एक ओर दशकों से झारखंड में आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष को समर्पित, पार्किन्सन समेत बढ़ती उम्र से जुड़ी अशक्तता के मारे स्टेन स्वामी और दूसरी ओर उनकी मौत के लिए उत्तरदायी राजनीति, पुलिस, जेल और अदालत की भूमिका! कॉर्पोरेट व्यवस्था का रावण अपनी पूरी ताब में और कानून की शासन व्यवस्था का राम मृग मारीचिका के चंगुल में! आज, स्तब्ध सभ्य समाज में इस अमानवीय समीकरण की प्रशासनिक/भावुक आयामी आलोचना की जैसे स्वाभाविक बाढ़ आ गयी है। हालाँकि, स्वयं स्टेन के सामाजिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में, इस विमर्श को लोकतान्त्रिक आयामों के मानदंड पर प्रमुखता से परखना कहीं अधिक तार्किक होगा।
भीमा कोरेगांव षड्यंत्र मामले में 16वें गिरफ्तार आरोपी 84 वर्षीय स्टेन स्वामी की 6 जुलाई को जमानत की राह ताकते मौत हो गयी थी। उन्हें जनवरी 2018 हिंसा के इस कुख्यात मामले से जोड़ने के फोरेंसिक साक्ष्य स्वयं संदेह के घेरे में हैं और लगभग तीन वर्ष बाद एनआईए के हाथों हुयी उनकी गिरफ्तारी भी कानूनी कम और राजनीतिक अधिक लगती है। जेल जीवन की निर्ममता से अपने तेज बिगड़ते गए स्वास्थ्य के चलते वे अदालती आदेश से कुछ समय से अस्पताल में थे। अक्तूबर 2020 में बेल-बाधित यूएपीए प्रावधानों में जेल भेजे जाने के बाद उनकी नियमित बेल तो बार-बार अस्वीकार की ही गयी, यहाँ तक कि मेडिकल बेल की याचिका पर भी मुंबई हाईकोर्ट में तारीख के बाद तारीख ही लग रही थी।
आइये इस रावण के वे दस सिर चिह्नित करें जो स्टेन जैसे एक समर्पित मानवाधिकार संत की सार्वजनिक हत्या जैसी मानवता को शर्मसार करने वाली मौत को संभव करने के निमित्त बने हैं।
1. न्याय क्षेत्र में प्रायः एक मुहावरा उद्धृत किया जाता है- कानून की नजर में सब बराबर हैं। राजनीति, पुलिस, अदालत और जेल मिलकर कानून बनता है और कौन नहीं जानता कि इस कानून की नजर में सब बराबर नहीं होते।
2. न्याय क्षेत्र में एक और मुहावरा भी उद्धृत होता है- इंसाफ के घर देर है अंधेर नहीं। लेकिन यह, दरअसल, न्याय को नहीं अन्याय को प्रतिष्ठित करने का मुहावरा है। सच्चाई किसी से छिपी नहीं कि देर ही अंधेर है। जो भी, चाहे वह साहसी-स्वतंत्र न्यायपालिका का कायल मौजूदा सीजेआई पीवी रमना ही क्यों न हों, यदि इस देर के साथ सामंजस्य में है तो अंधेर को ही बढ़ा रहा है।
3. स्टेन जैसा बर्बर शिखर एक दिन में, एक साल में, एक दशक में या एक शासन में नहीं जीता गया है। बड़े-बड़े लिबरल नाम जो तल्ख सच आज स्टेन के सन्दर्भ में कह रहे हैं, कोई भी जो देखना चाहे, कहीं भी देश भर में देख सकता है कि राजनीति, पुलिस, जेल और अदालत के मिलान से बना कानून आम जन के साथ रोज यही तो कर रहा है। मीडिया, हर मीडिया, ‘न्यूज़ वैल्यू’ के हिसाब से ही इन प्रकरणों को जगह देती है, और बहुधा जगह देने लायक नहीं पाती।
4. स्टेन प्रसंग के वर्तमान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विस्फोट में एलीट बुद्धिजीवी रूमानियत के मतलब की उनकी आदिवासी मसीहा छवि और ग्लोबल मानवाधिकार राजनीति के निहित स्वार्थ का भी खासा योगदान है। सभी को जब-तब ‘शहीद’ चाहिए। अन्यथा इस जांबाज की हिरासत में मौत की बर्बरता भी उसी तरह गुमनामी के अँधेरे में खो गयी होती जैसे देश भर में अधिकांश एक्टिविस्ट के साथ पुलिस मनमानी, अदालती संवेदनहीनता और जेल प्रताड़ना के अनलिखे अध्याय सामने नहीं आते।
5. स्टेन अपने द्वारा उठाये गए आदिवासी समाज के मुद्दों को लेकर उनके बीच में जागरूकता और प्रबोधन अभियान चलाने के साथ प्रशासनिक और अदालती दरवाजा ही खटखटाते रहते थे। संघी-भाजपाई कपट राजनीति ने इन्हीं रास्तों को उनकी यंत्रणा भरी मौत का रास्ता बना दिया। कांग्रेस की यूपीए कालीन कार्पोरेटपरस्ती की राजनीति भी आदिवासियों को लेकर भिन्न नहीं थी। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बजाय लेफ्ट एक्सट्रीमिज्म का राजनीतिक समाधान ढूँढने के अपने गृहमंत्री चिदंबरम को उसके पुलिस समाधान में लगा दिया था। चिदंबरम ने ही यूएपीए जैसे जंगल के कानून की जकड़न बढ़ाने और ऑपरेशन ग्रीन हंट जैसे आत्मघाती कदम उठाने शुरू किये जिन पर नरेंद्र मोदी सरकार के गृह मंत्री अमित शाह साम्प्रदायिक-राष्ट्रवादी बुलडोजर चलाते हुए बढ़ रहे हैं।
6. यह देखना दिलचस्प होगा कि आज जो हजारों लेख और लाखों सन्देश स्टेन के समर्थन में गूँज रहे हैं, उनमें से कितने उन आदिवासी मुद्दों की प्रासंगिकता को उसी नजरिये से रेखांकित कर रहे हैं जिससे स्टेन करते थे। दरअसल, कार्पोरेट संचालित मीडिया और एलीट बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने स्टेन समर्थन के क्रम में स्टेन को उनके मुद्दों से अलग कर एक स्वतंत्र हीरो के आसन पर बैठा दिया है।
7. पूरे भीमा कोरेगांव षड्यंत्र केस पर अमित शाह की प्रशासनिक छाप देखी जा सकती है। अन्यथा पहले महाराष्ट्र पुलिस और बाद में महाराष्ट्र में भाजपा सरकार के न रहने पर केन्द्रीय एजेंसी एनआईए के इतने व्यापक दुरुपयोग की नौबत नहीं आ पाती। स्वतंत्र अमेरिकी फोरेंसिक लैब, आर्सेनल की जांच ने खुलासा किया है कि स्टेन के कुछ सह-आरोपियों के कंप्यूटर में झूठे मेल डालकर साक्ष्य गढ़ी गयी है। यानी देर-सबेर अदालती कार्यवाही में सच सामने आएगा ही।
8. लेकिन अमित शाह जैसा एक विशुद्ध राजनीतिक व्यक्ति इस तरह की साक्ष्य गढ़ने और उसे आरोपियों के कम्प्यूटरों में डालने जैसा फोरेंसिक ऑपरेशन स्वयं नहीं कर सकता। जाहिर है इसमें कोई बेहद विश्वासपात्र सिद्धहस्त व्यक्ति भी शामिल मिलेगा जो महाराष्ट्र पुलिस और एनआईए को भी निर्देश दे सकने की हैसियत में हो। जबकि अनुमान है कि इस ऑपरेशन में इजराइली एजेंसी का सहयोग लिया गया है।
9. स्टेन त्रासदी पर सम्बंधित सत्ता राजनीति, पुलिस, अदालत, जेल व्यवस्थाओं की ओर से प्रायश्चित तो दूर सामान्य संवेदना का भी एक शब्द नहीं आया है। यानी यह एक ऐसा निर्मम संघर्ष है जिसे स्टेन समर्थकों को जीतना ही होगा, अन्यथा वे भी इसी रास्ते पर टेस्ट किये जायेंगे।
10.अगली बार जब कोई आपसे स्टेन जैसी अमानवीय जेल प्रताड़ना को फासीवादियों का षड्यंत्र बताये तो कृपया यह पता लगाना मत भूलियेगा कि सम्बंधित राज्य में किस पार्टी की सरकार है। क्योंकि जाँच एजेंसी किसी भी राजनीतिक दल के नियंत्रण में काम कर रही हो, जेल प्रशासन पर राज्य सरकार का नियंत्रण होता है। वह अपने जेल संचालन के मानवीय नियम बनाने को स्वतंत्र है।
(विकास नारायण राय हैदराबाद पुलिस एकादमी के निदेशक रह चुके हैं।)