जिस चलन से दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं एकांगी होती चली गई हैं, आखिरकार उसके खतरों से अब भारत सरकार में अर्थव्यवस्था को संभालने वाले ऊंचे अधिकारियों के कान भी खड़े हुए हैं।
भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन की ताजा चेतावनी इसी बात का संकेत है। नागेश्वरन ने भारत के “वित्तीयकरण के जाल” में फंसने की आशंका जताई है। (CII Financing 3.0 Summit | Anantha Nageswaran: Long-Term Investment Crucial For Sustained Growth – BT TV BusinessToday)
उन्होंने अर्थव्यवस्था के असंतुलित वित्तीयकरण में निहित खतरों को लेकर देश को आगाह किया है। उनकी इन बातों पर ध्यान दीजिएः
‘जब (वित्तीय) बाजार का आकार सकल अर्थव्यवस्था से बड़ा हो जाता है, तब यह स्वाभाविक है कि (वित्तीय) बाजार के हित और उसकी प्राथमिकताएं सार्वजनिक विमर्श पर हावी हो जाती हैं। यहां मैं उस वित्तीयकरण (financialization) की परिघटना का जिक्र कर रहा हूं, जिसमें नीति एवं आर्थिक लाभों पर वित्तीय बाजार का वर्चस्व बन जाता है।’
भारत में ऐसा हो चुका है। इस संबंध में नागेश्वरन ने बताया कि भारतीय शेयर बाजार में हुए कुल निवेश का पूंजीगत मूल्य जीडीपी के 140 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। तो खुद जाहिर है कि हमारी अर्थव्यवस्था क्या रूप ले चुकी है।
नागेश्वरन ने कहा कि वित्तीय क्षेत्र में हो रहे रिकॉर्ड मुनाफे से एक ऐसी परिघटना सामने आई है, जिस पर कड़ी नजर रखनी होगी। इस परिघटना के तहत क्या हुआ है, इसकी चर्चा भी मुख्य आर्थिक सलाहकार ने की है। उनके मुताबिक,
- सार्वजनिक एवं निजी ऋण अभूतपूर्व ऊंचे स्तर पर पहुंच गए हैं- जिसमें से कुछ ऋण विनियामकों को मालूम हैं और कुछ नहीं।
- वित्तीय परिसंपत्तियों की मूल्य वृद्धि पर आर्थिक वृद्धि का निर्भर हो जाती है और उसके परिणामस्वरूप आर्थिक गैर-बराबरी में भारी बढ़ोतरी होती है। भारत में ऐसा हो जाने के स्पष्ट संकेत हैं।
ये सब वित्तीय वर्चस्व वाली अर्थव्यवस्था के परिणाम हैं।
नागेश्वरन ने आगाह किया कि भारत को इसके परिणामों से बचने का प्रयास करना चाहिए। (India’s growth prospects bright, but must avoid financialization, says CEA V Anantha Nageswaran – The Economic Times (indiatimes.com)) उनकी दो और बातें महत्त्वपूर्ण हैः
- ‘भारत 2047 की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। इसलिए उसे वित्तीयकरण के जाल में फंसने से बचना होगा। इसलिए कि वित्तीयकरण के क्या परिणाम होते हैं, यह विकसित देशों में अब खुल कर देखने को मिल रहा है।’
- ‘विकसित देशों के सामने ये चुनौती तब आई है, जब वे भौतिक रूप से समृद्ध हो चुके हैं। जबकि भारत ने निम्न मध्यम आय वाला देश बनने की तरफ अभी बढ़ना शुरू ही किया है।’
- देश को राष्ट्रीय उद्देश्यों एवं निवेशकों की प्राथमिकताओं के बीच संतुलन बनाना होगा।’
अर्थव्यवस्था को जानने-समझने वाला हर व्यक्ति नागेश्वरन की इन बातों से सहमत होगा। लेकिन मुद्दा यह है कि रास्ता क्या है? मुख्य आर्थिक सलाहकार ने जिस प्रवृत्ति को लेकर आगाह किया है, उससे निकलने का रास्ता बताना भी उनका और उनके सहकर्मी अधिकारियों का ही दायित्व है?
जिन स्थितियों की चर्चा मुख्य आर्थिक सलाहकार ने की है, वहां देश को ले जाने की जिम्मेदारी आखिर सरकारों पर ही है। इस मुकाम तक हम पिछले साढ़े तीन दशक में अपनाई गई नीतियों की वजह से पहुंचे हैं। बड़ा प्रश्न यह है कि क्या नागश्वेरन जिस सरकार से जुड़े हैं, उसमें ये दिशा बदलने का बौद्धिक साहस और माद्दा मौजूद है?
नागेश्वरन ने उचित ही इस बात का जिक्र किया कि अर्थव्यवस्था के उत्तरोत्तर वित्तीयकरण के दुष्परिणाम विकसित देश भी झेल रहे हैं। कारण यह है कि उन्हीं देशों ने ये आर्थिक मॉडल सबसे पहले अपनाया और फिर इसे पूरी दुनिया पर थोपा। उन देशों का सरदार अमेरिका है, जहां मेनस्ट्रीट बनाम वॉल स्ट्रीट का अंतर्विरोध हाल के वर्षों में बढ़ता ही चला गया है।
वैसे नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपना चुका कोई ऐसा देश नहीं है, जहां इस अंतर्विरोध के दुष्प्रभाव आज जाहिरा तौर पर मौजूद ना हों।
वॉल स्ट्रीट अमेरिका का शेयर बाजार है। या इसे ऐसे कहा जाए कि वह वित्तीय अर्थव्यवस्था का केंद्र है। मेनस्ट्रीट का मतलब वास्तविक अर्थव्यवस्था से है। ये अर्थव्यवस्था उपभोग, मांग, निवेश, उत्पादन, और वितरण की सामान्य गतिविधियों से चलती है। इन गतिविधियों के बीच एक निकट रिश्ता होता है। इसीलिए इनमें से किसी एक के कमजोर होने का असर पूरी अर्थव्यवस्था पर महसूस होता है।
वॉल स्ट्रीट यानी शेयर बाजार की शुरुआत इसी अर्थव्यवस्था के सहायक के तौर पर हुई थी। मकसद था, इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक लोगों को भागीदार बनाना, ताकि निवेश के लिए अधिक पूंजी जुटाई जा सके।
अलग-अलग देशों में वॉल स्ट्रीट के संस्करण अलग नामों से हैं। इसीलिए हम भारत में हम चाहें तो इस अंतर्विरोध को मेनस्ट्रीट बनाम दलाल स्ट्रीट का नाम दे सकते हैं। दलाल स्ट्रीट वो पथ है, जहां मुंबई का शेयर बाजार स्थित है।
दलाल स्ट्रीट आज चमक रहा है। सेंसेक्स 80 हजार से ऊपर चल रहा है। जाहिर है, जिन लोगों ने शेयरों में धन लगाया है, उनकी तिजोरी भर रही है। लेकिन ऐसा अनायास नहीं हुआ है। दलाल स्ट्रीट को चमकाने के लिए सरकारों ने नीतिगत कदम उठाए। मसलन,
- पहले बचत को हतोत्साहित कर उपभोग बढ़ाने के लिए लोगों को प्रेरित किया गया। उपभोक्ता वस्तुएं खरीदने के लिए ब्याज दरें घटाई गईं, ताकि लोग ऋण लेकर भी ऐसी खरीदारियां करें। इससे कंपनियों का मुनाफा बढ़ा, तो उनके शेयरों के भाव भी बढ़े।
- जब इसके आगे उपभोक्ता बाजार का विस्तार संभव नहीं रह गया, तब सीधे लोगों को शेयर बाजारों में निवेश करने के लिए प्रेरित किया गया। वहां की चमक देख लोग अपनी तमाम बचत या ऋण लेकर भी सीधे या म्युचुअल फंड्स के जरिए निवेश करने लगे।
- ये आंकड़ा खुद नागेश्वरन ने दिया है कि 2022-23 में डिमैट खातों (जिनके जरिए शेयर बाजार में निवेश होता है) की संख्या 11 करोड़ 45 लाख थी, जो उसके अगले वित्त वर्ष में 15 करोड़ 40 लाख तक पहुंच गई। यानी एक वर्ष में शेयरों में निवेश करने वाले लोगों की संख्या लगभग चार करोड़ बढ़ी।
- शेयरों से हुआ मुनाफा अक्सर बॉन्ड एवं ऋण बाजार में लगाया जाता है, जिससे वहां निवेशकों का धंधा चमकता है, जबकि कर्जदारों की मुश्किलें बढ़ती जाती हैं।
- इन सारे रुझानों का असर आम जन की आमदनी और उपभोग घटने और मांग में गिरावट के रूप में देखने को मिलता है। मांग घटने पर कंपनियां निवेश नहीं बढ़ातीं, जिससे रोजगार के अवसर घटते हैं। इस तरह मेनस्ट्रीट की अर्थव्यवस्था एक दुश्चक्र में फंस जाती है।
इस परिघटना का क्या परिणाम हुआ है, उसकी एक छोटी झलक इसी हफ्ते ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) नाम की संस्था की एक रिपोर्ट में देखने को मिली। इसके मुताबिक इस वर्ष के पहले छह महीनों में चीन के साथ भारत के व्यापार घाटे में और बढ़ोतरी हुई है। लेकिन ये हेडलाइन पूरी कहानी नहीं बताती।
जीटीआरआई की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि अभी जो परिस्थितियां हैं, उनके रहते चीन से व्यापार घाटा कम होने की कोई गुंजाइश नहीं है। जीटीआरआई ने भारत के विदेश व्यापार का बारीक विश्लेषण पेश किया है। उसने कहा है कि चीन से हो रहे आयात से भारत के सूक्ष्म, लघु एव मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) को भारी क्षति पहुंच रही है।
यह तथ्य आहत करने वाला है कि भारत छातों, खिलौनों, कुछ प्रकार के वस्त्रों, संगीत उपकरणों आदि के लिए भी चीन पर आश्रित है। इन वस्तुओं की कुल खपत में आधे से ज्यादा हिस्सा चीनी आयात का है। तो सवाल वाजिब है कि फिर भारतीय छोटे उद्यम कैसे आगे बढ़ेंगे? (Imports of goods like umbrellas, musical items from China hurting Indian MSMEs: GTRI – The Economic Times (indiatimes.com))
जीटीआरआई ने कहा है- ‘चीनी उत्पाद इतने सस्ते हैं कि भारतीय एमएसएमई के लिए उनसे प्रतिस्पर्धा करना कठिन हो जाता है। उन्हें अपने को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।’
ये तथ्य सचमुच बेतुका लगता है कि भारत में उपयोग होने वाले 95.8 फीसदी छातों और 92 प्रतिशत कृत्रिम फूलों की आपूर्ति चीन करता है। ये तमाम वो उत्पाद हैं, जिन्हें बनाने के लिए ना तो ज्यादा पूंजी की जरूरत है और ना ही उसमें किसी खास तकनीक या कौशल की जरूरत पड़ती है। इन क्षेत्रों में भारतीय उद्यम नहीं फूले-फलेंगे, तो फिर हाई टेक क्षेत्रों में भारतीय उद्यमी क्या कर पाएंगे?
भारत के पूर्व नौकरशाहों के थिंक टैंक जीटीआरआई ने कहा है कि भारत को मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में गहरा निवेश करना चाहिए, ताकि चीन पर देश की यह निर्भरता घटाई जा सके। लेकिन यह कोई नया सुझाव नहीं है। मुद्दा यह है कि जब देश के सारे संसाधन वित्तीय बाजारों में जा रहे हैं, तो मेनस्ट्रीट कैसे फल-फूल सकता है?
चीन पर भारत की बढ़ी निर्भरता का एक और नतीजा यह हुआ है कि अमेरिका जैसे देशों में अब यह चर्चा शुरू गई है कि क्या चीन से व्यापार संबंध घटाने की अपनी रणनीति में भारत से ऊंची उम्मीदें जोड़ कर उन्होंने गलती की? (Indian reliance on Chinese imports is challenge for U.S. trade strategy – The Washington Post)
तो कहा जा सकता है कि नागेश्वरन ने बीमारी की सही शिनाख्त की है। लेकिन यह बताना भी सरकार का दायित्व है कि समाधान क्या है और क्या वह इस दिशा में कोई पहल करने का इरादा रखती है?
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)