दुनिया भर में इस समय पशु अधिकारों के लिए बात करना आजकल एक फैशन बन गया है। अगर पशु अधिकारों की बात की जाए तो इसके लिए कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में दर्ज है कि एक तरफ शोषण के कारण भूखे अभावग्रस्त मजदूर हैं तो दूसरी और पूंजीपति वर्ग के ही कुछ नुमाइंदे हैं जो पशु अधिकारों की वकालत करते हैं।
कुछ ही साल हुए सोशल मीडिया पर एक ऑडियो वायरल हुआ था जिसमें मेनका गांधी एक पशु चिकित्सक को सड़क छाप गालियां देती सुनाई पड़ रही हैं। पूरे देश में उस समय पशु चिकित्सा बिरादरी ने इसका विरोध दर्ज करवाया था। इसी का दूसरा पक्ष यह है कि पशु चिकित्सक अपने काम में अत्यंत निपुण हो और पशु को वाजिब मूल्य पर स्तरीय चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराने की कोशिश करें।
अब बात आती है भारत में पशु चिकित्सा शिक्षा पर। दस से ज्यादा साल हुए पशु चिकित्सा विद्यालय में एक बदलाव आए। शरीर रचना विज्ञान विभागों में शरीर रचना का अध्ययन करने के लिए कोई भी पशु शरीर अब उपलब्ध नहीं होता। चाहे कुत्ते का शरीर हो या भैंस आदि का। जब मैं देश के प्रथम कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर से पशु चिकित्सा विज्ञान में स्नातक कार्यक्रम में था तो उस समय हम भैंस के कटड़े को जीवित अवस्था में ही फॉर्मलीन (एक केमिकल जिसमें शरीर सुरक्षित रहता है) में फिक्स कर देते थे। इसके लिए उनके गले के पास की एक रक्त नली से तमाम खून को बाहर निकाल कर उसकी जगह फॉर्मलीन डाल दी जाती थी। इस प्रकार उस पशु शरीर पर पूरी क्लास साल भर अभ्यास कर सकती थी। जान सकती थी कि कौन सी पेशी कौन सी हड्डी किस तरह जुड़ी रहती है।
मेनका गांधी के पर्यावरण मंत्रालय संभालने के दौरान ही इस प्रैक्टिस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कैसी विडंबना है कि जो व्यक्ति पशु चिकित्सा की शिक्षा के तरीकों को खत्म करने के लिए जिम्मेदार है सालों से पशु अधिकारों की वकालत करता रहा है। पशु क्रूरता के नाम पर पशुओं पर प्रयोग के नियमों को बहुत सख्त बना देने के कारण ही आज एक छात्र सर्जरी में मास्टर्स करता हुआ भी कोई ऑपरेशन स्वतंत्र रूप से नहीं कर पाता। इसके विपरीत हमारे समय में हम स्नातक स्तर पर ही एक सड़क के कुत्ते पर दर्जनों प्रयोग कर सकते थे। इसके लिए उसमें संवेदनाहरण दवा लगाकर हड्डी तोड़ना भी और फिर जोड़ना भी शामिल था। पंतनगर में चार विद्यार्थी को एक कुत्ता और एक कटड़ा (सर्जरी के दौरान) एलाट किया जाता था। अब ऐसा नहीं है।
एक और बात यह है कि पूरे देश में कहीं पर भी शायद ही किसी जिले में पशुओं के लिए एक पोस्टमार्टम हाउस हो (जैसा कि मुझे एक पशु पैथोलॉजी के प्रोफेसर ने कहा था)। पोस्टमार्टम हाउस पर बीमारी या दुर्घटना के दौरान मृत हुई गाय, कुत्ते, भैंस का पोस्टमार्टम कर मृत्यु का कारण जाना जा सके और संभावित संक्रामक रोगों पर रोकथाम लगाई जा सके। किसी खास क्षेत्र के रोगों की जानकारी के मिल जाने से डाक्टर को ही नहीं देश में आत्महत्या करते किसानों को भी बड़ी राहत मिलेगी।
पोस्टमार्टम हाउस आपको केवल पशु चिकित्सा विद्यालय के अंतर्गत ही मिलेंगे। अन्यथा आपको जिला स्तर पर एक भी पोस्टमार्टम हाउस नहीं मिलेगा। यह बताता है कि पशु चिकित्सा को हमारे देश के नौकरशाह मंत्री और पशुपालन विभागों के उच्च अधिकारी किस प्रकार लेते हैं। आखिर पूरे देश में अगर हर जिले में दस पोस्टमार्टम हाउस खुलवा दिए जाएं तो क्या नुकसान है? विशेष कर यह देखते हुए कि बड़े पशुओं को छोड़े पालतू कुत्ते तक को अल्ट्रासाउंड तो छोड़िए एक्स रे और ब्लड टेस्ट की सुविधा भी जरा मुश्किल से ही मिल पाती है। हालांकि इसके लिए कई जगह लैब खुल गई है पर उनकी व्यवस्था भी ज्यादा अच्छी नहीं है। हमारे बड़े शहर हल्द्वानी में अब भी ये सुविधा नहीं है।
कई दशकों से भारत में पशु चिकित्सा सेवाओं की बेहतरी के लिए चीन के बेयर फुट डॉक्टर्स मॉडल पर हाई स्कूल पास लोगों को तीन महीने की ट्रेनिंग देकर गाय भैंसों में कृत्रिम गर्भाधान और प्राथमिक पशु चिकित्सा का कोर्स करवाया गया है। आज तीस सालों में हालात यहां पहुंच गए हैं कि यही पैरावेट गांव में धड़ल्ले से सारा इलाज करते हैं और कई पशु चिकित्सा के एक यूट्यूबर भी बन चुके हैं। बीते दशकों में हमने देखा है कि पूरी दुनिया में हलचल मचाने वाली बीमारियों में कई पशुओं से आई है चाहे वह एचआईवी हो या मैड कॉउ डिजीज या कोविड की बीमारी। इन हालातों में पशु चिकित्सा और पशुपालन के वैज्ञानिकों, नीति नियंताओ को संभवतः कुछ विचार करना उपयुक्त हो।
अंत में देश में बढ़ते आवारा पशुओं का मुद्दा। कई दशकों से ऊंची कृषि आगतों और लगभग स्थिर रहे कृषि उत्पादों की कीमतों के कारण भारत के किसान ही नहीं दुनिया भर के किसान खेती को घाटे का सौदा मान इसे त्याग रहे हैं। भारत में आवारा सांड पूरी की पूरी खेती नष्ट कर जाते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में बंदर और सूअर के खेती को तबाह करने के कारण लोगों ने खेत ही बंजर छोड़ दिए हैं। आवारा सांड जहां दो पहिया वाहनों और कारों के लिए मौत का सबब है वहीं वे खुद भी सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो जाते हैं। इसमें भले ही कोई नारकीय गोशाला हो गौ माता बुरी मौत मरती है। समाधान क्या है? क्या हम सड़क में घूमते आवारा सांडों को बेहतरीन पशु चिकित्सा सीखने के लिए पशु चिकित्सा महाविद्यालय के हवाले कर सकते हैं या नहीं? यह एक बड़ा सवाल है।
आखिर जैसा कि कई सालों के अमेरिका प्रवास के बाद भारत लौटे स्वामी विवेकानंद ने चन्दा लेने आए कुछ गोभक्तों को कहा था कि मेरे लिए नौ लाख अकाल पीड़ित जनता जो भूख से मर गई है बड़ी है। गरीब की जान ज्यादा जरूरी है ना कि गौ सेवा। गौ सेवा उसके बाद आती है।
(डॉ. उमेश चंदोला पशु चिकित्सक हैं)