आधे मन से अधूरी लड़ाई के पक्ष में नहीं था मतदाता

2014 लोकसभा चुनावों से यह बात उत्तरोत्तर स्पष्ट होती जा रही है कि भारतीय लोकतंत्र में मतदाता के पास भले ही स्व-विवेक की कोई कमी न हो, किंतु उसे समय-विशेष पर यदि सघन प्रयासों से प्रभावित करने की कोशिश की जाये तो यह कारगर हो सकता है।

फिर चुनावों में जीत हासिल करने के लिए सिर्फ धन बल, और सरकार की आलोचनाओं से ही काम नहीं चल सकता। इसके लिए समूचे देश को एक सिरे से जोड़ने वाले नारे के साथ-साथ विभिन्न समुदायों के लिए विभिन्न ध्वनियों को उच्चारित करने और अपनी छतरी तले लाने की रणनीतिक कुशलता की भी जरूरत है।

हम यदि हालिया 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों पर एक नजर डालें तो यह बात कुछ-कुछ स्पष्ट होती है। यूपी में हुए 7 चरण के चुनावों में एक भी चरण में भाजपा की हवा नहीं नजर आई। जगह-जगह समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय लोकदल एवं सहयोगी दलों की सभाओं में भारी हुजूम उमड़ा। जनता का एक हिस्सा खुलकर सपा के पक्ष में आ गया था, मुस्लिम समुदाय ने भी बड़ी सूझ-बूझ से काम लिया, और एकमुश्त वोट दिया। ऐन चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही यूपी भाजपा से कई मंत्रियों का एक-एक कर इस्तीफे और सपा में शामिल होने की घटनाओं ने योगी सरकार की हालत पतली कर दी थी। उसके जवाब में कुछ सपा, कांग्रेस विधायकों और अपर्णा यादव को पार्टी में भर्ती करने का दांव चलाया गया, लेकिन इसमें कहीं से भी वो बात नहीं थी।

हालत यहाँ तक थी कि योगी के मथुरा, अयोध्या, प्रयागराज से चुनाव लड़ने की अटकलों और संभावित जोखिमों के बाद अंततः उन्हें सुरक्षित गोरखपुर सीट ढूंढनी पड़ी। मतदाताओं का एक हिस्सा तो इस कदर नाराज था कि मध्य यूपी तक चुनावी चरण के आते-आते किसानों ने आवारा जानवरों को सभास्थल के पास छोड़ दिया, जिससे उस गुस्से को भांपते हुए पहली बार पीएम मोदी तक को किसानों को 10 मार्च के बाद इसका कुछ ठोस उपाय तलाश करने का वादा करने के लिए विवश कर दिया।

लेकिन किसानों के आंदोलन, पिछड़ों की गोलबंदी, छात्रों और बेरोजगारों की हताशा से उपजा गुस्सा, शिक्षकों की भर्ती में पिछड़े वर्गों के साथ हुए घोटाले, अल्पसंख्यक समुदाय के हाशिये पर डाल दिए जाने, भयानक महंगाई, दलितों के उन्नत हिस्से में आरक्षण और सार्वजनिक क्षेत्रों के निजीकरण से बढ़ती असुरक्षा, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध, प्रदेश के ब्राह्मण समुदाय में उपेक्षित होने की भावना घर कर जाने के बावजूद भाजपा की शानदार सफलता कुछ ऐसा कहती है, जिसे पर्यवेक्षक और विभिन्न राजनीतिक दल या तो टटोल नहीं रहे हैं, या उन्हें उम्मीद है कि शायद मतदाताओं को अभी भी धर्म के नशे की गिरफ्त से बाहर होने में समय लगेगा।

भाजपा ने तमाम मुश्किलों और जन-विरोध के बीच इस चुनाव को लड़ा है। चुनाव पूर्व की गई तमाम घोषणाओं, शिलान्यासों, मेडिकल कालेजों, जेवर एयरपोर्ट की शुरुआत से लेकर मेट्रो परियोजना और एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के साथ-साथ अयोध्या में राम मंदिर के भव्य निर्माण और बड़े पैमाने पर कशी विश्वनाथ कॉरिडोर के आयोजन से लगभग सभी अखबारों और न्यूज़ चैनलों से कई हफ्तों तक माहौल बनाया गया, लेकिन ये मुद्दे कभी भी मुख्यधारा में बड़े नैरेटिव नहीं बन सके।

जमीन पर असंतोष और गुस्से की भनक से बाखबर भाजपा ने मुख्य रूप से दो मुद्दों पर चुनावी समर में उतरने की कोशिश की और इसे व्यापक रूप में सहमति मिली। एक था, राज्य में कानून व्यवस्था में व्यापक सुधार, जिसे योगी की बुलडोजर नीति कहा गया। और दूसरा, लाभार्थी वर्ग की उत्पत्ति का दोहन।

पहले वाले से जहां राज्य के सवर्ण और खाते-पीते वर्ग के मुँह में कम से कम पिछली सरकार की तरह गुंडागर्दी और माफिया राज नहीं था, का स्वर लगातार सुनने को मिला, जिसे भाजपा ने खूब भुनाया और शहरों में इसे अपना चुनावी मुद्दा बनाया, वहीं ग्रामीण और शहरी गरीबों के लिए 5 किलो राशन, नमक, तेल और किसानों को साल में 6000 रूपये की आय ने इस कोरोना काल में क्या काम किया है, इसका अनुमान विपक्षी दलों ने नहीं लगाया। यूपी में 15 करोड़ लोगों की एक ऐसी आबादी का निर्माण हो गया है, जो पिछले 2 वर्षों से मुफ्त राशन के एक बड़े तबके का निर्माण करता है। इसमें से बेहद गरीब तबके, जिसमें पिछड़े और दलित तबके की एक अच्छी-खासी आबादी है, उसके बारे में समझ लिया गया कि वे राशन पाने के बावजूद अपनी बेहतरी के लिए आकांक्षी हैं, और वे वर्तमान शासन के खिलाफ मतदान करेंगे।

लेकिन शायद यह एक बड़ी चूक थी। इतनी बड़ी चूक, जिसने विपक्षी दलों के जमीन के नीचे से कार्पेट छीन ली और वे पूरी तरह से लुटे-पिटे नजर आ रहे हैं।

एक चतुर रणनीतिकार यदि होता तो उसने बिहार चुनावों से अवश्य सबक लिया होता, या बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी की रणनीति को ध्यान से समझा होता। चूँकि मुख्य विपक्षी दल के तौर पर यूपी के दंगल में अखिलेश यादव मैदान में थे, न कि प्रियंका गाँधी, इसलिए यह अपेक्षा स्वाभाविक रूप से सपा से थी। लेकिन अखिलेश ने अपना आगाज ही शतरंज की गोटियाँ बिछाने वाले चतुर राजनीतिज्ञ के तौर पर की, जिसने न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर वाली तर्ज पर अपने अभियान की शुरुआत की। चुनावी रैलियों में व्यापक जन-समर्थन और नारों में उनकी ओर से एक के बाद एक वर्ग के लिए घोषणाओं का पिटारा था, और योगी आदित्यनाथ के लिए चुटकी।

इस खेल का आनंद यूपी के पढ़े लिखे व्यापक पिछड़े वर्ग और दलित तबके ने ही नहीं बल्कि सवर्ण तबके के भी एक हिस्से ने लिया। लेकिन यह नैरेटिव अधूरा ही रहा, क्योंकि यह नीचे तक नहीं जा सका। इसे भारत की दुर्दशा ही कहेंगे कि आर्थिक गैर-बराबरी के इस निर्मम दौर में बड़े पैमाने पर करोड़ों की संख्या में लोग बेरोजगार, लाचार और दाने-दाने को मोहताज हो गए हैं। आज एक ऐसे बड़े तबके का जन्म हो चुका है, जिसे उम्मीद ही नहीं बची कि उसके लिए अब इस दुनिया में अच्छे दिन भी आ सकते हैं। यदि आ सकते हैं तो वह इसे उज्ज्वला गैस, 2000 रुपये की किसान सम्मान निधि, फ्री राशन, शौचालय, पक्के घर के लिए मिलने वाले ऋण की आस में ही ढूंढे और आशा रखे कि मोदी सरकार इस कृपा को बनाये रखेगी और कुछ नई योजनाओं की घोषणा करेगी।

हमें हाल ही में प्रकाश में आये उस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, जिसमें बताया गया था कि देश में एक तबका ऐसा भी पैदा हो गया है जो रोजगार की स्थिति होने पर भी रोजगार के लिए प्रयासरत नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले प्रयासों में उसे सफलता नहीं मिली, और आज वह मानसिक रूप से इतना टूट गया है कि हाथ आये रोजगार तक को उसने परे हटा दिया है।

लेकिन आपदा में जिन्हें अवसर नजर आता हो, उनके लिए तो एक नया ही निर्वाचन क्षेत्र हासिल हो गया है। इस लाभार्थी वर्ग ने एक नई उम्मीद को जगा दिया है। इसे साल में थोड़ी सी राहत, (कारावास में रखने वाले कैदियों से कम खर्च पर) भारत जैसे विशाल भूभाग वाले देश में लोकतांत्रिक तरीके से चुने जाने का गौरव हासिल किया जा सकता है।

दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत के 130 करोड़ लोगों को आज एक ऐसे राजनीतिक दल की सख्त आवश्यकता महसूस हो रही है, जो स्पष्ट वैचारिकी के साथ राष्ट्रीय पटल पर उसके मुद्दों को मुखर कर सके। उसके पास वह लोच हो जो सिर्फ मध्य वर्ग को ही नहीं बल्कि समाज के विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व ही नहीं, बल्कि उसका सशक्तिकरण भी कर सके। यह सशक्तिकरण उसके लिए स्कूल, स्वास्थ्य सुविधा, राशन, स्वच्छ पेय जल, काम पाने की गारंटी ही नहीं बल्कि नीति-निर्धारण करने में भी उसे सशक्त बना सके।

आप पार्टी ने पंजाब के इन्हीं दिलों को कहीं न कहीं छुआ है, जिसका नतीजा उसे बंपर जीत में मिला है, जिसके लिए अन्य दल सिर्फ उससे ईर्ष्या ही कर सकते हैं। एक बिल्कुल नई पार्टी ने बड़े-बड़े दिग्गजों को मटियामेट कर दिया है। दिल्ली में शीला दीक्षित की राजनीति ही खत्म हो गई, भाजपा के कई पुराने दिग्गज अब दिल्ली की बजाय कुछ राज्यों के राज्यपाल या अन्य सरकारी महकमों की शोभा बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस के कई दिग्गजों ने राजनीति से ही सन्यास ले लिया है। यह दूसरी बात है कि दिल्ली में सत्ता में आने के बाद जनता के सशक्तिकरण के बजाय “एमसीडी में भी केजरीवाल” के पोस्टरों से दिल्ली को पाट डाला है। लेकिन फिलहाल यह सिक्का ही लोगों के लिए बहुत काम का है।

आदर्श स्थिति तो यह हो सकती थी कि पंजाब में छिटपुट चुनाव लड़ने के बजाय किसान संगठनों के नेताओं को समाज के अन्य तबकों, जैसे छात्रों, मजदूरों, अल्पसंख्यक वर्ग, महिलाओं के कामगार हिस्सों, दलितों और आदिवासियों के एक छतरी निकाय की स्थापना के साथ एक नए समाज के गठन के वास्ते आवश्यक कदम उठाने और उसे वैकल्पिक राजनीति की ओर ले जाने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन पंजाब में चुनाव लड़कर उसने आधे-अधूरे और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए एक बड़े काम से खुद को दूर कर दिया है। इस पूरे नैरेटिव को सामने रखने के लिए ऐतिहासिक तौर पर सबसे उपयुक्त वाम दल रहे हैं, और दुनिया भर में नव उदारवादी हमलों से जिस देश में भी यह लड़ाई मुखर हो रही है, उसमें वे अग्रणी पंक्ति में खड़े हैं। लेकिन हमारे देश में वाम आंदोलन अपने ही इतिहास और संसदीय दलदल में इतना ऊभ-चूभ कर चुका है कि उससे एक ही स्थान पर कदमताल करने से अधिक की अपेक्षा नहीं रह गई है।

निश्चित रूप से यूपी में कांग्रेस ने एक नया प्रयोग किया है, हालाँकि वोटों के तौर पर उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है। लेकिन समय का पहिया बदलाव के साथ आगे बढ़ता है, जो दल सही समय पर सही जगह पर खुद को बैठा लेता है, उसे स्वाभाविक रूप से यह अवसर प्राप्त हो सकता है। कांग्रेस ने पंजाब में चन्नी को काफी देर से मुख्यमंत्री बनाकर, साथ ही उनके ऊपर दसियों लोगों को पार्टी के भीतर टीका-टिप्पणी करने की खुली छूट दे रखी थी, जिसका फायदा आप पार्टी को 2019 में अपने अपेक्षाकृत बेहद कम वोटों के बावजूद अपनी पोजिशनिंग के रूप में मिला।

2014 में यही बात भाजपा के लिए केंद्र में कही जा सकती है। फिर उस अवसर को अपने लिए सुनहरा अवसर बनाने की भूमिका तो उसी दल के पास बनी रहती है। दाद देनी होगी कि सिर्फ धन-बल, राज्य मशीनरी के खुल्लम-खुल्ला दुरूपयोग और सांप्रदायिक विभाजनकारी नीति से ही नहीं बल्कि इस बार यूपी के चुनाव में लाभार्थी वर्ग के तौर पर भी एक नई लकीर खींचकर भाजपा ने एक बार फिर से जीवनी शक्ति हासिल करने में सफलता प्राप्त कर ली है। यह सबक भी है और जमीन पर आने का आह्वान है।

(रविंद्र सिंह पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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