Wednesday, April 24, 2024

जयंती पर विशेष: शानी के मानी

शानी के मानी यूं तो दुश्मन होता है और गोया कि ये तखल्लुस का रिवाज ज्यादातर शायरों में होता है। लेकिन शानी न तो किसी के दुश्मन हो सकते थे और न ही वे शायर थे। हां, अलबत्ता उनके लेखन में शायरों सी भावुकता और काव्यत्मकता ज़रूर देखने को मिलती है। शानी अपने लेखन में जो माहौल रचते थे, उससे ये एहसास होता है कि कवि हृदय हुए बिना ऐसे जानदार माहौल की अक्काशी मुमकिन नहीं। जी हां, हम हम बात कर रहे हैं छठवें-सातवें दशक के प्रमुख कथाकार गुलशेर अहमद खां की, जिन्हें हिंदी कथा साहित्य में सिर्फ उनके उपनाम शानी के नाम से जाना-पहचाना जाता है।

अपने बेश्तर लेखन में मध्यम, निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का यर्थाथपरक चित्रण करने वाले शानी पर ये इल्जाम आम था कि उनका कथा संसार हिंदुस्तानी मुसलमानों की जिंदगी और उनके सुख-दुख तक ही सीमित है। और हां, शानी को भी इस बात का अच्छी तरह से एहसास था। अपने आत्मकथ्य में शानी इसके मुताल्लिक लिखते हैं-‘‘मैं बहुत गहरे में मुतमईन हूं कि ईमानदार सृजन के लिए एक लेखक को अपने कथानक अपने आस-पास से और खुद अपने वर्ग से उठाना चाहिए।’’ जाहिर है कि शानी के कथा संसार में किरदारों की जो प्रमाणिकता हमें दिखाई देती है, वह उनके सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से ही है।

शानी के कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’, संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ की ‘रेको’, हो या फिर ‘जनाजा’, ‘युद्ध’ कहानी का ‘वसीम रिजवी’ ये किरदार पाठकों की याद में गर आज भी बसे हुए हैं, तो अपनी विश्वसनीयता की वजह से। शानी ने इन किरदारों को सिर्फ गढ़ा नहीं है, बल्कि किरदारों में जो तपिश दिखाई देती है, वह उनके तजुर्बे से मुमकिन हुई है। ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’ को तो कथाकार राजेन्द्र यादव ने हिंदी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक माना है। हिंदी में मुस्लिम बैकग्राउंड पर जो सर्वश्रेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें ज्यादातर शानी की हैं। ‘युद्ध’, ‘जनाजा’, ‘आईना’, ‘जली हुई रस्सी’, ‘नंगे’, ‘एक कमरे का घर’, ‘बीच के लोग’, ‘सीढ़ियां’, ‘चहल्लुम’, ‘छल’, ‘रहमत के फरिश्ते आएंगे’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘एक ठहरा हुआ दिन’, ‘एक काली लड़की’, ‘एक हमाम में सब नंगे’ वगैरह कहानियों में शानी ने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दुख-तकलीफों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्रणाओं और विसंगतियों को बड़ी ही खूबसूरती से दर्शाया है।

शानी की कहानियों में प्रमाणिकता और पर्यवेक्षित जीवन की अक्काशी है। लिहाजा ये कहानियां हिंदी साहित्य में अलग ही मुकाम रखती हैं। उन्होंने वही लिखा, जो देखा और भोगा। पूरी साफगोई, ईमानदारी और सच्चाई के साथ वह सब लिखा जो, अमूमन लोग कहना नहीं चाहते। भाषा इतनी सरल और सीधी कि लगता है, मानो लेखक खुद पाठकों से सीधा रु-ब-रु हो। कोई भी विषय हो, वे उसमें गहराई तक जाते थे और इस तरह विश्लेषित करते थे, जैसे कोई मनोवैज्ञानिक मन की गुत्थियों को परत-दर-परत उघाड़ रहा हो।

16 मई 1933 को बस्तर जैसे धुर आदिवासी अंचल के जगदलपुर में जन्मे शानी को बचपन से ही पढ़ने का बेहद शौक था। पाठ्यपुस्तकों की बजाय उनका मन साहित्य में ज्यादा रमता था। कहानी और उपन्यास पढ़ने का चस्का शानी को अपनी विरासत में मिला। उनके बाबा पढ़ने के शौकीन थे। बचपन में बाबा के लिए लाईब्रेरी से किताबें लाना और जमा करना शानी के जिम्मे था। किताबें लाने-ले जाने के सफर में, वे कब उनकी साथी हो गईं, शानी को मालूम ही नहीं चला। किताबों का ही नशा था, कि वे अपने स्कूली दिनों में बिना किसी प्रेरणा और सहयोग के एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने लगे थे।

बहरहाल बचपन का यह जुनून शानी की जिंदगी की किस्मत बन गया। शानी ने खुद इस बारे में एक जगह लिखा है,‘‘जो व्यक्ति सांस्कृतिक, साहित्यिक या किसी प्रकार की कला संबंधी परंपरा से शून्य बंजर सी धरती बस्तर में जन्मे, घोर असाहित्यिक घर और वातावरण में पले-बढ़े, बाहर का माहौल जिसे एक अरसे तक न छू पाए, एक दिन वह देखे कि साहित्य उसकी नियति बन गया है।’’

जवान होते ही शानी का साबका जिंदगी की कठोर सच्चाइयों से हुआ। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म और पढ़ाई पूरी नहीं करने के चलते, उनकी शुरूआती जिंदगी बेहद संघर्षमय गुजरी। जीवन के अस्तित्व के लिए उन्होंने कई नौकरियां बदलीं। मगर जिंदगी की कश्मकश के इस दौर में भी अदब से उनका नाता बरकरार रहा। शानी की अच्छी कहानियां और उपन्यास का जन्म प्रतिकूल हालात में हुआ। शानी का पहला कहानी संग्रह ‘बबूल की छांव’ साल 1956 में आया और महज साल साल के छोटे से अंतराल में उनकी सभी खास कृतियां साहित्यिक पटल पर आ चुकी थीं। कहानी संग्रह ‘डाली नहीं फूलती’-1959, ‘छोटे घेरे का विद्रोह’-1964, और उपन्यास ‘कस्तूरी’-1960, ‘पत्थरों में बंद आवाज’-1964, ‘काला जल’-1965 में आ कर धूम मचा चुके थे। यही नहीं उनका दिल को छू लेने वाला संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ भी इन्हीं गर्दिश के दिनों में लिखा गया। शानी की जिंदगी में जब स्थायित्व आया तो, कलम उनसे रूठ गई।

बाद में आईं उनकी कहानी और उपन्यास वह असर, वह ताप नहीं छोड़ सके, जो शुरुआती रचनाओं में था। इसकी बड़ी वजह, शानी का अपनी पुरानी रचनाओं को दोबारा पाठकों के सामने पेश करना था। उपन्यास ‘एक लड़की की डायरी’ उनके पहले उपन्यास ‘पत्थरों में बंद आवाज’ का पुनर्विन्यास है तो ‘सांप और सीढ़ी’, ‘कस्तूरी’ का पुनर्विन्यास। कहानी संग्रह ‘एक से मकानों का नगर’, ‘एक नाव के यात्री’ तथा ‘युद्ध’ में भी उन्होंने कई पुरानी कहानियों को दोबारा शामिल किया।

शानी के लेखन का जो शुरूआती दौर था, वह हिंदी साहित्य का काफी हंगामेदार दौर था। लघु पत्रिकाओं से शुरू हुआ, ‘नई कहानी’ आंदोलन उस वक्त अपने उरुज पर था। गोया कि शानी का शुमार भी ‘नई कहानी’ के रचनाकारों की जमात में होने लगा था। उनकी कहानियां ‘कल्पना’, ‘कहानी’, ‘कृति’, ‘सुप्रभात’, ‘ज्ञानोदय’, ‘वसुधा’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘धर्मयुग’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपकर मशहूर हो रही थीं। अनुभूति की गहराई और शैली की सरलता, बोधगम्यता और प्रवाह के लिए उनकी साहित्यिक हल्के में चर्चा होने लगी थी। शानी ने कहानी में काव्यमयी भाषा के साथ तीखे व्यंग्य को अपना मुख्य हथियार बनाया। अपने आस-पास के परिवेश और व्यक्तिगत अनुभव से वे जो ग्रहण कर रहे थे, उन्होंने उसे ही कहानी का विषय चुना। शानी की कहानियों में अनुभव की जो प्रमाणिकता, प्रवाह और समर्पण के साथ एक रचनात्मक आवेग दिखाई देता है, दरअसल, वह इसी वजह से है। सुप्रसिद्ध कथाकार उपेन्द्रनाथ अश्क ने शानी की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-‘‘शानी अपनी कहानियों के आधारभूत विचार, जीवन में गहरे डूब कर लाता है और उन्हें ऐसे सरल ढंग से अपनी कहानियों में रखता है कि, मालूम ही नहीं होता और बात हृदय में गहरे बैठ जाती है।’’

जिंदगी के जानिब शानी का नजरिया किताबी नहीं बल्कि अनुभवसिद्ध था। यही वजह है कि वे ‘युद्ध’, ‘जनाजा’, ‘बिरादरी’, ‘जगह दो रहमत के फरिश्ते आएंगे’, ‘हमाम में सब नंगे’, ‘जली हुई रस्सी’ जैसी दिलो-दिमाग को झिझोड़ देने वाली कहानियां और काला जल जैसा कालजयी उपन्यास हिंदी साहित्य को दे सके। शानी के कथा संसार में मुस्लिम समाज का प्रमाणिक चित्रण तो मिलता ही है, बल्कि हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर भी कई मर्मस्पर्शी कहानियां हैं, जो कि भुलाए नहीं भूलतीं। उनकी कहानी ‘युद्ध’ को तो आलोचकों ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों के सर्वाधिक प्रमाणित और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेजों में से एक माना है। समाज में बढ़ता विभाजन हमेशा उनकी अहम चिंताओं में एक रहा।

शानी खुद, अपनी वास्तविक जिंदगानी में भी इन सवालों से जूझे थे। लिहाजा उन्होंने कई कहानियों में अंतर साम्प्रदायिक संबंधों के नाजुक सवालों को बड़ी ईमानदारी और संजीदगी से उठाया है। कथानक और तटस्थ ट्रीटमेंट इन कहानियों को खास बनाता है। मसलन कहानी ‘युद्ध’ भय और विषाद के मिश्रित माहौल से शुरु होती है और आखिर में पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाती है। फिर कहानी का विलक्षण अंत भला कौन भूल सकता है ? शानी कहानी के अंत में किरदारों के मार्फत कुछ नहीं कहलाते और न ही अपनी ओर से कुछ कहते हैं। बस ! एक लाईन में कहानी बहुत कुछ बयान कर जाती है। इस लाईन पर गौर फरमाएं, ‘‘दालान में टंगे आईने पर बैठी एक गौरैया हमेशा की तरह अपनी परछाईं पर चोंच मार रही थी।’’

शानी की कहानियों के किरदार में जिस तरह की आग दिखाई देती है, वैसी आग हमें उर्दू में केवल सआदत हसन मंटो के अफसानों में ही देखने को मिलती है। शानी जज्बाती अफसानानिगार थे और उनके ये जाती जज्बात कहानी में जमकर नुमायां हुए हैं। विसंगतियों के प्रति उनका आक्रोश निजी जिंदगी में और लेखन में बराबर झलकता रहा। अपनी आत्मा के खिलाफ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। उनकी एक और बेहद चर्चित कहानी ‘जली हुई रस्सी’ में यही केन्द्रीय विचार है, जिसके इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है। इंसानियत और भाई-चारे को उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से आगे बढ़ाया।

‘बिरादरी’ कहानी में वे बड़ा मौजूं सवाल उठाते हैं, ‘‘बिरादरी केवल जात वालों की होती है ? इंसानियत की बिरादरी क्यों नहीं बन सकती ? और क्यों नहीं बननी चाहिए ?’’ शानी आदिवासी अंचल में पैदा हुए और उनका शुरुआती जीवन जगदलपुर में बीता लेकिन उन्होंने आंचलिक कहानियां सिर्फ पांच लिखीं। ‘चील’, ‘फांस’, ‘बोलने वाले जानवर’, ‘वर्षा की प्रतीक्षा’ और ‘मछलियां’ कहानियों में वे आदिवासी जीवन के अर्थाभाव, विषमताओं, पीड़ाओं को पूरी संवेदनशीलता से उकेरते हैं। आदिवासी लोक जीवन को देखने-महसूसने की दृष्टि उनकी खुद की अपनी है।

संस्मरण ‘शाल वनों के द्वीप’ शानी की बेमिसाल कृति है। हिंदी में यह अपने ढंग की बिल्कुल अलहदा और अकेली रचना है। इस रचना को पढ़ने में उपन्यास और रिपोर्ताज दोनों का मजा आता है। किताब की प्रस्तावना में शानी इसे न तो यात्रा वर्णन मानते हैं और न ही उपन्यास। बल्कि बड़ी विनम्रता से वे इसे कथात्मक विवरण मानते हैं। समाज विज्ञान और नृतत्वशास्त्र से अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने जिस तरह मनुष्यता की पीड़ा और उल्लास का शानदार चित्रण किया है, वह पाठकों को चमत्कृत करता है। हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन को इतनी समग्रता से शायद ही किसी ने इस तरह देखा हो। ‘शाल वनों का द्वीप’ यदि शानी की बेमिसाल रचना बन पाई, तो इसकी वजह भी है। शानी ने अमेरिकन नृतत्वशास्त्री एडवर्ड जे के साथ एक साल से ज्यादा अरसा अबुझमाड़ के बीहड़ जंगलों में आदिवासियों के बीच बिताया और आदिवासियों की जिंदगी को करीब से देखा। जिसका नतीजा, ‘शाल वनों का द्वीप’ है।

डॉ. एडवर्ड जे, जो खुद अमेरिका से भारत आदिवासी जीवन पद्धति का विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन करने आए थे, उन्होंने इस किताब की तारीफ में लिखा है, ‘‘शानी की यह रचना शायद उपन्यास नहीं, एक अत्यंत सूक्ष्म संवेदनायुक्त सृजनात्मक विवरण है। जो एक अर्थ में भले ही समाज विज्ञान न हो लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाज विज्ञान से आगे की रचना है। एक सृजनशील रचनाकार के रुप में घटनाओं तथा चरित्रों के निरुपण में शानी की स्वतंत्रता से मुझे ईष्या होती है। शानी द्वारा प्रस्तुत मानव जाति के एक भाग का यह अध्ययन, समस्त मानव जाति को समझने की दिशा में एक योगदान है।’’ ‘शाल वनों का द्वीप’ की इन तारीफों के बावजूद शानी मुतमईन नहीं थे। उनका मानना था कि, ‘‘आदिवासी जीवन पर वही प्रमाणिक लिखेगा, जो खुद उनके बीच से आएगा।’’

शानी के कथा साहित्य में प्रकृति का अनुपम चित्रण मिलता है। प्रकृति के माध्यम से वे मन के कई भावों को प्रकट करते हैं। कहानी ‘युद्ध’ में इसकी बानगी देखिए, ‘‘पाकिस्तान से युद्ध के दिन थे, हवा भारी थी। लोग डरे हुए और सचमुच नीम संजीदा। क्षणों की लंबाई कई गुना बढ़ गई थी। आतंक, असुरक्षा और बेचैनी से लंबा दिन वक्त से पहले निकलता और शाम के बहुत पहले यक-ब-यक डूब जाता था। फिर शाम होते ही रात गहरी हो जाती थी और लोग अपने घरों में पास-पास बैठकर भी घंटों चुप लगाए रहते थे।’’ जहां तक शानी की भाषा का सवाल है, उनकी भाषा सरल एवं सहज है। हिंदी में वे उर्दू-फारसी के अल्फाजों के इस्तेमाल से परहेज नहीं करते। स्वाभाविक रुप से जो शब्द आते हैं, उन्हें वे वैसा का वैसा रख देते हैं। हिंदी और उर्दू में वे कोई फर्क नहीं करते। इस मायने में देखें, तो उनकी भाषा हिंदी-उर्दू से इतर हिंदुस्तानी है। हिंदी, उर्दू के झगड़े, विवादों को वे गलत मानते थे। हिंदी-उर्दू भाषा के सवालों पर शानी का कहना था, ‘‘हिंदी-उर्दू में मुझे कोई ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। अलबत्ता, इसके कि यह दो विशिष्टताओं वाली भाषा हैं।

मैं यहां जाति की बात नहीं बल्कि दो विशिष्ट संस्कृति की बात करना चाहूंगा। इनकी पैदाइश निःसंदेह हिंदुस्तान है। एक स्याह हो सकती है और दूसरी सफेद, इन्हें भिन्न-भिन्न रंग दिए जा सकते हैं। आंखों में फर्क हो सकता है, कहने में फर्क को सकता है, लेकिन वे बहने हैं। वे इसी मिट्टी में उपजी हैं। यह बात जुदा है कि उनकी लिपि में फर्क है, उनके व्यवहार में भिन्न शेड्स हैं। प्रत्येक भाषा, प्रत्येक जनसमुदाय और प्रत्येक मानसिकता का एक अपना विन्यास होता है। इन दोनों भाषाओं में यह विन्यास मौजूद है, यह मेरी अपनी समझ है। लेकिन ये एक दूसरे के बहुत समीप हैं।’’

शानी ने कुल मिलाकर छह उपन्यास लिखे-‘कस्तूरी’, ‘पत्थरों में बंद आवाज’, ‘काला जल’, ‘नदी और सीपीयां’, ‘सांप और सीढ़िया’, ‘एक लड़की की डायरी’। इनमें ‘काला जल’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। हिंदी साहित्य में भारतीय मुस्लिम समाज और संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन तीन उपन्यासों का जिक्र अक्सर किया जाता है, ‘काला जल’ उनमें से एक है। इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों ने एक सुर में सराहा। शानी के जिगरी दोस्त आलोचक धनंजय वर्मा ने काला जल का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ‘‘काला जल हिंदी कथा परम्परा की व्यापक सामाजिक जागरूकता और यथार्थवादी चेतना की अगली और नई कड़ी के रुप में उल्लेखनीय है। वह अतीत-वर्तमान-भविष्य संबंधों का एक महा नाटक है। जिसका रंगमंच है-एक मध्यवर्गीय भारतीय मुस्लिम परिवार।

एक विशाल फलक पर यह सामाजिक यथार्थ का गहरी सूझ-बूझ और पारदर्शी अनुभूति के साथ मार्मिक अंकन है। पूरा उपन्यास आधुनिक भारतीय जीवन के विविध स्तरीय संघर्षों का चित्र है, जो अपनी घनीभूत और केन्द्रीय संवेदना में भारतीय जनता के आर्थिक और भौतिक संघर्ष का दस्तावेज है, जिसका कथा सूत्र समाज की तीन-तीन पीढ़ियों का दर्द समेटे है।’’ काला जल की व्यापक अपील और लोकप्रियता के चलते ही इस पर बाद में टेलीविजन धारावाहिक बना, जो उपन्यास की तरह ही काफी मकबूल हुआ। इस उपन्यास का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और रुसी भाषा में भी अनुवाद हुआ।

 शानी के कई कहानी संग्रह आए मसलन, ‘बबूल की छांव’, ‘एक से मकानों का घर’, ‘युद्ध’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘बिरादरी’, ‘सड़क पार करते हुए’, ‘जहांपनाह जंगल’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’। उनकी संपूर्ण कहानियां ‘सब एक जगह’ संग्रह में दो खंडो में संकलित हैं। ‘एक शहर में सपने बिकते हैं’ उनका निबंध संग्रह है। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि सदाबहार फिल्म ‘शौकीन’ के संवाद भी शानी के लिखे हुए हैं। शानी अपनी आत्मकथा भी लिखना चाहते थे, मगर वह अधूरी ही रह गई। अलबत्ता, आत्मकथा का एक हिस्सा मासिक पत्रिका ‘सारिका’ में ‘गर्दिश के दिन’ नाम से प्रकाशित हुआ। शानी ने कथा साहित्य के अलावा साहित्यिक पत्रकारिता भी की और यहां भी वे कामयाब रहे। ‘साक्षात्कार’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ पत्रिकाओं के वे संस्थापक संपादक थे।

अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘कहानी’ का भी उन्होंने संपादन किया। शानी जब तलक ‘साक्षात्कार’ में रहे, पत्रिका का नाम देश में चर्चित रहा। अपने संपादन में उन्होंने नए रचनाकारों को हमेशा तवज्जो दी। नए हों या पुराने सभी रचनाकारों से उनका सामंजस्य बहुत अच्छा था। साहित्य पत्रकारिता से होते हुए वे ‘मध्यप्रदेश साहित्य परिषद्’ के सचिव पद पर पहुंचे। साल 1972 से लेकर मार्च 1978 तक वे इस पद पर लगातार रहे। इस दौरान परिषद् में उन्होंने कई नवाचार किए। नई योजनाएं बनाई और उन्हें तत्परता से लागू किया।

 शानी की जिंदगी में साहित्य का मुकाम बहुत ऊंचा था। उन्होंने अपनी सारी जिंदगानी, हिंदी साहित्य के नाम कर दी, तो साहित्य ने भी उन्हें सब कुछ दिया। शानी की कई कहानियों का आकाशवाणी द्वारा नाट्य रुपांतरण किया गया। दिल्ली दूरदर्शन ने उन पर पैंतालीस मिनट का एक वृत्तचित्र बनाया। मध्यप्रदेश सरकार ने उनके साहित्यिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए, अपने सर्वोच्च सम्मान ‘शिखर सम्मान’ से नवाजा। शानी की कई कहानियां विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। 9 फरवरी, 1995 को शानी इस जहान से रुखसत हुए। शानी के मानी भले ही दुश्मन हों, लेकिन वे सही मायने में अवाम दोस्त लेखक थे। उनके संपूर्ण कथा साहित्य का पैगाम इंसानियत और मुहब्बत है। हिंदी कथा साहित्य में इंसानी जज्बात को पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से पेश करने के लिए शानी हमेशा याद किए जाएंगे।

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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