भारत का लोकतंत्र 2024 के आम चुनाव में दो चरण पार कर चुका है। अभी चुनाव के पांच चरण बाकी हैं। इस चुनाव में संविधान को बदलने और बचाने तथा लोकतंत्र के खतरे में होने की आवाज बहुत तेज है। इस बीच राजनीतिक व्यवहार की भाषा और मर्यादा पर आघात निरंतर जारी है। घायल आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) अपनी मरहम-पट्टी में व्यस्त है। जनता अपनी तीसरी आंख से सब देख रही है।
यह कभी नहीं भूलना चाहिए, चुनाव के समय तो बिल्कुल ही नहीं कि असल में भारत के भाग्य विधाता ‘हम भारत के लोग’ हैं, केवल हम में से कोई एक या कुछ लोगों का दल, दलों का गठबंधन या उद्दंड लोगों का ‘बेखौफ समूह’ नहीं। यह नैतिक माहौल में जितना सच है, ’आपराधिक’ माहौल में भी उतना ही सच है। इस आम चुनाव के प्रचार के तात्कालिक शोर के नीचे इतिहास की आधारशिलाओं में हलचल जारी है। इतिहास की आधारशिलाओं की हलचल में छिपी आज की पीड़ा को समझने की कोशिश जरूरी है।
भारत की संस्कृति की ‘ब्राह्मण-परंपरा’ और ‘बौद्ध-परंपरा’ के फर्क, संपर्क और संघर्ष को सम्मानपूर्वक समझना जरूरी है। मोटे तौर पर ‘ब्राह्मण-परंपरा’ का संबंध पुराणों और स्मृतियों आदि के आधार पर बनी वैदिकोत्तर ब्राह्मण-व्यवस्था से है। वर्तमान सत्ताधारी दल का हिंदुत्व ब्राह्मण-व्यवस्था पर आधारित है। ब्राह्मण-व्यवस्था की सामाजिक संरचना वर्ण-व्यवस्था को पोषित करती है। असल में बुद्ध विचार, ब्राह्मणवाद की समाज व्यवस्था और राज-सत्ता के प्रतिकूल पड़ता था। ब्राह्मण-व्यवस्था की वैचारिकी को ब्राह्मणवाद कहा जाता है, समाजिकी को वर्ण-व्यवस्था और राजनीति को ‘हिंदुत्व’ कहा जाता है।
ब्राह्मणवाद से बुद्ध विचार का संघर्ष प्रारंभ भारत की संस्कृति के आरंभिक काल से ही रहा है। हजारों साल बीत जाने के बावजूद यह संघर्ष आज तक जारी है। आगे इसे थोड़ा खोलकर समझने की कोशिश करेंगे। यहां इतना टांक रखना जरूरी है कि वर्तमान सत्ताधारी दल न सिर्फ ‘ब्राह्मण-परंपरा’ से खुद संचलित होता है बल्कि, राज्य और समाज व्यवस्था को भी उसी से संचालित करने पर आमादा दिखता है। दोहराव के जोखिम पर भी कहना जरूरी है कि ब्राह्मण-व्यवस्था की वैचारिकी को ब्राह्मणवाद और राजनीति को ‘हिंदुत्व की विचारधारा’ कहा जाता है। हिंदु जीवन की विचार व्यवस्था बहुमुखी है। हिंदु धर्म की भावधारा और विचारधारा भी बहुमुखी और सर्व-समावेशी है। सभी तरह की भावधारा और विचारधारा के लिए ‘हिंदु अंतःकरण’ में सम्मानजनक स्थान है।
हिंदुत्व की राजनीति सिर्फ ब्राह्मण-व्यवस्था के अनुकूल अर्थात, ब्राह्मणवाद की वर्ण-व्यवस्था के प्रति आग्रहशील रहती है, न सिर्फ आग्रहशील बल्कि आक्रामक रहती है। इस आग्रहशीलता और आक्रमकता को जड़ से समझने के लिए चर्चा की जरूरत है। यह जरूरत इसलिए है कि चुनावी हार के बावजूद आज का सत्ताधारी दल सामाजिक भूमि पर वर्ण-व्यवस्था की राजनीति के ‘विष-वृक्ष’ को सींचता रहे, यह आशंका निर्मूल नहीं है। विष-वृक्ष के विष-प्रभाव को कम करने और विपत्ति से बाहर निकलने में यह चर्चा और इस तरह की चर्चाएं कुछ-न-कुछ मददगार जरूर हो सकती है।
कहने का आशय यह है कि भारत की संस्कृति की ऐतिहासिक परंपरा पर विचार करनेवाला कोई भी गंभीर और जेनुइन व्यक्ति आज ब्राह्मण-व्यवस्था और बुद्ध विचार के टकरावों के विभिन्न प्रभावों की बढ़ती हुई उग्रता और चीखती हुई विपन्नता की अनदेखी नहीं कर सकता है। क्योंकि ब्राह्मण-व्यवस्था और बुद्ध विचार के टकरावों की ध्वनि-प्रतिध्वनि की अनुगूंजें हजार सालों से ‘हिंदु अंतःकरण’ को मथती चली आ रही है।
बहुत पीछे अभी न जायें तो भी कहा जा सकता है कि भारत में संविधान के लागू होने के बाद ब्राह्मणवाद की ब्राह्मण-व्यवस्था नेपथ्य में चली गई थी। इसे थोड़ा और खोलना जरूरी है। संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधानों के प्रभावों के अलावा वैश्विक परिस्थिति, खासकर सोवियत की उपस्थिति और राष्ट्रीय परिधि में वामपंथ की चौकस राजनीति की सक्रियता से बनी ‘आबोहवा’ के चलते ब्राह्मणवाद राजनीतिक नेपथ्य में चला गया।
हालांकि ध्यान में होना चाहिए कि जब संविधान बनाये जाने की प्रक्रिया शुरू हो रही थी, सामाजिक क्षेत्र से एक ध्वनि उस प्रक्रिया के विरोध में इस तर्क के साथ आ रही थी कि इस देश में किसी ‘नये संविधान’ की क्या जरूरत! हमारे पास पारंपरिक व्यवस्था पहले से ही मौजूद है! भारत सरकार अधिनियम, 1935 के प्रभाव में होने के कारण इसे औपनिवेशिक भी बताया गया था। यह एक तथ्य है कि हिंदुत्व के समर्थकों की तरह, महात्मा गांधी की भी संविधान के मसौदा तैयार कोई रुचि नहीं थी, दोनों के रुचि न लेने के कारण अलग थे।
ध्यान देने की बात है कि राष्ट्रीय स्तर पर भारत के संविधान का प्रभाव और सोवियत की ‘आबोहवा’ का सकारात्मक असर राजनीतिक प्रक्षेत्र और प्रक्रिया तक ही सीमित रहा। यहां डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की एक चेतावनी को सहसा याद किया जा सकता है। उन्होंने कहा था कि सामाजिक लोकतंत्र के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र का सफल होना मुश्किल है।
कई बार हम समझ भी नहीं पाते हैं कि यह हमारे साथ हो क्या रहा है! ‘दो कदम’ आगे बढ़कर ‘एक कदम’ पीछे हटना आगे बढ़ना है, लेकिन ‘एक कदम’ आगे बढ़कर ‘दो कदम’ पीछे हटना ‘पीछे लौटना’ ही होता है। इतना ही नहीं, आगे बढ़ने की हर कोशिश हमें पीछे लौटा देती है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने भारत की संस्कृति के इतिहास के संदर्भ में गंभीरता से ध्यान दिलाया था कि ‘भारतीय इतिहास और कुछ नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म एवं ब्राह्मणवाद के बीच संघर्ष है’।
ब्राह्मणवाद की मुख्य चिंता के केंद्र में न ‘इहलोक’ होता है और न ‘मनुष्य’। ब्राह्मणवाद की मुख्य चिंता के केंद्र में ईश्वर होता है। दुनिया ‘माया का मोहक वन’ है। ब्रह्म-विचार दुनिया को माया और स्वर्ग को यथार्थ और वास्तविक रूप में निरूपित है! इस दुनिया में वास्तविक आनंद के लिए कोई जगह नहीं है। ब्रह्म-विचार के अनुसार जीवन में आनंद की कोई गुंजाइश नहीं है। आनंद के लिए एक ही उपाय है, दुनिया में रहकर भी दुनिया में न रहो, निर्लिप्त रहो।
दुनिया तो पिछले कर्मों के ‘फल’ भोगने की जगह है। जीवन तो दुख भोगने और मोक्ष प्राप्ति में लगे रहने के लिए समर्पित होना चाहिए! किस कर्म का फल! एक ओर मनुष्य को कर्म का ‘निमित्त’ मात्र बताया जाता है, दूसरी ओर कर्मों का ‘फल’ भोगने की बात कही जाती है! सवाल उठना चाहिए कि ‘निमित्त’ क्यों ‘फल’ भोगे! वह भी पिछले जन्मों के कर्मों का ‘फल’। अपार-दर्शियों ने धर्म के प्रांगण में अद्भुत ढंग से बनाई अ-पारदर्शी ‘न्याय व्यवस्था’! पिछले जन्म के कर्मों की याद नहीं तो कोई बात नहीं! हर हाल में भरोसा रखो, ईश्वर को सब याद है। जो ईश्वर को याद है वह पुरोहित को पता है।
पुरोहित को पता है इसलिए ब्रह्म-विचार और ब्राह्मण-व्यवस्था के अंतर्गत वर्ण-व्यवस्था के प्रावधान हैं! वर्ण-व्यवस्था का विरोध ब्राह्मण-व्यवस्था और ब्रह्म-विचार का विरोध मोक्ष प्राप्ति में बाधक है। ब्रह्म-विचार के मुताबिक कुल मिलाकर यह है कि वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत रहना और सब को रखना ‘धर्म’ है।
वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत सब को रखना ईश्वरीय आदेश के मुताबिक ईश्वर के प्रतिनिधि राजा का मुख्य कर्तव्य है। राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है, वह ईश्वर के प्रति जवाबदेह है। राजा जनप्रतिनिधि नहीं होता है। इसलिए राजा जन के प्रति जवाबदेह भी नहीं होता है! राजा के ईश्वर प्रतिनिधि होने पर संदेह को शांत करने के लिए जनता को जनार्दन और दरिद्र को नारायण बताने का ब्रह्म-ज्ञान सक्रिय होता है!
‘मोक्षार्थियों’ के लिए सारे कर्म ईश्वर को सौंपना जरूरी है, कर्म भी और कर्म-फल भी! सौंपने का उपाय वर्ण-व्यवस्था में बने रहने में है, क्योंकि सभी ‘महाजन’ इसी वर्ण-व्यवस्था में बने रहकर मोक्ष प्राप्त करते रहे हैं। अर्थात, कर्म-फल का लेन-देन ईश्वर के साथ चलता है।
कर्म-फल का ‘लेन-देन’ दुरुस्त रहे इसलिए वर्ण-व्यवस्था की हर तरह से रक्षा राजा का मुख्य कर्तव्य हो गया था। वर्ण-व्यवस्था को आंतरिक संकट से जूझना पड़ता था। छोटी-बड़ी चुनौती मिलती ही रहती थी। वर्ण-व्यवस्था में बिखराव के कारक को ‘कलि’ और काल को ‘कलियुग’ कहा गया। हल्के से गौर करने पर भी यह साफ-साफ पता लग सकता है कि मनुष्य का मनुष्य के द्वारा शोषण और अन्याय का विरोध ही ‘कलि’ और ‘कलियुग’ कहलाता है। द्वापर हो या त्रेता, मनुष्य के प्रति अन्याय और शोषण हर युग में होता रहा है। इसलिए हर युग में ‘कलियुग’ भी रहा है। अर्थात शोषण का विरोध भी हर युग में होता रहा है। जाहिर है, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि अन्याय और शोषण पर जीवित राज-सत्ता क्यों अन्याय और शोषण के विरोध के प्रति हमेशा युद्धोन्माद बनाये रखती थी।
‘कलि’ के प्रभाव में ‘धर्म की ग्लानि’ होती रहती थी, ‘धर्म’ अर्थात ‘वर्ण-आश्रम धर्म’ की ‘पुनर्स्थापना’ के लिए ईश्वर अपने प्रतिनिधि यानी राजा के भरोसे न रहकर हर युग में आते रहते थे, माने ‘संभावामि युगे-युगे’! संविधान के लागू रहते ‘संभावामि युगे-युगे’ की संभावना क्षीण हो गई! फिर भी ‘सज्जनों की पीड़ा’ हरने, उन्हें ‘दलागत’ करने के लिए प्रभु लोकतंत्र के ‘उदित गिरि’ के मंच पर प्रकट हुए। कहते हैं कि भक्ति ही काफी नहीं है, ‘चार सौ के पार’ जाना है। ‘चार सौ के पार’ अर्थात संविधान के पार! ‘चार बांस, चौबीस गज, आठ अंगुल’ पर निशाना लग गया तो बस पार! यह सब क्या इतना आसान होगा!
यह संघर्ष तो कब से जारी है। “अर्थशास्त्र” के लेखक कौटिल्य हों या “रिपब्लिक” के लेखक प्लेटो हों, समय के हिसाब से बहुत दूर नहीं थे। मनुष्य पर वर्चस्व विचार के संदर्भ में उन में कोई मतभिन्नता नहीं दिखती है। वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति के संदर्भ में जिस तरह के झूठ और मनगढ़ंत सिद्धांतकी तैयार की गई थी, उसी तरह से प्लेटो ने भी प्रचारित किया था कि ईश्वर ने दार्शनिकों में सोना, योद्धाओं में चाँदी, तथा किसानों और कारीगरों में पीतल और लोहा रखा। एक फर्क भी है।
वर्ण-व्यवस्था के पक्ष में झूठ और मनगढ़ंत सिद्धांतकी के लिए ‘धर्म शास्त्र’ का सहारा लिया गया था। जबकि प्लेटो ने ‘दर्शन शास्त्र’ का दामन थांभा था। शास्त्र और शस्त्र में सिर्फ ध्वनि साम्य नहीं है, प्रयोग साम्य भी है। जहां शास्त्र से कम न चले वहां शस्त्र का प्रयोग करने में कोई दुविधा नहीं, कोई धर्म-संकोच नहीं! शास्त्र के शस्त्रीकरण या आयुधीकरण से कोई परहेज नहीं, बिल्कुल नहीं; मनुष्य के द्वारा मनुष्य के प्रति अन्याय और शोषण सत्ता-शास्त्र-शस्त्र सब एक! अन्याय और शोषण से मुक्ति का एक ही रास्ता है, अहिंसा का रास्ता! दार्शनिक प्लेटो के “दर्शन” की ‘सोना-चांदी-लोहा’ युक्ति टूट गई। लेकिन वर्ण-व्यवस्था की सिद्धांतकी के “धर्म” का यह पक्ष अभी भी जारी है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने ठीक ही कहा था कि “चातुर्वर्ण्य सिद्धांत” मानव प्रकृति के प्रतिकूल है। वह चल नहीं सकता। दुखद है मगर सच है कि मानव प्रकृति और भारत के संविधान के प्रतिकूल होने के बावजूद “चातुर्वर्ण्य सिद्धांत” समाज में आज भी जिंदा है। न सिर्फ समाज में सजीव है। अब जोर-शोर से “चातुर्वर्ण्य सिद्धांत” को विधि सम्मत बनाने की ‘हां-ना-हां’ की खुली मंशा रखने वाले राजनीतिक नेताओं का दल लोकतांत्रिक पद्धति की चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से प्राप्त बहुमत के बल पर अधिष्ठित और सुशोभित है।
भारत की बहुआयामी और समावेशी संस्कृति में विचार कभी सामाजिक टकराव का कारण उस तरह से नहीं बना था। असल में ब्राह्मणवाद और बुद्ध विचार में जो संघर्ष आज तक जारी है, उस के भी मूल में विचारों की उतनी टकराहट नहीं है, जितनी टकराहट वर्ण-व्यवस्था आधारित समाज व्यवस्था को लेकर है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के अध्ययनों का एक निष्कर्ष यह है कि शंकराचार्य ने दार्शनिक स्तर पर जाकर जब हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना की तब समाज का बहुत बड़ा तबका ‘सत्ता, शक्ति और आतंक’ के कारण बौद्ध “धम्म” से हिंदू धर्म में लौट आया। कुछ लोग धम्म छोड़कर नहीं आये। इस तरह ‘सत्ता, शक्ति और आतंक’ के बावजूद जिन लोगों ने धम्म नहीं छोड़ा उन्हें अंततः तिरस्कृत कर अस्पृश्य बना दिया गया। हजारों साल पहले के षड़यंत्र को दुहराना क्या संभव है? इस संविधान और लोकतंत्र के रहते तो नहीं।
ब्राह्मण-व्यवस्था नेपथ्य के रास्ते से धर्म और संस्कृति की एकांगी समझ के साथ समाज में निरंतर सक्रिय बनी रही। राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल कर कल्याणकारी डिठौने के बल पर लोक-कल्याण की उम्मीद करना महंगा पड़ गया। हमारी लोकतांत्रिक राजनीति राज-सत्ता पर अधिकार जमाने के खेल में लगी रही। समाज पर पड़ रहे सांस्कृतिक दुष्प्रभाव की चिंता से सहज मुक्त रही। भारत की दलीय राजनीति सत्ता परिवर्तन के लिए जितनी तन्मयता से लगी रही, उस का सौवां क्या शायद हजारवां हिस्सा भी समाज परिवर्तन के लिए नहीं लगी।
समाज परिवर्तन के लिए ‘रोजगार में आरक्षण’ के भरोसे रह जाना बहुत खतरनाक साबित हुआ। निजीकरण के इस युग में ‘रोजगार में आरक्षण’ का तब तक कोई मतलब नहीं हो सकता है जब तक कि निजी क्षेत्र में भी इसके लागू होने का रास्ता नहीं मिलता है। रास्ता तब मिलेगा जब ‘निजी’ और ‘सार्वजनिक’ के प्रति नजरिये की समाज सापेक्षता का संदर्भ और संवेदनशीलता की सकारात्मकता बनी रहे। जिस के बनी रहने की उम्मीद कर रहे वह तो है ही नहीं, जो नहीं उसके बने रहने की उम्मीद का क्या मतलब! मतलब क्या पता आज नहीं तो कल हो ही जाये!
विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता की राजनीति के साथ सामाजिक न्याय के लिए सावधान समझ और तत्परता से सक्रिय होते दिख रहे हैं। 2024 के आम चुनाव में राज-सत्ता के लिए चुनावी संघर्ष में संविधान और लोकतंत्र को बदलने और बचाने के चुनावी शोर के बीच गहरे सांस्कृतिक अर्थ में “चातुर्वर्ण्य सिद्धांत” के प्रति भिन्न नजरियों को भी पढ़ा जाना चाहिए।
सत्ता परिवर्तन होता है तो माना जना चाहिए कि भारत के लोकतंत्र का नया युग शुरू होगा। नया युग का आशय क्या है! साफ-साफ शब्दों में नया युग का आशय विषमतामूलक “चातुर्वर्ण्य” व्यवस्था के अन्याय और शोषण के खिलाफ संविधान की समतामूलक लोकतांत्रिक शक्ति के सामाजिक संघर्ष के नया युग से है। यह संघर्ष पीछे छूट गया था! ‘सत्तर साल’ बाद जो लौटता है वह पुराना होकर भी कुछ-न-कुछ तो नया होता ही है! मतदाताओं और सभी हितधारकों को इस चुनाव में सचेत रहना चाहिए। यह आम चुनाव होकर भी ‘आम’ नहीं है, ‘भारत के भाग्य और भविष्य’ को तय करनेवाला चुनाव है; आम नहीं ‘भारत के भाग्य और भविष्य’ को तय करनेवाला खास चुनाव है!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)