कुछ दिनों पहले जब पार्ले, अमूल, मारुति सुजुकी और फ्यूचर ग्रुप के चार काॅरपोरेट अधिशासियों ने घृणा और वैमनस्य का जहर उगलने वाले टेलिविजन चैनलों के साथ अपने-अपने विज्ञापन-शर्तों की समीक्षा करने का ऐलान किया, तब हमें काफी सुकून मिला और तब जब आभूषण बनाने वाली टाटा ग्रुप की ब्रांड कंपनी तनिष्क ने ‘एकत्वम’ नाम से गहने-जेवरों की नई सीरीज के लिए एक विज्ञापन निकाला, तब हम फिर आह्लादित हुए और ठीक इसके बाद जब इस कंपनी ने कट्टर हिंदूवादी गिराहों के कुत्सित अभियान के सामने घुटने टेकते हुए इस विज्ञापन को वापस ले लिया, तब हम फिर निराश हो गए और कहने लगे कि टाटा झुक गया।
आखिर क्यों हम इतनी जल्दी-जल्दी सुकून, आह्लाद और मायूसी महसूस करने लगते हैं? क्या हम उम्मीद करते हैं कि राहुल बजाज, किरण मजूमदार शाॅ, अजय पीरामल और चौहान ब्रदर्स जैसे लोग मोदी-शाह की विध्वंसकारी अर्थनीति और जहरीली सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ एक नया मोर्चा खड़ा कर देंगे और सरकार तथा उसकी चीयरलीडर मोदी मीडिया की नकेल कस देंगे? क्यों हम भूल जाते हैं रतन टाटा की उस सार्वजनिक प्रशस्ति को जहां वे कहते हैं कि ‘‘मोदी जी और शाह जी में राष्ट्र को ऊंचाई पर पहुंचाने की बड़ी दृष्टि है और टाटा ग्रुप इन दोनों को सलाम करता है’’? क्यों हमारी भाव-प्रवणता हमें मोदी-शाह सल्तनत, काॅरपोरेट घरानों और मीडिया मालिकों के खतरनाक गठजोड़ की बारीकियों को समझने से रोकती है?
आइए, कुछ अहम तथ्यों पर गौर करें…
साल 2014 में देश के टीवी चैनल विज्ञापनों से 138.4 अरब रुपये का राजस्व प्राप्त करते थे। पिछले साल यह बढ़कर 250 अरब हो गया और इस साल के अंत तक यह 300 अरब के पार जायेगा। विशेषज्ञ बताते हैं कि साल 2024 तक यह 455 अरब के करीब होगा।
कहां से आते हैं इतने अरबों रुपये?
साल 2019 के पिच-मैडिसन एडवरटाइजिंग रिपोर्ट के मुताबिक टेलिविजन चैनलों को विज्ञापन देने वाले शीर्ष दस काॅरपोरेट समूह हैं: हिंदुस्तान यूनीलिवर, अमेजाॅन इंडिया, ड्रीम 11 फैंटेसी, रिलायंस इंडस्ट्रीज, मारुति सुजुकी इंडिया, प्राॅक्टर एंड गैम्बल, वीवो मोबाइल इंडिया, सैमसंग इंडिया, ओप्पो इंडिया और वीनी प्रोडक्ट्स लिमिटेड। इन शीर्ष दस काॅरपोरेट समूहों के अलावा फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी), टेलिकाॅम और ई-काॅमर्स सेक्टरों की सैकड़ों ऐसी कंपनियां हैं जो टीवी चैनलों को विज्ञापन देती हैं।
क्या किसी ने अब तक इन शीर्ष दस काॅरपोरेट समूहों तथा सैंकड़ों कंपनियों के मालिकों और मैनेजरों की एक भी ऐसी आवाज सुनी जिससे मोदी-शाह सल्तनत की जहरीली राजनीति की आलोचना की ध्वनि तक आती हो? सच तो यह है कि ये सारे काॅरपोरेट्स मोदी-शाह निजाम के पक्ष में मजबूती से खड़े हैं। आज जब हम संघ-भाजपा संचालित ऑनलाइन वर्ल्ड के गुंडों के सामने टाटा के झुक जाने की बात कर रहे हैं, तब हमें एक बार फिर याद करना चाहिए कि कुछ साल पहले किस तरह मोदी-शाह निजाम के फरमान पर ई-काॅमर्स कंपनी स्नैपडील ने अपने बेहद प्रभावी ब्रांड एम्बेसडर आमिर खान को बॉय-बॉय कर दिया था।
हिंदुस्तान के अरबपति और मोदी-शाह के प्रति उनका प्रचंड प्रेम
आज पूरी दुनिया में 2095 अरबपति हैं। हालांकि इनमें लगभग आधे अमेरिका (614) और चीन (389) के हैं। जर्मनी तीसरे स्थान पर 107 अरबपतियों के साथ है और इसके बेहद करीब भारत हैं जहां 102 अरबपति हैं। यह सच है कि अरबपति, चाहे वे जहां के भी हों, अपनी-अपनी पूंजी और धन-संपदा के संरक्षण, प्रसार और विस्तार के लिए जायज और नाजायज-दोनों ही तरीके अपनाते हैं, मगर यह भी एक बड़ा सच है कि यह हिंदुस्तान ही है जहां के अरबपति, दो-चार अपवादों को छोड़कर, बेहद ही शर्मनाक वर्ग-चरित्र रखते हैं। अगर थोड़ी देर के लिए अजीम प्रेमजी और शिव नडार जैसे अरबपतियों को छोड़ दिया जाए, तब हकीकत तो यही है कि लगभग सभी हिंदुस्तानी अरबपति संविधान, कानून और न्याय के उसूलों के प्रति घोर धिक्कार का भाव और अहंकारी-अत्याचारी मोदी-शाह निजाम के प्रति प्रचंड प्रेम रखते हैं।
पार्ले, अमूल और फ्यूचर ग्रुप नक्कारखाने में तूती की आवाज
अब सोचिए कि अगर पार्ले, अमूल और फ्यूचर ग्रुप जैसे दस-बीस समूह घोर सांप्रदायिक और बर्बर अधिनायकवादी मोदी-शाह के मेगाफोन रिपब्लिक टीवी, इंडिया टीवी, ज़ी न्यूज़ और न्यूज़ नेशन को विज्ञापन न भी दें, तो इन चैनलों का क्या बिगड़ेगा? यह भी सोचिए कि क्या अमूल ब्रांड का स्वामित्व रखने वाले गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन में अब यह साहस रह गया है कि वह आरएसएस-भाजपा की जहरीली राजनीति के खिलाफ मुकम्मल तौर पर बोल सके? यह फेडरेशन तो आज़ादी के ठीक दो साल बाद अस्तित्व में आए एक महान सहकारिता आंदोलन के स्वप्नों में पलीते लगा चुका है।
1949 से 1990 तक आरएसएस-हिंदू महासभा-जनसंघ-भाजपा के चंगुल से मुक्त रहने वाला यह फेडरेशन आज पूरी तरह संघ-भाजपा की गिरफ्त में है। वर्तमान में अमूल ब्रांड के जो 18 मिल्क यूनियन हैं, उन सब पर भाजपा के नेताओं का कब्जा है। इन अधिकांश भाजपाइयों पर अपहरण, फिरौती और बलात्कार के केस दर्ज हैं। 2002 के गुजरात जनसंहार के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए दंगाइयों में एक जेथा पटेल भी था जो अमूल प्रबंधन का चेयरमैन था।
मूल सवाल इस या उस काॅरपोरेट संग हसीन ख्वाबों की वादियों में घूमने का नहीं, अर्थनीति-राजनीति और मीडिया के काॅरपोरेटीकरण के खिलाफ जनांदोलन खड़ा करने का है।
अगर हम-आप इस या उस काॅरपोरेट संग हसीन ख्वाबों की वादियों में घूमने के शौकीन हैं, तो क्या कहना! शशि थरूर की तरह हम-आप वहां घूम सकते हैं और फिरकापरस्ती के ‘फ्री-रेडिकल्स’ को नष्ट करने के लिए इंसाफ, अमन-चैन, इश्क-मोहब्बत और जम्हूरियत का ‘टाॅनिक’ ले सकते हैं, मगर इससे न तो मोदी-शाह की जहरीली राजनीति को कोई नुकसान पहुंचेगा और न ही उन चैनलों पर कोई असर पड़ेगा जो सत्ता-प्रतिष्ठान के बेशर्म दामाद बने हुए हैं। आज मूल सवाल अर्थनीति, राजनीति और मीडिया के काॅरपोरेटीकरण के परिणामस्वरूप बढ़ रहे बेकारी-बेरोजगारी, धर्मांधता-कट्टरवाद और दमन-अत्याचार-बलात्कार-राजकीय हिंसा के खिलाफ देश के कोने-कोने में संगठित होने और जनांदोलन खड़ा करने का है।
(रंजीत अभिज्ञान सामाजिक कार्यकर्ता हैं। और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)