भारत की नई यात्रा के पथ में प्रतिरोध और परिवेश

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सामने बिहार की 1, पश्चिम बंगाल की 4, तमिलनाडु की 1, मध्य प्रदेश की 1, उत्तराखंड की 2, पंजाब की 1, हिमाचल की 3 सीटों पर हो रहे उप-चुनाव के परिणाम से राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक अपना तरह-तरह का निष्कर्ष निकालेंगे। विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच इस उप-चुनाव के परिणाम के बाद हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में होनेवाले विधानसभा के चुनाव परिणाम आने तक तरह-तरह की कयासबाजी का दौर चलता रहेगा। इस तरह से राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक चुनाव विश्लेषण में व्यस्त रहेंगे।

निश्चित ही लोकतंत्र में चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं लेकिन राजनीतिक विश्लेषण का चुनाव से सीमित हो जाना स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण नहीं हो सकता है। गनीमत है कि चुनावी विश्लेषण का मुख्य धारा की मीडिया की सांध्यकालीन परिचर्चा में ही अधिक होती है जिसे रात-दिन चैनल रपेटते रहते हैं। कहना न होगा कि इधर समाचार, खासकर हिंदी समाचार के पूरे परिदृश्य की गुणवत्ता में चिंताजनक गिरावट आई है।

मीडिया का एक प्रमुख काम जन-शिक्षण भी होता है। सूचना-विस्फोट के इस युग में समाचार का बुलबुला बनकर रह जाना सार्वजनिक जमीन, जिसे पब्लिक-स्फीयर कहा जाता है, नकारा कौतूहल, कोलाहल और कलह से बर जाता है। ‘सब कुछ’ हरा-भरा और ‘शस्य-श्यामल’ ही दिखता था लेकिन जजात और जंजाल का फर्क कर पाना बहुत मुश्किल है, यानी ‘हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ’।

भारत की नई यात्रा का पथ और पंथ तरह-तरह की कठिनाइयों से भरा है। ‘प्रकृति पर गौर करने से यह समझते देर नहीं लगती है कि अकेला सूर्य एक साथ पूरी धरती को आलोकित नहीं कर सकता। चांद-सितारे भी अपनी जगह। इन के बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता है लेकिन सिर्फ इन से ही मनुष्य का काम नहीं चलता है।

मनुष्य ने सूरज-चांद के रहते हुए भी अपने लिए रोशनी का अन्य इंतजाम जरूर किया। कहने का आशय यह है कि ‘एक अकेले के भारी पड़ने’ की तमन्ना में ही भयानक खोट होती है। सभ्यता विकास में किसी ‘एक अकेले’ का कोई किस्सा नहीं है। लोकतंत्र में तो खैर पूरा इंतजाम ही ‘एक अकेले के भारी पड़ने’ की तमन्ना को जीवन-व्यवहार से दूर करने का होता है। चाहे यह तमन्ना सत्ता पक्ष में हो या सत्ता प्रतिपक्ष में हो।

भारत के आम लोगों को ठीक-ठीक पता है, अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ता है। अकेला चना भंडा भी नहीं फोड़ सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो ‘एक अकेले के भारी पड़ने’ की तमन्ना से शायद अब परहेज ही करें, वैसे उन के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल ही होता है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी भी अब तक तो ‘एक अकेले के भारी पड़ने’ की प्रवृत्ति से बचते हुए ही दिख रहे हैं। लेकिन नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के समक्ष दूसरी तरह-तरह की परेशानियों का पुंज बनाये जाने की कोशिशें हो रही हैं। परेशानियों का यह पुंज राहुल गांधी को फिर से ‘पप्पू’ बनाने का इरादा रखता है।

क्या है यह परेशानियों का पुंज! विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के अन्य सहयोगियों को प्रत्यक्ष रूप से साथ लिये बिना ‘एक अकेले सभी मुद्दों पर मारा-मारी’ करते देखे जा रहे हैं, उसे सत्ता पक्ष के विश्लेषक ‘अन्य दिशा’ पकड़ाने की दबी जुबान कोशिश करते देखे जा सकते हैं। इंडिया अलायंस के अन्य सहयोगियों की तो बात ही क्या खुद कांग्रेस के लोगों को भी राहुल गांधी के मुद्दों पर मारा-मारी के साथ साधारणतः कम ही देखा जा रहा है। ऐसा है तो, ऐसा होने के कारण क्या हैं! एक बड़ा कारण तो यह है कि इंडिया अलायंस के घटक दलों का राजनीतिक सरोकार लगभग राज्यों की सीमाओं में सीमित है।

भारत के लोकतंत्र का एक संकट यह भी है कि इधर लोकतंत्र के हितधारकों को अपने राज्य और अपने आस-पास के हितों की चिंता ही अधिक है। क्षमा करें औपचारिक अवसरों पर भी जिम्मेदार लोग गैर-भाजपा शासित राज्यों को ‘उन के राज्य’ की तरह कहने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय है, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की युग्म दृष्टि का राजनीतिक रवैया खतरनाक ढंग से ‘इलाकाई’ है! अ-कारण नहीं है कि इन के शासन-काल में जहां भी ‘गुड़’ का जुगाड़ होता है इन के ‘राज्य’ के लोगों को चींटी की तरह-तरह से वहां जुट जाने का जैसे प्राधिकार ही मिल जाता है। ध्यान में सिर्फ बड़े-बड़े ‘नाम’ ही आते हैं! भारत के विभिन्न इलाकों में छोटा-मोटा कारोबार करनेवाले, बड़े और मझोले सरकारी ठेका से जुड़े लोगों से पूछने पर पता चलने में देर नहीं लगेगी कि ‘राष्ट्रीय’ का झांसा देनेवाले इन ‘महा-पुरुषों’ के ‘इलाकाई आचरण’ ने स्थानीय आर्थिक अवसर को किस तरह अपने ‘इलाकाई स्वार्थ’ से आच्छादित कर रखा है।

दक्षिण इस मामले में अधिक सचेत है। उत्तर को बात समझने में अधिक समय लगा। पश्चिम में असुविधा होने के कारण वहां की पूरी राजनीति को ही तहस-नहस करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी गई। भारतीय जनता पार्टी के इस बार के शासन-काल में बार-बार भारत के संघात्मक ढांचा पर आघात की बात कहने की कोशिश की गई, लेकिन ढीठ मीडिया इन आवाजों की तरफ से कान में रूई-तेल डाले सत्ता की राजनीति की सुविधा के पक्ष में किस्सा गढ़ने में लगा रहा। संघात्मक ढांचा पर आघात हुआ तो किस के पक्ष में हुआ?

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ जो अपने नाम के साथ ‘राष्ट्रीय’ लगाता है, वह सोचे कि किस प्रकार उस के ‘श्रेष्ठ प्रचारक’ के शासन-काल में ‘राष्ट्रीय’ का व्यावहारिक अर्थ कैसे ‘एक राज्य’ के अर्थ में सिमट गया! इस आधार पर जब नरेंद्र मोदी के शासन-काल को देखा जायेगा तब एक भिन्न तरह का राजनीतिक यथार्थ सामने आ सकता है। आज एन चंद्रबाबू नायडू जब अपने ‘इलाकाई स्वार्थ’ को पूरा करने के लिए सरकार को मजबूर करने पर आमादा हैं तो इस सरकार के पास देश के अन्य इलाकों के विकास के दायित्व की दुहाई देने का कोई ठोस नैतिक आधार बचा ही नहीं है, मुसीबत यह कि ‘अ-नैतिक होने की शक्ति’ भी नहीं बची है।

कुल मिलाकर यह कि भारत के लोकतंत्र में इस समय राष्ट्र के प्रति वास्तविक सम्मान और समर्पण रखनेवाला दल और दृष्टि दोनों ही कमजोर पड़ती गई है। राहुल गांधी के मार्फत भारत का लोकतंत्र अपने राष्ट्रीय नेतृत्व और राष्ट्रीय दृष्टि की कमजोरी दूर करने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में राहुल गांधी के सामने क्या राजनीतिक विकल्प बचता है! इसलिए विभिन्न राज्यों से संबंधित मुद्दों पर ‘मारा-मारी’ में राहुल गांधी इंडिया अलायंस के घटक दल के नेताओं की समझ में यह बात है। जिन राज्यों में राहुल गांधी अपनी सक्रियता दिखाते हैं उन राज्यों के इंडिया अलायंस के घटक दलों के नेताओं को यह विश्वास होना चाहिए कि राहुल गांधी की राजनीतिक गतिविधि से उन के दलीय हित को क्षति नहीं पहुंचेगी। इतना ही नहीं, बल्कि राहुल गांधी की सक्रियता से उन के दलीय हित की रक्षा ही हो सकेगी। आज के समय में भारत के नेतृत्व में वास्तविक राष्ट्रीय दृष्टि की कमजोरी का राजनीतिक काम आसान नहीं है।

राजनीति और खासकर सत्ता की राजनीति की मूल शक्ति का स्रोत नैतिकता में होता है। नैतिकता अपने और अपनों के हितों और स्वार्थों खिलाफ जाने से भी न हिचकने से पैदा होती है। लेकिन सत्ता की राजनीति में लगे लोगों में सामान्यतः ऐसी नैतिकता का अभाव ही रहता है। राहुल गांधी भारत की राजनीति में इधर नैतिक बल के साथ उभरे हैं। राहुल गांधी से उम्मीद की जा सकती है कि भारत की राजनीति और लोकतंत्र को नैतिक विचलन के किसी भी खतरे से निपटने में कामयाब हो सकते हैं। नैतिक विचलन का खतरा उन के अपने दल कांग्रेस के अंदर से भी कम नहीं होगा। कहना न होगा कि नैतिकता में शक्ति होती है लेकिन शक्ति में कोई नैतिकता नहीं होती है। राजनीति में शक्ति का आधार संगठन रचता है संगठन को रचने में शक्ति की अपनी भूमिका होती है। तो फिर राजनीति, संगठन, सत्ता का इस्तेमाल करते हुए नैतिकता को बचाना बहुत मुश्किल काम है।

पूर्ण न्याय-निष्ठ व्यवस्था और निष्कलुष नैतिकता की बात न भी की जाये तो भी बुनियादी न्याय और नैतिकता के बिना किसी भी रिश्ता में जान नहीं आ सकती है, विश्वास नहीं जम सकता है। विश्वास के बिना कोई भी व्यवस्था और रिश्ता कायम नहीं रह सकता है। भारत के लोकतंत्र के सामने सवाल यह भी है कि पूरी दुनिया में जिस तरह से राजनीतिक हवा-पानी में बदलाव आ रहा है, क्या भारत उस से अछूता रहेगा! विश्वास और अंध-विश्वास का मामला तो भारत में सदियों से शोषण की राजनीतिक तरकीब गढ़ने से जुड़ा रहा है।

भारत की राजनीति के ‘प्रभावी लोगों’ के पास किसी भी मामला में अपना अजब-गजब का तर्क हुआ करता है। इस तरह की आवाज भी हवा में तैर रही है कि हाथरस कांड के तथाकथित ‘बाबा’ के कारण बड़ी संख्या में लोगों का धर्मांतरण होने से रुका। अब अगर इस कारण से धर्मांतरण रुका हो तो वह कितनी लज्जा की बात है!

जिन्हें धर्मांतरण पर इतनी चिंता है उन्हें जरा देशांतरण के बारे में भ्रष्टाचार सोचना चाहिए। विदेश में बसे भारत मूल के लोगों को भारत-वंशी कहा जाता है। भारत में तो शायद ही कोई भारत-वंशी हो, क्या पता हो भी! पहला अवसर मिलते ही भारत के अमीर लोगों के मन में राष्ट्र-प्रथम का जयघोष करते हुए भारत-वंशी बनने का धुन सवार हो जाता है। भारत गरीब लोगों का देश बना रह जाता है। इतना तक तो फिर भी गनीमत है, भारत के कुछ नेता टाइप लोगों में विदेश पहुंचकर इन भारतवंशियों के मुंह से जयगान सुनने के पुण्य बटोरने की पवित्र आकांक्षा भी आसमान छूती रहती है। कई तो पूंजी-पगहा समेत देशांतरण कर जाते हैं। इस तरह के देशांतरण पर किसी भी राष्ट्र-भक्त को चिंता होनी चाहिए। शायद होती भी होगी लेकिन राष्ट्र-प्रथम के घोष के साथ अपनी चिंता पर काबू पा लेते हैं!

राष्ट्र-प्रथम बहुत कारगर मंत्र है। अब राहुल गांधी पर ‘राष्ट्र-प्रथम’ का प्रयोग करने के फिराक में हैं कि किसी तरह से राहुल गांधी के सिर पर सवार ‘गरीब-प्रथम’ का भूत उतार फेंका जाये। पहले कहा जाता था, शक का इलाज हकीम लुकमान के पास नहीं होता है। ‘अपने मुंह, मियां मिट्ठू’ बनने के रोग का भी कोई इलाज हकीम लुकमान के पास नहीं होगा! जानकार बता सकते हैं कि क्या हकीम लुकमान लोगों को इलाज करने के लिए चुनौती की शैली में आश्वासन दिया करते थे! ज्ञान-चक्षु विदेश में ही खुलता है। वे बताते हैं कि किसी विवाद का हल ‘गोली-बंदूक’ से नहीं निकल सकता है, लेकिन देश में अ-विवादित प्रसंगों का भी हल ‘गोली-बंदूक’ से ही निकालने पर आमादा रहते हैं।

राहुल गांधी को मुश्किल कांग्रेस के भीतर से भी आ सकती है। कांग्रेस के लोगों में बलिदान की बात तो क्या की जाये, राजनीतिक स्वार्थ के त्याग का मनोभाव कितना बचा हो सकता है, यह कहना भी मुश्किल ही है। इतिहास खुद को दुहराता है भी तो इस दोहराव को पहचानने में कभी-कभी बहुत वक्त लगता है। क्योंकि इतिहास कभी भी खुद को हूबहू नहीं दुहराता है। कहते हैं हिटलर अपने पुराने हुलिया में फिर कभी प्रकट नहीं होगा। जी महात्मा गांधी भी अपने पुराने हुलिया में नहीं दिखेंगे। इतिहास जानता है कि हिटलर ने अपनी सनक में अपने दल को किस तरह समेट लिया था। इतिहास यह भी जानता है कि भारत के आजादी के आंदोलन के सब से प्रभावी नेता ने देश की आजादी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया था। यह अलग बात है कि कांग्रेस  कुछ देर के लिए भी खुद को गांधी से अलग नहीं किया।  

भारत की नई यात्रा का पथ, प्रतिरोध और परिवेश कई समस्याओं से घिरा हुआ है। कुछ समस्याएं तो ऐसी हैं जिस का हल सूचना और समाचार परिवेश के सही होने पर वे समस्या बने ही नहीं। राजनीतिक अर्द्ध-सत्य को मीडिया जानबूझकर बिना किसी हिचक के रात-दिन उछालने में लगा रहता है। ताजा उदाहरण संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के भाषण में भाजपा के हिंदुत्व में हिंसा और नफरत के उल्लेख को पूरे हिंदू समाज से जोड़कर प्रचारित होने का ‘अवसर’ मीडिया में बना हुआ है।

राहुल गांधी ने सभी धर्मों में खासकर हिंदू धर्म में अभय मुद्रा के होने की सराहना और भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के हिंसा और नफरत में ‘लिप्त’ होने का विरोध कर रहे थे। राहुल गांधी न यह भी कहा था कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी समस्त हिंदू जाति का प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह गलत है? एक शंकराचार्य ने तो यह कहा है कि राहुल गांधी ने कुछ भी गलत नहीं कहा है। शंकराचार्य की बात को एक बार दिखलाकर मीडिया ने अपने कर्तव्य की इति कर ली यहां तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन ना-जायज तरीके से राहुल गांधी पर लगाये जा रहे समस्त हिंदू को हिंसक कहने के आरोप को मीडिया लगातार प्रचार में बने रहने दे रहा है।

कहने का आशय यह है कि भारत की नई यात्रा का पथ प्रतिरोध और परिवेश की कई समस्याओं से घिरा हुआ है। यकीन होना चाहिए कि प्रतिरोध और परिवेश की समस्याओं के बावजूद भारत की नई यात्रा कामयाब होगी।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)  

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