Tuesday, April 16, 2024

बुद्धिजीवियों ने जताई सरकार की प्रस्तावित नई शिक्षा नीति से जुड़ी कई आशंकाएं

नई दिल्ली। ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवियों, नागरिक समाज के प्रतिनिधियों और शिक्षक संघों के नेताओं ने 30 जुलाई को नई दिल्ली स्थित प्रेस क्लब में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2019 के मसौदे पर एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया और इस मौके पर इन लोगों ने एनईपी से जुड़ी अपनी चिंताओं और विचारों को साझा किया।

वक्ताओं ने नयी शिक्षा नीति  2019 के मसौदे के सकारात्मक प्रावधानों का स्वागत किया और 3 से 18 साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए (शिक्षा का अधिकार ( आरटीई अधिनियम के विस्तार की सराहना की। वर्तमान में, यह अधिनियम  6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को शामिल करता है। हालांकि वे इस मसौदे में शिक्षा अधिकार कानून के मानदंडों और मानकों को कुछ कमजोर या नजरंदाज करने के संकेतों से आशंकित थे, जो अंततः शिक्षा प्रणाली में पहले से ही व्याप्त असमानता को और बढ़ावा देगा।

आरटीई फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीश राय ने अपने वक्तव्य में10 वर्ष का लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी आरटीई अधिनियम, 2009 के खराब क्रियान्वयन और इसे सही तरीके से लागू नहीं करने पर प्रकाश डाला। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शिक्षा में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाया जाना चाहिए और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कम से कम 6% शिक्षा के लिए आवंटित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2019 का मसौदा कई बार भ्रमित संकेत देता है, जिससे भारत में शिक्षा के विकास में बाधा आ सकती है।

 राय ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे का जिक्र करते हुए कहा, “हम आरटीई अधिनियम में 3-18 वर्ष के बच्चों को शामिल करने की सिफारिश का स्वागत करते हैं क्योंकि यह हमारी लंबे समय से चली आ रही मांग है।  लेकिन सरकार से हमारा यह सवाल है कि देश में शिक्षा के सार्वभौमीकरण को सुनिश्चित करने के लिए स्कूली शिक्षा के लिए वित्तीय आवंटन कितना होगा?”

 उन्होंने शिक्षा के बढ़ते निजीकरण पर भी सवाल उठाए और इस बात पर जोर दिया कि सीएसआर फंड और तथाकथित परोपकारी संस्थानों पर निर्भर रहने के बजाय शिक्षा पर पर्याप्त सार्वजनिक खर्च होना चाहिए। उन्होंने आगे कहा, “देश की विविधता की अनदेखी करके शिक्षा को केंद्रीकृत करने के किसी भी प्रयास का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए।“

 सम्मेलन को संबोधित करते हुए, पूर्व विदेश सचिव और सामाजिक विकास परिषद (सीएसडी) के अध्यक्ष प्रो मुचकुंद दुबे ने कहा, “आरटीई अधिनियम, 2009 भारत में शिक्षा नीति के विकास का उच्चतम स्तर का प्रतिमान है। प्राथमिक शिक्षा अब एक मौलिक अधिकार है और भारतीय संसद द्वारा इसे प्रभावी करने के लिए एक कानून बनाया गया है। आरटीई अधिनियम एक कानूनी अधिकार प्रदान करता है, लेकिन प्रस्तावित नीति दस्तावेज ऐसा कोई भी अधिकार प्रदान नहीं करता। और इस लिहाज से, यह आरटीई अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकारों की अवहेलना कतई नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि शिक्षा अधिकार कानून के मानकों को समयबद्ध सीमा में एक साथ सभी स्कूलों में लागू करने और उसके लिए पर्याप्त बजटीय आवंटन की व्यस्था किये बगैर शिक्षा में सुधार का सपना हमेशा अधूरा रहेगा. लेकिन ऐसी कई जरूरी सवालों पर नीति मसौदा मौन है.“

 उन्होंने नयी नीति में सुझाए गए स्कूल परिसरों के सुझाव पर सवाल उठाए और आरआईएपी (रेमेडिअल इंस्ट्रक्शनल ऐडस प्रोग्राम) एवं एनटीपी (नेशनल ट्युटर्स प्रोग्राम) जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से स्वयंसेवकों पर निर्भरता की निंदा की। उन्होंने कहा कि इस तरह के कदम से शिक्षा का अनौपचारिकीकरण होगा। उन्होंने कहा, “इसके बजाय, आरटीई अधिनियम, 2009 में निहित प्रशिक्षित और योग्य शिक्षकों पर निर्भरता के प्रावधान को बढ़ावा देने की बात  होनी चाहिए।“

 शत्रुघ्न प्रसाद सिंह, पूर्व सांसद एवं महासचिव, बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ एवं अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षक महासंघ के अग्रणी नेता ने अपने वक्तव्य में कहा कि सरकार को सभी बच्चों के लिए समान और गुणात्मक शिक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए। उन्होंने कहा, “आरटीई अधिनियम के मानदंडों को ढीला करने से सुविधाभोगी एवं सुविधाहीन तबकों के बीच खाई और अधिक चौड़ी होगी। इसके अलावा, प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान के निर्माण से शिक्षा का केंद्रीकरण होगा।“

शिक्षकों को गैर-शिक्षण कार्यों में संलग्न न करने की सिफारिशों का स्वागत करते हुए, श्री सिंह ने कहा, “शिक्षकों के लिए एक राष्ट्रीय वेतन आयोग और उनकी भर्ती के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया जाना चाहिए जो वेतन और पदोन्नति को ठीक करने के लिए एक वैज्ञानिक और पारदर्शी मानक स्थापित करे।”

 उन्होंने कहा कि शिक्षकों को समाज के सबसे बुनियादी बुद्धिजीवीयों एवं जीवंत परिवर्तनकारियों के रूप में देखा जाना चाहिए जोकि शुरूआत से ही अपने छात्रों के जेहन में तर्कसंगत मूल्यों को बढ़ावा देने और बहुलता, विविधता, समावेशी और लोकतांत्रिक नैतिकता की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसलिए, सरकार को शिक्षकों की स्वायत्तता और प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए उनके लिए आवश्यक सहायता प्रणाली विकसित करनी चाहिए ताकि वे अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकें।

 रामपाल सिंह, अध्यक्ष- ऑल इंडिया प्राइमरी टीचर्स एसोसिएशन ने आरटीई अधिनियम में नो-डिटेंशन पॉलिसी को वापस लाने की सिफारिश का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि देश में लगभग 11 लाख शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं और इन रिक्तियों को भरने की तत्काल आवश्यकता है। श्री सिंह ने कहा, “पूरे नीति दस्तावेज में समान शिक्षा प्रणाली (कॉमन स्कूल सिस्टम) का कोई उल्लेख नहीं है, जो बहुत ही निराशाजनक है।”

 नयी शिक्षा नीति के मसौदे में एक महत्वपूर्ण विरोधाभास की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि नीति दस्तावेज में कहा गया है कि 2022 तक देशभर में पारा – शिक्षक प्रणाली को बंद कर  दिया जाएगा। दूसरी ओर, यह दस्तावेज सेवानिवृत्त शिक्षकों और सेना के अधिकारियों, छात्रों, समुदाय के सदस्यों आदि को अवैतनिक आधार पर शिक्षण के लिए स्वयंसेवक बनाने की बात करता है ! क्या यह अप्रशिक्षित और संविदात्मक शिक्षण की एक दूसरी प्रणाली की शुरुआत नहीं होगी? यह नयी शिक्षा नीति किस दिशा में जायेगी?

एलायंस फॉर राइट टू अर्ली चाइल्डहुड डेवलपमेंट की सुमित्रा मिश्रा ने कहा कि नीति दस्तावेज सीखने के संकट के बारे में बात करता है, लेकिन वह इस बात को महसूस करने में विफल रहता है कि यह प्रणालीगत विफलता है। यह बच्चों की विफलता नहीं है। उन्होंने पेशेवर शिक्षकों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला जो बचपन की शिक्षा का ध्यान रखेंगे।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles