Thursday, April 18, 2024

भटिंडा: कृषि अध्यादेश के खिलाफ 17 वर्षीय छात्रा ने किया किसानों के ट्रैक्टर मार्च का नेतृत्व

जब सारे देश के किसान मजदूर और यहां तक कि राजनीतिक दल भी चुपचाप बैठ कर वेबिनार या फेसबुक लाइव के जरिये अपनी बातों को और सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, जिसका कोई असर केंद्र सरकार के कानों पर नहीं पड़ रहा। 

वह एक के बाद एक ऐसे कदमों को लागू करने में व्यस्त है जो उसके एजेंडे में शामिल थे और उन्हें शायद एक दशक में पूरा किया जाना था, लेकिन आपदा में अवसर को पहचानते हुए मोदी सरकार उसे धड़ाधड़ लागू किये जा रही है।

ऐसे में पंजाब के किसानों का लगातार विरोध-प्रदर्शन और यहां तक कि युवाओं का इस आन्दोलन में कूदना हैरत में डालने वाला है, क्योंकि पंजाब का युवा पिछले 4 दशक से खेती बाड़ी क्या इस देश से ही ऊब चुका लगता था, उसके सपनों में हमेशा कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया के ही सपने रहते रहे हैं। यह देखकर हैरत और ख़ुशी भी हो सकती है कि परसों भटिंडा की ट्रैक्टर रैली में उसका नेतृत्व एक 17 साल की युवा लड़की के जिम्मे था।

इंडियन एक्सप्रेस सहित पीटीआई की रिपोर्ट से पता चलता है कि बलदीप कौर ने हाल ही में कक्षा 10 का इम्तिहान 85% अंकों से पास किया है, और इस रैली का नेतृत्व करने वाली यह बेटी भटिंडा के मेह्मा भगवाना गाँव से है, जो अपनी दादी बलदेव कौर और परिवार के अन्य सदस्यों को साथ बैठा कर रैली का नेतृत्व कर रही थी। 

सोमवार के दिन हुई इस रैली को राज्य भर से 13 किसान यूनियनों का समर्थन हासिल था, जिसमें भारतीय किसान यूनियन (उग्रहण) और बीकेयू (दकौन्दा) शामिल हैं। बलदीप कहती हैं, “मेरे दादा-दादी नियमित तौर पर किसान यूनियन के धरने प्रदर्शन में हिस्सा लिया करते थे। मैं हमेशा उनसे प्रेरणा पाती रही हूँ। इस बार सुना कि ट्रेक्टर रैली होने जा रही है तो मैंने भी इसमें हिस्सा लेने का मन बना लिया। ट्रैक्टर चलाने का काम तो मैंने सैकड़ों बार अपने खेतों में कर रखा है, लेकिन यह पहली बार है जब मैंने अपने गाँव से 19 किमी दूर भटिंडा तक की यात्रा ट्रैक्टर खुद से चलाकर की हो, और उस पर यह तथ्य की गाँव के सभी बुजुर्ग आपका अनुसरण कर रहे हों।” 

सूबे के तकरीबन 50 से अधिक स्थानों के दसियों हजार की संख्या में किसान इस प्रदर्शन में शामिल हुए, जिसमें लुधियाना, मोंगा, मुक्तसर, फगवाडा और होशियारपुर शामिल हैं। पिछले कई दिनों से चल रहे इस विरोध-प्रदर्शन की वजह हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा किसान व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, मूल्य आश्वासन और फार्म सेवा अध्यादेश और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता शामिल है।

बलदीप कौर ने बताया कि “ये अध्यादेश किसान विरोधी हैं। हम पहले से ही घाटे में हैं और सरकार कल को हमसे हमारे खेती करने के अधिकार को ही छीनने और कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट को लाने की तैयारी में है। डीजल-पेट्रोल की बढ़ती कीमतों ने पहले से ही हमें मुसीबतों से घेर रखा है।”

लेकिन बलदीप के लिए यह कोई एक दिन का ही काम नहीं है, इस कक्षा 11 की छात्रा ने बताया कि वह नियमित तौर पर खेतों में अपने पिता की मदद करती है। तीन बहनों में सबसे छोटी बहन को इस बात का अहसास है कि परिवार को 11 लाख रूपये कर्जे को चुकता करना है। बलदीप आगे बताती हैं, “ स्कूल से आने के बाद मेरा काम पिता के साथ खेतों में हाथ बंटाने का होता है। यदि खेत में काम अधिक होता है तो कभी-कभी मुझे स्कूल भी मिस करना पड़ जाता है। धान की रोपनी के लिए मैंने धान के पौधों को तैयार करने का काम किया था। मैं खेतों में अपने पिता के साथ खेत जोतने, फसल काटने और यहाँ तक कि मंडी में फसल की बिक्री में मदद तक के लिए जाया करती हूँ।”

उसके पिता जगसीर सिंह कहते हैं, “अब बेटियों ने खेती पर ध्यान देना शुरू कर दिया है, लड़कों को इनसे कुछ सबक सीखने की जरूरत है। मेरी बेटी खेती में मेरी काफी मदद करती है।” वहीं गाँव के एक किसान सुखजीवन सिंह बबली बोल पड़ते हैं, “एह साडे पिंड दी बेटी है…सानु मान है एस ते (यह हमारे गाँव की बेटी है। हम सभी को इस पर गर्व है। जो नौजवान आज खेतीबाड़ी से भाग रहे हैं, उन सबके लिए यह बेटी किसी प्रेरणा से कम नहीं।”
बलदीप का कहना है कि “अपने पिता को मुश्किलों में देखते हुए उसने मदद के बारे में ठान लिया था। मुझे मालूम है कि एक किसान को किन मुश्किलों के बीच से गुजरना होता है। चूँकि मेरे दादा-दादी यूनियन का हिस्सा रहे हैं, इसलिए मैंने भी इसमें समर्थन देने का मन बना लिया।” आगे की पढ़ाई लिखाई के बारे में उसका इरादा बीएससी (कृषि) से कर खेतीबाड़ी के बारे में और अधिक मालूमात करने की है।

 “अपने बुजुर्गों को इस कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए नौजवानों को खेतीबाड़ी के क्षेत्र में आगे आना चाहिए क्योंकि सरकारें मदद नहीं करने वालीं।” यह कहना है इस बालिका का।

वहीं जगसीर सिंह जो कि भारतीय किसान यूनियन (उग्रहण) नेता हैं, का कहना है “लड़के या तो आजकल विदेशों का रुख कर लेते हैं या नशे की लत के शिकार हैं। इसलिए अब अधिक से अधिक लड़कियों ने खेती के मोर्चे को सम्भालने का काम शुरू कर दिया है। सरकारें आजकल किसानों की तकलीफों से पूरी तरह से बेपरवाह हो चुकी हैं, ऐसे में बेटियाँ पिता के काम आ रही हैं।” झुम्बा गाँव की एक अन्य लड़की का उदाहरण देते हुए किसान नेता बताते हैं किस प्रकार से इस लड़की ने खेतीबाड़ी को अपनाकर अपने परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी अपने नाजुक कंधों पर लेने का फैसला लिया।

वे बताते हैं, “22 वर्षीया यह लड़की स्कूटी तो चला लेती है लेकिन ट्रैक्टर नहीं चला सकती, इसीलिए आज की रैली में वह नहीं आ सकी। उसके परिवार के पास 2 एकड़ जमीन है और वे ट्रैक्टर रखने की स्थिति में नहीं हैं। वरना सारा खेतीबाड़ी का काम वह अकेले अपने दम पर ही कर लेती। यहाँ तक कि रात में पानी देने के लिए भी वह खेतों में नियमित तौर पर जाती है। सड़क दुर्घटना में उसके बड़े भाई की मौत हो चुकी थी, जिसके बाद से उसने अपने पिता बोरा सिंह की खेतों में मदद के लिए निश्चय किया था।”

आज सवाल यह है कि पंजाब के किसान और उनकी बेटियां जिस बात को अच्छी तरह से समझ गए हैं, वह समझ सरकार, विपक्ष और मजदूरों किसानों के लिए ही बने संगठनों को क्यों इसका आभास नहीं हो पा रहा है? 

पंजाब हरियाणा का किसान इस बात से अधिक वास्ता सिर्फ इसलिए रख सका है क्योंकि सरकार द्वारा गेहूँ, चावल पर दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य के बल पर ही वह पिछले 4 दशक से अपनी खेतीबाड़ी कर रहा है। ज्ञात हो कि देश में इस न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी सिर्फ 6% किसान ही हासिल कर पाता है। और सरकार के इस बार के आपदा में अवसर ढूंढने में असल में मंडियों, और अन्य समर्थन से समूचे कृषि व्यवस्था को मुक्त कर उन्हें बड़े-बड़े कॉर्पोरेट के हाथों भीख मांगने के लिए विवश करना है।

कई जगहों पर कॉर्पोरेट के हिसाब से ही खेती करने और कालान्तर में वस्तुतः अपने ही खेतों में कॉर्पोरेट के लिए जॉब वर्क के तौर पर खेतिहर मजदूर बनकर रह जाना है। कई शोधों में पाया गया है कि यही तरीका अमेरिकी किसानों पर भी अपनाया गया था, जिससे भारी संख्या में किसानों को अपने खेतों को बेच शहरी मजदूर, सर्वहारा बनने की प्रक्रिया को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

यहां और अमेरिका में एक बुनियादी अंतर है। हालांकि यह सच है कि अमेरिका में भी उस दौर में किसानों को भारी मुसीबतों, आत्महत्याओं के दौर से गुजरना पड़ा था। लेकिन उस विस्थापित आबादी को अमेरिकी उद्योगों में खपाने के लिए ढांचा मौजूद था। लेकिन भारत जैसे देश में जहाँ पिछले 30 सालों से गाँवों से शहरों की ओर पलायन का रुख लगातार बना हुआ था, और इफरात में गावों से आये सर्वहारा को निर्माण क्षेत्रों, खानाबदोश घुमन्तू की तरह देखा जा सकता था। 

कोरोनावायरस महामारी के दौरान उन करोड़ों मजदूरों तक को अपने अपने गाँवों की ओर रुख करना पड़ा था। वे परिस्थितियां आज तक के मानव इतिहास में (रिवर्स पलायन) शायद ही कभी देखने को मिली थीं। ऐसे में पहले से ही मर रहे खेतीबाड़ी के क्षेत्र में कॉर्पोरेट के हाथ खुले हाथ बेभाव की मौत के लिए मोदी सरकार द्वारा किसानों को उसके बाड़े में झोंक देने की पहल किस आत्मनिर्भर भारत, देशभक्त भारत या गरीब के आंसू पोंछने की पहल के रूप में देखा जा सकता है?

सबसे हैरान तो विभिन्न वामपंथी, समाजवादी और दलित हितों के नाम पर छाती कूटने वालों को देखकर लगता है। लगता है इन 6 वर्षों में ये सभी संगठन दंतहीन हो चुके हैं, इनके नेतृत्व ने मान लिया है कि क्रोनी कैपिटल के साथ ब्राह्मणवादी शासकीय प्रबन्धन के तहत ही अब यह देश चलेगा, जहां हर शम्बूक को पढ़ने लिखने और ज्ञान पर उसका वध शास्त्र सम्मत होगा।

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र लेखक हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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