Friday, March 29, 2024

सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन कृषि कानूनों पर गठित कमेटी की रिपोर्ट:खोदा पहाड़ निकली चुहिया

कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी की रिपोर्ट सिर्फ प्याले में तूफान खड़ा करना और आंदोलनकारी किसानों को बदनाम करना है। तीन नये कृषि कानूनों के विरुद्ध किसानों के आंदोलन के दौरान एक याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित पैनल ने दावा किया है कि देश के 86% किसान संगठन सरकार के कृषि कानूनों से खुश थे।

उच्चतम न्यायालय द्वारा 12 जनवरी, 2021 को तीनों कृषि कानूनों की जमीनी हकीकत जानने के लिए गठित कमेटी में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष व कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, शेतकारी संगठनों से जुड़े अनिल जयसिंह घनवट तथा कृषि अर्थशास्त्री प्रमोद कुमार जोशी शामिल किए गए थे।

इस पर भारतीय किसान यूनियन, लोकशक्ति द्वारा दायर हलफनामें में पक्षपात की संभावना जताते हुए कोर्ट से आग्रह किया था कि इस पैनल के सदस्यों को हटाया जाए। यूनियन का कहना था इन लोगों को सदस्यों के रूप में गठित करके न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन होने वाला है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने बतौर सदस्य जिन लोगों को पैनल में नियुक्त किया है उन्होंने पहले ही तीनों कृषि कानूनों को समर्थन दिया हुआ है। ऐसी स्थिति में वे किसानों की आवाज को कैसे सुनेंगे?

इस पर मुख्य न्यायधीश एसए. बोबडे ने कहा था कि हम विशेषज्ञ नहीं हैं इसलिए हमने समिति में विशेषज्ञों की नियुक्ति की है। समिति के किसी सदस्य ने कृषि कानून पर अपने विचार व्यक्त किये हैं इसलिए आप उन पर संदेह कर रहे हैं। वे कृषि क्षेत्र में प्रतिभाशाली दिमाग वाले लोग हैं। आप उनके नाम पर लांछन कैसे लगा सकते हैं।

यह कहते हुए मुख्य न्यायाधीश महोदय यह भूल गए कि जब उसके पैनल के मन-मस्तिष्क पर नये कृषि कानून की उपादेयता पहले ही स्थिर हो गई थी और प्रतिपक्षी किसानों को उन्हें लेकर संदेह था लेकिन उस पर भी उन्हें पैनल में बनाये रखा गया था तो फिर उसके द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट भी पूर्वाग्रह प्रेरित होगी ही।

बतौर न्यायविद बोबडे साहब यह भलीभांति जानते हैं कि किसी भी न्यायाधीश को अपनी निजी राय के बजाय तथ्यों, साक्ष्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए निर्णय देना होता है, तभी वह सर्वमान्य होता है।शायद इसी से 4 सदस्यीय उक्त समिति के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान ने किसानों के हितों का हवाला देते हुए खुद को इस पैनल से अलग कर लिया था।

जब प्रधानमंत्री ने गत वर्ष 19 नवंबर को इन विवादास्‍पद कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया तो किसानों ने इसका स्‍वागत करते हुए आंदोलन वापस ले लिया। इस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्‍त पैनल के एक सदस्‍य अनिल जयसिंह घनवट ने सरकार के उक्त फैसले को दुर्भाग्‍यपूर्ण बताया था।

समाचार एजेंसी पीटीआई( PTI) से उन्होंने नाराजगी भरे लहजे में कहा था, “सुप्रीम कोर्ट में हमारी सिफारिशों को पेश करने के बावजूद, ऐसा लगता है कि इस सरकार ने इसे पढ़ा भी नहीं। पार्टी (भाजपा) के राजनीतिक हितों के लिए किसानों के हितों की बलि दी गई है। कृषि कानूनों को निरस्त करने के निर्णय ने अब कृषि और इसके विपणन क्षेत्र में सभी प्रकार के सुधारों के दरवाजे बंद कर दिये हैं।”

बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक कमेटी ने 19 मार्च, 2021 को अपनी रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपी दी थी। रिपोर्ट में कृषि कानून से जुड़े कई सुझाव भी कमेटी की ओर से दिए गए हैं।

समिति ने जारी की रिपोर्ट—

उक्त समिति के सदस्यों में से एक अनिल घनवट ने राष्ट्रीय राजधानी में प्रेस कॉन्फ्रेंस में रिपोर्ट के निष्कर्ष जारी करते हुए कहा, ‘‘हमने 19 मार्च, 2021 को सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपी। हमने शीर्ष अदालत को तीन बार पत्र लिखकर रिपोर्ट जारी करने का अनुरोध किया लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला।” उन्होंने आगे कहा, ‘‘मैं आज यह रिपोर्ट जारी कर रहा हूं। तीनों कानूनों को निरस्त कर दिया गया है। इसलिए अब इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।”

घनवट ने कहा कि समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ‘इन कानूनों को निरस्त करना या लंबे समय तक निलंबन उन खामोश बहुमत के खिलाफ अनुचित होगा जो कृषि कानूनों का समर्थन करते हैं।’

उन्होंने कहा कि समिति के समक्ष 73 किसान संगठनों ने अपनी बात रखी जिनमें से 3.3 करोड़ किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले 61 संगठनों ने कृषि कानूनों का समर्थन किया। घनवट ने कहा कि संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के बैनर तले आंदोलन करने वाले 40 संगठनों ने बार-बार अनुरोध करने के बावजूद अपनी राय प्रस्तुत नहीं की।ऐसा कहते हुए अनिल जयसिंह घनवट यह याद रखना नहीं चाहते कि जब आंदोलनरत किसानों को समिति के सदस्य घनवट के विचार पहले से ही मालूम थे तो फिर वे इसके सामने अपने विचार व्यक्त क्यों करते।

पैनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि 86% किसान संगठन सरकार के कृषि कानून से खुश थे। ये किसान संगठन करीब 3 करोड़ किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। 2015-16 कृषि जनगणना के मुताबिक देश में कुल 14.5 करोड़ किसान हैं।

यहां पर यह सवाल उठता है कि क्या समिति की कार्रवाई पारदर्शी थी? उसने कथित किसान संगठनों से बात करने के लिए कौन-सा तरीका अपनाया? उन किसान संगठनों का सत्यापन कैसे किया गया? कहीं वे भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर किसानों के साथ वार्ता के नाम पर इकट्ठा किये गये फर्जी लोगों जैसे तो नहीं थे?

इसके बावजूद इन कानूनों के विरोध में कुछ किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 19 नवंबर को इन कानूनों को रद्द करने का ऐलान किया था।

कमेटी की रिपोर्ट में और क्या-क्या है?इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है—

★फसल खरीद तथा अन्य विवाद सुलझाने के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था की जरूरत है। इसके लिए किसान अदालत जैसा निकाय बनाया जा सकता है।

★कृषि के बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए एक निकाय बनाने की जरूरत है।

★किसान और कंपनी के बीच एग्रीमेंट बने और उसमें गवाह किसान की ओर से हो।

★बाजार में वस्तुओं की कीमत कॉन्ट्रैक्ट प्राइस से अधिक हो जाए, तो इसकी समीक्षा का प्रावधान हो।

★सरकार की ओर से तय कीमत का प्रचार-प्रसार अधिक किया जाए, जिससे किसान नई कीमत से अपडेट रहें।

एमएसपी (MSP) पर किसानों की मांग—

★A2, A2+FL और C2 फॉर्मूले से MSP की गणना होती है

★किसान चाहते हैं MSP C2+FL फॉर्मूले पर दी जाए

★MSP से कम कीमत पर फसल की खरीदी अपराध घोषित हो

सरकार के साथ सहमति इन मुद्दों पर बनी थी—

प्रधानमंत्री के कृषि कानून रद्द करने की घोषणा के बाद दिसंबर 2021 में किसान संगठनों और सरकार के बीच अंतिम दौर की बातचीत में कई मुद्दों पर सहमति बनी थी। इनमें एमएसपी( MSP) तय करने पर कमेटी बनाने, मृत किसानों को मुआवजा देने और किसानों पर आंदोलन के दौरान लगे मुकदमे हटाने पर सहमति बनी थी।

इससे पहले 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा कि सरकार कृषि क्षेत्र के सुधारों के लाभों के बारे में विरोध करने वाले किसानों को नहीं समझा सकी।

निरस्त किए गए तीन कृषि कानून— कृषक उपज व्यापार व वाणिज्य (संवर्द्धन और सरलीकरण) कानून, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन व कृषि सेवा पर करार कानून और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून थे। तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करना और एमएसपी लागू करना दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन करने वाले 40 किसान संगठनों की प्रमुख मांगें थीं।

यहां पर यह सोचने वाली बात है कि जिस समिति में ऐसी धारणा पहले से ही बनाकर बैठे हुए अनिल घनवट जैसे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त व्यक्ति मौजूद थे, वे देश की खेती-किसानी की कितनी समझ रखते होंगे और उनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पूर्वाग्रहों से मुक्त कैसे हो सकती है। यह और भी आश्चर्यजनक यह है कि सुप्रीम कोर्ट इन्हें ‘कृषि क्षेत्र में प्रतिभाशाली दिमाग वाले लोग’ बता रहा था। ऐसा कहते हुए वह यह भूल गया था कि प्रतिभा और उसका अहं दो भिन्न-भिन्न मानसिक अवस्थाएं होती हैं और यह आवश्यक नहीं कि एक प्रतिभाशाली व्यक्ति न्यायकारी भी हो। जैसा कि इस समिति ने अपनी ‘प्रतिभा’ का नमूना अपनी इस रिपोर्ट में पेश किया है।

अब चूंकि समिति ने स्वयं स्वीकार किया है कि ‘तीनों कानूनों को निरस्त कर देने के बाद अब इस रिपोर्ट की कोई प्रासंगिकता नहीं है’ तो फिर इसे जारी करने का मतलब सिर्फ प्याले में तूफान खड़ा करना और आंदोलनकारी किसानों को बदनाम करने के अलावा और कुछ नहीं है। यही नहीं सरकार द्वारा उन कानूनों को फिर से लागू करने की जमीन तैयार करना है।

(श्याम सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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