल्यांकन तो होता रहा है और होता रहेगा पर मेरे ख्याल से कथा-साहित्य के अलावा सृजनात्मक क्षेत्र में जो भारतीय साहित्य को उनका बहुमूल्य योगदान है वह है ऑस्ट्रिया के विश्वविख्यात कवि और आलोचक अर्न्स्ट फ़िशर की बेमिसाल किताब ‘द नेसेस्टी ऑफ आर्ट’ (कला की जरूरत) का अनुवाद। इस किताब को पढ़के तो यही लगता है जैसे मूलतः हिन्दी में ही लिखी गई हो। अच्छा अनुवाद किसी रचना का पुनर्सृजन ही होता है और रमेश उपाध्याय ने यह साबित किया कि वह इस काम में भी उस्ताद थे।

शम्सुल इस्लाम ठीक कहते हैं कि रमेश उपाध्याय का क़त्ल हुआ है। श्मशानों की कतारों में पड़ी लाशों के वारिस भी यही सोचते हैं। दवाइयाँ नहीं, अस्पताल नहीं, ऑक्सीज़न नहीं, श्मशान घाट नहीं हैं। देश का दम  घुट रहा है और चुनाव मेले सजाये जा रहे हैं। अब तो न्यायाधीश भी कह रहे हैं: ‘ऐसा लगता है कि केंद्र चाहता है कि लोग मरते रहें? जितनी तेजी से लोग मर रहे हैं लगता है कोई बिरला ही बच पाएगा।

जो कोई भी बच जाएगा, जवाब माँगेगा, अब शोक-गीत नहीं गाएगा?  

(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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