Friday, April 19, 2024

शहादत दिवसः स्वतंत्रता संग्राम के आदिवासी नायक शहीद वीर नारायण सिंह

अंग्रेजों से आजादी दिलाने में सबसे पहले विरोध का बिगुल फूंकने वाले सिर्फ और सिर्फ आदिवासी ही हैं। भले ही उन्हें इतिहासकारों ने आजादी के आंदोलन में प्रमुख स्थान नहीं दिया, लेकिन आदिवासियों का योगदान आज भी प्रमाणित रूप से जिंदा है।

इतना ही नहीं देश में अंग्रेजों ने आजादी के आंदोलन में संघर्ष करने वालों को गोलियों से भूना और फांसी पर भी लटकाया, लेकिन जिस बर्बर तरीके से आदिवासी वीर योद्धाओं को अंग्रेजों ने मारा उसकी कम ही मिसाल मिलती है। अंग्रेजों ने शहीद वीर नारायण सिंह को रायपुर में, राजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथ शाह को जबलपुर में तोप से उड़ाकर उनको दर्दनाक मौत दी।

यह गोंडवाना के शेर आदिवासी समाज के गौरव पहले भी थे और आज भी हैं, लेकिन आजादी के दौरान आदिवासियों की शहादतों की सूची में जानबूझकर उनका नाम नहीं लिखा गया। आजादी के आंदोलन में अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष कर शहादत देने वाले आदिवासी शहीदों को इतिहास में न तो पहले वह सम्मान मिला और न ही आजादी के बाद की सरकारों ने आदिवासी शहीदों को सम्मान देना उचित समझा।

अंग्रेजों ने वीर योद्धा शहीद वीर नारायण सिंह को सबके सामने भरे चौराहे पर सरेआम जय स्तंभ चौक रायपुर में 10 दिसंबर 1856 को तोप से उड़ाकर उनके अंग-भंग शरीर को चौक में 10 दिनों तक टांगकर रखा था और फिर 19 दिसंबर 1856 को उसे उतारकर उनके परिजनों को सौंपा गया था।

रायपुर के भरे चौराहे में 10 दिनों तक शहीद वीर नारायण सिंह के क्षत-विक्षत शरीर को सिर्फ इसलिए लटकाकर रखा गया ताकि कोई और देश भक्त इस तरह अंग्रेजों के खिलाफ सर ऊंचा न कर सके, लेकिन उसका परिणाम यह हुआ कि इसे देखकर देश की जनता में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश और उग्र हो गया और भारतीयों में आजादी पाने की ललक और अधिक बलवती हुई तो पूरे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ 1875 की क्रांति की शुरूआत हुई और लगभग 100 साल बाद 1947 में भारत को इन्हीं देश भक्तों के बलिदान के बदौलत आजादी मिली।

छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शहीद बलौदा बाजार जिला में सोनाखान रियासत के जमींदार वीर नारायण सिंह ने सन् 1856 में अंग्रेजों के खिलाफ जनता, जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा के लिए क्रांति का बिगुल फूंक दिया था।

आज से लगभग 163 साल पहले सोनाखान रियासत में घोर अकाल पड़ गया। वहां की प्रजा दाने-दाने को मोहताज हो गई। वीर नारायण सिंह ने अपनी रियासत में जमा सभी गोदामों से अनाज को निकलवाकर आम जनता में बांट दिए। इसके बावजूद वहां अनाज की कमी से लोग भूख से बेहाल हो गए। भूख से बेहाल माताओं के स्तन का दूध सूखने लगा तो छोटे-छोटे बच्चे भूख के कारण तड़फ-तड़फ कर मरने लगे।

वीर नारायण सिंह जनता की यह दुर्दशा देखकर अत्यंत दुखी हुए। उन्होंने आदेश दिया की जिन-जिन लोगों के पास अनाज जमा करके रखे हैं वे जरूरतमंद जनता में उधार स्वरूप दे दें और जब नई फसल आएगी तो ब्याज समेत उसे वापस कर दिया जाएगा। सभी ने वीर नारायण सिंह के आदेश का पालन करते हुए, जिनसे जितना बन पड़ा वहां की जनता की मदद की, लेकिन इतने अनाज से भी कुछ नहीं हुआ।

उस समय कसडोल में अंग्रेज का पिट्ठू एक बड़ा व्यापारी जो मुनाफा कमाने के लिए सबसे ज्यादा अनाज जमा करके रखे हुए था उसने अनाज देने से साफ इनकार कर दिया। वीर नारायण सिंह को जब पता चला कि इस व्यापारी के पास भारी मात्रा में अनाज है तो उन्होंने प्रजा की भूख मिटाने के लिए उनसे निवेदन किया।

व्यापारी ने अनाज देने से स्पष्ट इनकार कर दिया। बार-बार निवेदन का भी कोई असर उस व्यापारी पर नहीं पड़ा और इधर भूख से जनता त्राहि-त्राहि करने लगी तो मजबूर होकर जनता की जान बचाने के लिए उस व्यापारी के अनाज को प्रजा में बांट दिया गया। व्यापारी ने इसकी शिकायत रायपुर में अंग्रेजों को भेज दी।

अंग्रेज पहले से ही नाराज तो थे ही, क्योंकि लगातार अंग्रेजों के खिलाफ वीर नारायण सिंह छापेमार शैली में स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल फूंके हुए थे। इस घटना के बाद आर-पार की लड़ाई शुरू हो गई। अंग्रेजों ने लगातार सोनाखान क्षेत्र में कई आक्रमण किए, लेकिन प्रत्येक आाक्रमण का वीर नारायण सिंह ने मुंहतोड़ जवाब दिया। उन्हें हराना असंभव ही था, क्योंकि उनके साथ उनकी जनता और मुट्ठी भर उनके सैनिक जी-जान से उनका साथ दे रहे थे।

अंग्रेजों को छत्तीसगढ़ से अपनी जमीन खिसकती हुई दिख रही थी और जनता में स्वतंत्रता की आस दिख रही थी। अंग्रजों ने बाजी हाथ से निकलता देख कूटनीति का सहारा लिया और शहीद वीर नारायण सिंह के चचेरे भाई को प्रलोभन देकर अपने जाल में फंसा लिया। अंग्रेजों द्वारा सोनाखान क्षेत्र की जनता को भयंकर प्रताड़ना दी जाने लगी। कई बार तो उस क्षेत्र के घरों में आग लगा दी गई।

सोनाखान के पहाड़ में चोरी-छिपे जाकर छिपे वीर नारायण सिंह को अंग्रेजों ने भीषण संघर्ष के बाद गिरफ्तार कर लिया। उन्हें सेंट्रल जेल रायपुर में लाकर बंद कर दिया। अंग्रेजों के लिए यह बहुत बड़ी कामयाबी थी। वीर नारायण सिंह को आम जनता के सामने भरे चौराहे पर सरेआम जय स्तंभ चौक रायपुर में दस दिसम्बर 1856 को तोप से उड़ा दिया गया। उनके शरीर को चौक में 10 दिनों तक लटकाकर रखा गया। इसे देखकर देश की जनता में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश और उग्र हो गया। भारतीयों में अंग्रेजों से आजादी पाने की ललक बढ़ती गई। परिणाम स्वरूप पूरे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की क्रांति की शुरूआत हुई और लगभग 100 साल बाद 1947 में भारत को इन्ही देशभक्तों के बलिदान के बदौलत आजादी मिली।

छत्तीसगढ़ की राजधानी से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऐतिहासिक ग्राम सोनाखान स्थित है। वर्तमान में सोनाखान गांव में अब जमींदार का महल नहीं है, किंतु अवशेष के रूप में खंडहर हैं। उनके परिजन झोपड़ीनुमा घर में रहते हैं। गांव के पश्चिम में एक छोटी पहाड़ी है। इसका नाम कुरूपाठ है। यहां छोटी सी झील है, जहां सदैव पानी रहता है। उक्त स्थल बहुत ही मनमोहक और मनोरम है।

कुरू पाठ के उत्तरी छोर में बड़ा तालाब है। राजा सागर तथा दक्षिण में एक तालाब मंद सागर सरोवर वीर नारायण सिंह द्वारा खुदवाये गए थे। वे उसी स्थान पर स्नान किया करते थे। आज की बस्ती नई है, पुरानी बस्ती तालाब से लगी हुई थी, माह दिसंबर 1857 में इन्हीं बस्तियों पर अंग्रेजों ने हमला कर अन्याय-अत्याचार किए थे।

इतिहास के जानकारों की मानें तो अंग्रेजों ने जुल्म करने में मानवीयता की सीमा को पार कर डाली थीं। मासूम बच्चों को पकड़ कर धधकती आग में झोंक दिया गया था। अंधाधुंध गोलियां चलाकर सैकड़ों निर्दोष नर-नारियों को मौत के घाट उतार दिया था। आसपास की बस्तियों के लोग सेनापति के भय से घर छोड़ कर जंगल की ओर भाग गए थे।

कुरु पाठ डूंगरी में युवराज वीर नारायण सिंह के वीरगाथा का जिंदा इतिहास दफन है। यहां पुरातत्व विभाग द्वारा भी कुछ खुदाई की गई है। युवराज वीर नारायण सिंह के पास एक घोड़ा था जो स्वामी भक्त था। उसका रंग कबरा था। वह घोड़े पर सवार होकर सुबह के समय भ्रमण किया करते थे। प्रजा के सुख-दुख-दर्द को सुना करते थे।

सोनाखान इलाके में एक नरभक्षी शेर का आतंक फैला था। मनुष्यों एवं पालतू जानवरों को मारकर खा जाता था। प्रभावित क्षेत्र की प्रजा जमींदार नारायण सिंह से सुरक्षा की मांग करने लगी तो उन्होंने खुंखार शेर को मार डालने की ठान ली। वह शेर को जंगल के बीहड़ों में खोजते रहे। बहुत दिनों तक शेर का पता नहीं चला। अचानक एक दिन रायपुर के कस्बाई क्षेत्र में उत्पात मचाने लगा। युवराज नारायण सिंह मुकाबले के लिए शेर के सामने थे। मुकाबला होने लगा। तब म्यान से तलवार निकालकर शेर को उन्होंने मार डाला। इस बहादुरी से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें वीर की पदवी से सम्मानित किया था। तब से उनके नाम के आगे वीर जुड़ गया और वीर नारायण सिंह नाम से जाने जाने लगे।

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