महंगाई पर सरकारी आंकड़े और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर

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आज तक चैनल का स्वामित्व इंडिया टुडे ग्रुप के पास है। इसका एक कार्यक्रम 14 जून को भारत एवं विश्व में महंगाई की स्थिति को लेकर था। ब्लैक एंड व्हाइट नामक इस कार्यक्रम की एंकरिंग प्रख्यात गोदी एंकर सुधीर चौधरी के कंधों पर है। अपने इस कार्यक्रम में वे खुदरा महंगाई की दर के बारे में घोषणा करते हैं कि मई माह में महंगाई की दर 4.25% दर्ज की गई है। उनके मुताबिक पिछले दो वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो महंगाई का यह स्तर अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया है। उनकी बात बिल्कुल दुरुस्त है। भारत सरकार के सांख्यकीय मंत्रालय की ओर से 12 जून, 2023 की प्रेस रिलीज के आधार पर ही सुधीर चौधरी ब्लैक एंड व्हाइट कर रहे थे। 

वे आगे बताते हैं कि इससे पहले अप्रैल 2021 में ही महंगाई की दर अपने न्यूनतम स्तर के साथ 4.23% थी। इस प्रकार भारत को आप उन चंद देशों में शुमार कर सकते हैं, जहाँ पर महंगाई की दर सबसे निचले स्तर पर बनी हुई है। उन्होंने बताया कि अप्रैल, 2022 में महंगाई 7.79% पर पहुंच गई थी। लेकिन इसके साथ ही वे दावा करते हैं कि खाद्य महंगाई की दर तो 2.91% ही रह गई है। 

अपने दर्शकों का ज्ञानवर्धन करते हुए वे आगे बताते हैं कि दुनिया के 100 से भी अधिक देशों में महंगाई की दर 10% से भी ऊपर बनी हुई है। इसके तुरंत बाद उन्हें अपने प्रिय देश पाकिस्तान की याद आ गई, और उन्होंने लपक कर पड़ोसी देश की महंगाई पर दर्शकों का ज्ञानवर्धन करना शुरू कर दिया। सुधीर चौधरी के अनुसार पाकिस्तान में यही खाद्य वस्तुओं की महंगाई की दर करीब 48% तक पहुंच गई है। श्रीलंका में 21%, बांग्लादेश में 9%, नेपाल में 6% तो अमेरिका में 7.7%, ब्रिटेन 19%, जर्मनी में 17%, फ़्रांस में 15% और सबसे अधिक वेनेजुएला (471%) के आंकड़े दिखाते हुए तो वे करीब-करीब अपने दर्शकों को डरा ही देते हैं। 

हालांकि चीन में खाद्य महंगाई दर 1% को दिखाना वे नहीं भूलते, लेकिन साथ ही यह कहकर चीन के आंकड़े को फौरन खारिज करते हुए कहते हैं कि चीन के आंकड़े पर कोई भरोसा ही नहीं करता, उनके यहाँ तो पिछली दफा महंगाई बढ़ी थी, लेकिन उनके यहां पारदर्शिता बिल्कुल नहीं है। इसीलिए उनके आंकड़ों को सारी दुनिया में सही नहीं माना जाता। इस तरह वे साबित करते हैं कि दुनिया में यदि खाद्य वस्तुओं के दाम कहीं सबसे अधिक कम हैं, तो वह देश भारत है। और भारत देश वर्तमान में किसके नेतृत्व में आगे बढ़ रहा है? 

इस पर आने से पहले वे मौजूदा विपक्ष के द्वारा महंगाई पर चीख-पुकार पर दो बातें अपने दर्शकों को बताना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। उनके अनुसार भारत में विपक्ष हर बार अपने भाषण की शुरुआत हाय-हाय महंगाई से ही करते हैं। लेकिन भारत में तो महंगाई है ही नहीं। विपक्ष लगे हाथ मीडिया तक को कोसता रहता है कि मीडिया महंगाई के बारे में बात नहीं करता है। लेकिन क्या यह सच है? 

फिर वे पाकिस्तान में भी भारतीय प्रधानमंत्री के प्रचार के असर को दिखाने के लिए वहां के नागरिकों के जवाब सुनाते हैं, जो पाकिस्तान की किस्मत बदलने के लिए मोदी जैसी शख्सियत के ख्वाहिशमंद हैं। लेकिन पाकिस्तान की गलत प्राथमिकता को साबित करने के चक्कर में वे अपने महंगाई वाले कार्यक्रम में परमाणु हथियारों की संख्या गिनाने की धुन में इतना खो जाते हैं कि कार्यक्रम उनकी पकड़ से बाहर चला जाता है, और दर्शकों को सिर्फ दो बातें याद रह जाती हैं। 1. भारत दुनिया का सबसे कम महंगाई की मार झेल रहा देश है, जहाँ वस्तुतः महंगाई है ही नहीं। 2. हमारा पड़ोसी मुल्क अपने हुक्मरानों की गलतियों की भारी कीमत चुका रहा है, और मोदी जैसे प्रधानमंत्री के ख्वाब देखता है। 

अब आते हैं वास्तविक धरातल की ओर और जानने की कोशिश करते हैं कि इन आंकड़ों से जैसी राहत रिजर्व बैंक के गवर्नर और भारत की सरकार महसूस कर रही है या देश में भाजपा की बांछें खिल उठी हैं, वैसा आम भारतीय महसूस क्यों नहीं कर पा रहा है? क्या वाकई में भारत में महंगाई में भारी कमी आ गई है? भारत में मुद्रास्फीति की पड़ताल के लिए दो सूचकांक हैं। एक है थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) और दूसरा है ग्राहक मूल्य सूचकांक (सीपीआई)। पिछले वर्ष के डब्ल्यूपीआई आंकड़ों को देखें तो आज भी घबराहट होने लगती है। मई 2022 में डब्ल्यूपीआई की दर भारत में 16.63% थी और करीब सालभर यह महंगाई दहाई की दर पर कायम थी। आज थोक महंगाई सूचकांक -।48% है, जो पिछले साढ़े सात वर्षों का रिकॉर्ड स्तर है। 

लेकिन इसमें भी कई झोल हैं। इसे हम 2019 से लेकर 2021 की भारत की जीडीपी विकास दर से समझ सकते हैं। 2019 में भारत की जीडीपी 3.7% की धीमी दर से बढ़ी थी। 2020 में कोरोना महामारी के कारण आर्थिक तालाबंदी ने देश की अर्थव्यस्था चौपट कर दी थी, जिसके चलते वृद्धि के बजाय -6.6% की नकारात्मक जीडीपी देश के सामने थी। लेकिन 2021 में जीडीपी की विकासदर 8.7% तक बढ़ी हुई देखने को मिली। लेकिन वास्तव में यह विकास दर निचले स्तर से हासिल की गई थी। इसी प्रकार थोक महंगाई में भारी गिरावट को हमें high-base को ध्यान में रखते हुए देखना होगा। 

क्याखाद्यवस्तुओंकेदामघटेहैं, जैसाकिसुधीरचौधरीदावाकररहेहैं?

यह सवाल वास्तव में परेशान करने वाला है। यदि हम बाजार में जाते हैं तो गेंहू, चावल, तेल, दूध, पनीर, मसाले और घी जैसी आवश्यक वस्तुओं के दाम तो लगातार बढ़ रहे हैं। ड्राई-फ्रूट्स भी बेहद महंगे हैं, हाँ खाद्य तेल और सरसों के तेल का दाम पिछले कुछ महीनों से लगातार कम है। लेकिन दो वर्ष पहले 90 रुपये लीटर के भाव पर मिलने वाला सरसों तेल जो पिछले वर्ष 200-220 रुपये प्रति लीटर मिल रहा था, वह अब 125-140 रुपये प्रति लीटर की रेंज में है। इसके पीछे की वजह विश्व में खाद्य तेल के दामों में भारी कमी है। पिछले सप्ताह ही सूरजमुखी की उपज पर एमएसपी पर खरीद के लिए हरियाणा में किसानों को हफ्ते भर तक सड़कों पर आंदोलन करना पड़ा। भारत सरकार लगातार तेल के आयात को बढ़ावा दे रही है। यूक्रेन से भारी तादाद में तेल की बिकवाली हो रही है। इसके अलावा किसी भी खाद्य-वस्तु में दाम नहीं घटे हैं। 

देश की 80% आबादी के लिए गेंहू, चावल, दाल, तेल, सब्जी, चीनी, चाय पत्ती, रसोई गैस, दूध, दही, सब्जी, फल और बिजली की दर में कमी हो जाये तो महंगाई घट गई, वरना विलासिता की वस्तुओं में -100% की गिरावट आ जाये, उससे क्या फर्क पड़ता है? यह सवाल सुधीर चौधरी जैसे पत्रकारों को शायद सपने में भी नहीं सूझता होगा। यदि उन्होंने गेंहू की इस सीजन की सरकारी खरीद पर ही ध्यान दिया होता, तो सरकार के पक्ष में कसीदे पढ़ने से पहले वे 100 बार अवश्य सोचते। 

इस बार हालांकि सरकार ने पिछले साल की तुलना में गेंहू का ज्यादा स्टॉक खरीदा है, लेकिन इसके लिए उसे नाकों चने चबाने पड़े हैं। अप्रैल में गेंहू की आवक ठीक थी, क्योंकि मार्च-अप्रैल में बेमौसम बारिश ने कई गेंहू उत्पादक प्रदेशों में गेंहू की फसल को नुकसान पहुंचाया था। गेंहू की गुणवत्ता प्रभावित हुई, लेकिन सरकार ने गेंहू में नमी के मानक में ढील देते हुए बड़ी मात्रा में गेंहू की खरीद की। यह गेंहू बाद में पीडीएस के जरिये 80 करोड़ राशनकार्ड धारक जनता को वितरित कर दिया जाना है। इसलिए इसमें संकोच की गुंजाइश पर ध्यान नहीं दिया गया, वैसे भी अगले वर्ष आम चुनाव होने हैं। पिछले वर्ष पीएम मोदी जी रूस-यूक्रेन युद्ध और भारत में गेंहू की बंपर फसल के पूर्वानुमान के चक्कर में अमेरिका को आश्वस्त कर चुके थे कि यदि दुनिया में कहीं भी गेंहू की जरूरत हुई तो भारत अपने अन्न-भंडार के दरवाजे दुनिया के लिए खोल देगा। 

भारत में पहले से गेंहू का भंडार था। बंपर फसल और विश्व के बाजार में यूक्रेन के गेंहू के न आने से भारत के लिए सुनहरा मौका देख मौके पर चौका मारने की जल्द बाजी में मौसम की मार ने पानी फेर दिया था। मार्च 2022 में भीषण गर्मी ने गेंहू की बालियों को पकने से पहले ही जला दिया था। नतीजा यह हुआ कि मार्च-अप्रैल में गेंहू के निर्यातक लाखों टन गेंहू बेचकर खूब मुनाफा लूटे, लेकिन बाद में भारत सरकार को गेंहू के निर्यात पर रोक लगानी पड़ी। इसके बावजूद चतुर निर्यातक गेंहू के बजाय अगले दो महीने आटा निर्यात करते रहे। दो महीने बाद सरकार की नींद खुली और उसने गेंहू सहित आटे के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसका असर यह हुआ कि 5 किलो राशन में अधिकांश राशनकार्ड धारकों को सरकार ने गेंहू के बजाय चावल वितरित किया। लेकिन जिसे गेंहू खाने की आदत हो, वह भला चावल पर कैसे निर्वाह करे। यही वजह है कि पूरे साल भर गेंहू और आटे के दाम नहीं घटे और बाजार में किल्लत बनी रही। 

इस वर्ष भी मई माह में गेंहू पर 2,125 रूपये एमएसपी के बावजूद सरकारी खरीद बमुश्किल हो पाई है, क्योंकि व्यापारी किसानों से इससे बेहतर कीमत पर गेंहू खरीद रहे थे। यही वजह है कि सरकार को 12 जून को घोषणा करनी पड़ी कि गेंहू के स्टॉकिस्ट, आटा मिलें निश्चित सीमा तक ही गेंहू का स्टॉक रख सकती हैं। यही नहीं बल्कि सरकार ने 28 जून से 15 लाख टन गेंहू बाजार में डालकर कीमतों पर अंकुश लगाने का अपना इरादा साफ़ कर दिया है। इसकी वजह यह है कि गेंहू की खरीद का सीजन होने के बावजूद अभी से गेंहू के दाम में 8% की वृद्धि हो चुकी है। यदि अभी यह हाल रहा तो अगले दो-तीन महीनों में यह वृद्धि महंगाई में आग लगा सकती है। अगले वर्ष की शुरुआत में लोकसभा के चुनाव होने हैं। 

इस संबंध में रोलर फ्लोर मिलर्स फेडरेशन के अध्यक्ष प्रमोद कुमार एस का कहना है ‘बाजार में गेहूं की उपलब्धता बहुत कम है। उत्पादन 1,010 लाख टन से 1,030 लाख टन के बीच रहने का अनुमान है।’ इस साल गेहूं के उत्पादन पर उद्योग-जगत का अनुमान अभी तक नहीं आया था। सरकार के मुताबिक गेहूं का उत्पादन बढ़कर 2023 में रिकॉर्ड 1,127.4 लाख टन हो गया है, जो इसके पहले साल में 1,077 लाख टन था। लेकिन भारत में गेहूं की सालाना खपत करीब 1,080 लाख टन अनुमानित है। किसान गेहूं की कटाई मार्च से शुरू कर देते हैं और सरकारी एजेंसियों व निजी कारोबारियों को अपनी फसल की बिक्री ज्यादातर जून तक करते हैं। कुमार के अनुसार “किसानों की आपूर्ति पहले ही घट गई है, जिससे पता चलता है कि कृषि मंत्रालय का उत्पादन का अनुमान हकीकत से कहीं ज्यादा आशावादी है। दिल्ली में गेहूं की कीमत पिछले 2 महीने में 10 प्रतिशत बढ़कर 24,900 रुपये प्रति टन पर पहुंच गई है।”

सभी जानते हैं कि चाहे 4 साल जनता कितनी भी दुखी क्यों न हो लेकिन चुनावी वर्ष में यदि उसे राहत की दो-चार बूँद मिल जाये, और ऊपर से रंगीन वादों की बरसात कर दी जाये तो आज भी भारत की दयावान जनता सारे दुखों, उलाहनों को भूलकर फिर से आपके प्रति उत्साहित हो सकती है। पिछले एक साल से पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस के दाम जो यूक्रेन-रूस संघर्ष के चलते तेल कंपनियों ने बढ़ाए थे, उसमें कोई कटौती नहीं की है। तेल कंपनियां अभी भी दावा कर रही हैं कि उनका पिछला घाटा चुकता होना बाकी है, शायद चुनावी वर्ष में उसमें भी कुछ राहत मिले। 

लेकिन वाकई में महंगाई में यदि प्रभावी लगाम लगाने की सरकार की मंशा होती तो उसे पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस में रेट कम से कम 25% से लेकर 50% कम करना चाहिए। रूस से खरीदे गये तेल का तो हिसाब ही देश के पास नहीं है। 60 डॉलर प्रति बैरल की दर पर भारतीय कंपनियों ने जिस हिसाब से तेल की खरीद की है, उसे 2022-23 के निर्यात के आंकड़ों में देखा जा सकता है। यह तेल भारत आया, लेकिन भारत के 140 करोड़ लोगों को उसका रत्तीभर फायदा नहीं मिला। यदि मिला होता तो किसान को ट्रैक्टर, ट्यूबवेल सहित उर्वरक के दामों में भारी राहत मिलती, नतीजतन सस्ता अनाज शहरी और ग्रामीण आबादी को नसीब होता। सस्ता परिवहन संचालन महंगाई में और कमी लाता। 

दूध और दुग्ध उत्पादों में महंगाई इस कदर है कि इसका असर मध्य एवं निम्न मध्य-वर्ग के खानपान पर भी पड़ा है, गरीबों के नसीब में तो यह दूभर हो चला है। कुल 260 वस्तुओं को सीपीआई की श्रेणी में रखा जाता है। सरकारी आंकड़े भले ही खुदरा महंगाई को 6% की दर से नीचे ले आने के दावे पर खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हों, लेकिन मोदी सरकार देश में आम लोगों की आंतरिक उथल-पुथल को अच्छे से जानती है। 

शायद यही वजह है कि आरबीआई आज भी कह रही है कि 2 महीने लगातार 5% से नीचे आ चुकी मुद्रास्फीति की दर के बावजूद हम इस पर निगाह बनाये हुए हैं। भले ही आरबीआई रेपो रेट में बढ़ोत्तरी नहीं कर रही है, लेकिन जून, जुलाई में खरीफ की बुआई में मानसून की कमी अब उसे भी बेचैन कर रही है। उसे भी पता है कि देश में भले ही सभी वस्तुओं का औसत निकालकर महंगाई के आंकड़े जारी करने से आम भारतीय को आभासी तौर पर कुछ समय के लिए राहत प्रदान की जा सकती है, लेकिन हकीकत तो यह है कि महंगाई डायन अगले ही मोड़ पर अपने नाखूनों को तेज करने में व्यस्त है। चुनावी वर्ष में इस महंगाई को काबू में रखना सरकार, आरबीआई की पहली प्राथमिकता है, इम्पोर्टर एवं एक्सपोर्टर मित्र कुछ दिनों तक धैर्य रख सकते हैं।

(रविंद्र सिंह पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।) 

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