बैटरी की महिमा से हरियाणा का चुनाव परिणाम बेपटरी हो गया

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अभी जम्मू-कश्मीर, खासकर हरियाणा विधानसभा के विस्मयकारी चुनावी प्रक्रिया और अचंभित करनेवाले परिणाम पर चर्चा का दौर चल ही रहा है। क्या हुआ, कैसे हुआ। इस बीच महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओं के चुनावों के साथ-साथ विभिन्न राज्यों में खाली सीटों पर भी उप-चुनावों की घोषणा केंद्रीय चुनाव आयोग ने कर दी है।

मिल्कीपुर विधानसभा के लिए चुनाव की घोषणा नहीं हुई है। कुछ तकनीकी कारण तो है ही इस के राजनीतिक कारण भी अबूझ नहीं हैं। खैर, लोगों को तो उम्मीद यह थी कि जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और विभिन्न राज्यों में उप-चुनाव एक साथ करवा लिये जायेंगे। उस समय ऐसा नहीं हुआ।

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओं के लिए चुनाव की तारीखों की घोषणा की प्रतीक्षा लोगों को थी। उम्मीद थी, सो घोषणा हो गई। इस घोषणा से हरियाणा चुनाव के परिणाम और प्रक्रिया पर हो रही चर्चा में स्वाभाविक रूप से विराम लग जायेगा।

लगना भी चाहिए। अब महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओं के चुनाव परिणाम के लिए राजनीति की बैटरी पर सब की नजर है।

पता नहीं सच है या नहीं! कहने वाले कह रहे हैं, बैटरी की महिमा से हरियाणा का चुनाव परिणाम बेपटरी हो गया। वैसे इस मामले में केंद्रीय चुनाव आयोग ने साफ-साफ कह दिया है कि लोग तो कहते ही रहते हैं, कहते रहेंगे! वे अपना काम करते रहेंगे, बस और क्या!

उन्होंने ‘पुण्डरीकाक्षं’ का स्मरण करते हुए कह दिया, “अपवित्रः पवित्रो वा”! ‘सब कुछ’ पवित्र है! अब धुआंधार प्रचार का शुरू किया जायेगा, चुनावी संघर्ष का समान अवसर (Level Playing Field)‎ आयोग की चिंता का विषय है। देखा जाये आगे क्या और क्या-क्या दिखता है।

चुनावी राजनीति राज्य-सत्ता के शिखर पर पहुंचानेवाले लोकतंत्र की सीढ़ी की पहला पायदान है, आखिरी नहीं! पहली पायदान तो ठीक, सवाल अगले पायदानों का है!

कुछ लोगों का कहना है कि लोकतंत्र की सब से बुरी बात यही है कि इस में सवाल करनेवाले बहुत होते हैं। उनका मानना है कि लोकतंत्र की अपनी बेहतरी के लिए सूचना प्राप्त करने के अधिकार पर और अधिक लगाम कसने की जरूरत है!

यह विडंबना ही है कि ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ के आंगन में राजनीति का मतलब चुनावी राजनीति होकर रह गया है। राजनीति और लोकतांत्रिक मूल्यों के संबंध-विच्छेद पर विवेक-संगत विमर्श में, न तो राजनीतिक नेताओं की कोई रुचि बची हुई है और न राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों की ही कोई रुचि बची है।

एंकरों और प्रवक्ताओं की तो बात ही क्या की जाये। चुनाव-दर-चुनाव भटकनेवाली राजनीति और उसके विमर्श अंततः लोकतंत्र को भटकानेवाली ही साबित होती है। चुनावी लोकतंत्र से सीमित राजनीति से किसी भी अर्थ में जन-हित को सुनिश्चित करनेवाले कल्याणकारी राज्य की भूमिका निभाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

चुनावी राजनीति की ‘लोक-लुभावन’ घोषणा में झिल-मिलाती लाभार्थी योजना में दूर-दूर तक लोक-कल्याण की कोई संभावना नहीं होती है। लाभार्थी योजना और कल्याणकरी योजना में फर्क होता है।

मोटे तौर पर सरकार की लाभार्थी योजनाएं अधिकार की तरह से नहीं, कृपा की तरह से नागरिकों को राहत-रियायत देती है। नागरिकों को ‘प्रजा’ बनाकर सरकार की कृपा पर निर्भर बनाती है, आत्म-निर्भर तो बिल्कुल ही नहीं बनाती है।

आदमी इस हालत में आदमी नहीं होता है ‘किसी का आदमी’ बन जाता है। जो किसी का आदमी हो जाता है, वह फिर आदमी कहां रह पाता है!

कल्याणकारी योजनाएं लोगों को उपार्जन सक्षम बनने में मददगार हो कर आत्म-निर्भर बनने का रास्ता खोलती है। आत्म-निर्भर आदमी न सिर्फ नागरिक अधिकार की बात करता है बल्कि अपने आत्म-निर्णय के अधिकार की सीमा भी बढ़ाता चलता है।

बस! यही तो मंजूर नहीं। लगभग नौ दशक पहले ‘गोदान’ में प्रेमचंद के रायसाहब ने मेहता से अपने पिता के बारे में कहा था, ‘प्रजा को पालना उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दांत भी फोड़ कर देना न चाहते थे।’

पता नहीं इसे किस प्रकार से जीवन की विभिन्न कक्षाओं में समझा-समझाया गया है, लेकिन ‘आजादी और लोकतंत्र के अमृत-काल’ में भी ‘अधिकार’ का यही सनातन सच है!

वैसे अब राजनीति का एपीसोड बदल रहा है। अपराध के राजनीतिकरण, फिर राजनीति के अपराधीकरण के दौर के बाद अब ‘राजनीतिक रण’ में अपराध के सरकारीकरण का दौर चल रहा है।

आगे क्या हमारे लोकतंत्र को सरकार के अपराधीकरण के दौर के सामने खड़ा कर दिया जायेगा! क्या पता! भविष्य जीवन की किस शर्त के साथ हमारा इंतजार कर रहा है! कुछ भी कहना मुश्किल है। ऐसे सवाल प्रिय नहीं होते हैं, मगर होते हैं।

बढ़ाकर नहीं कहा जाना चाहिए लेकिन यह सच है कि जिस तरह से आपराधिक घटनाएं हो रही है नागरिक समूह की चिंता बढ़ रही है। ताकत किसी की भी असीमित नहीं होती है, न शेर की और न सवा-शेर की। समाज में शेर और सवा-शेर का कोहराम मचा रहता है। यह कोई अचरज की बात नहीं है।

अचरज की बात यह जरूर है कि समाज के कोहराम से सरकारें अप्रभावित दिखती हैं। संदेह नहीं, अब विश्वास पुख्ता होने लगा है कि सरकारों की दिलचस्पी कोहराम को समाप्त करने कि नहीं बल्कि कोहराम के राजनीतिक इस्तेमाल में होती है।

हांका की आवाज से डराकर पशुओं को एक तरफ ले जाकर शिकार करना आसान होता है। क्या कोहराम मचाकर समाज में हांका लगाया जाता है!

डर और डर से बचाव की अंतर्निहित भावना एक ऐसा सांस्कृतिक औजार है, जिसे सफल राजनीतिक औजार बना लिया गया है। जितने धार्मिक और सांस्कृतिक आख्यान ध्यान में हैं उनमें आशंका और आश्वासन, यानी डर और डर से बचाव का अद्भुत ताल-मेल दिखता है।

धार्मिक और सांस्कृतिक आख्यानों के अंत में बुराई की हार और अच्छाई की जीत होती हुई दिखाई जाती है।

इस दिखाई गई बात को अनुयायी लोग आसानी से मान लेते हैं और आस्था के आनंद में मग्न रहते हैं। जो लोग धार्मिक आख्यानों में वर्णित बुराई पर अच्छाई की अनिवार्य जीत के उपदेश को नहीं मान पाते हैं, धीरे-धीरे उनकी आस्था की दृढ़ता कमजोर पड़ने लगती है।

ऐसे लोग भी धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़कर सुदृढ़ मन से भाग लेना जारी रखते हैं।

इस तरह के धार्मिक आयोजनों में धर्म का सामाजिक अवसर बना रहता है। समाज में रहनेवाला आदमी सामाजिक अवसरों की उपेक्षा नहीं कर सकता है। इस तरह से पूजा में मजा का प्रवेश होता जाता है; आस्थाहीन आनंद। डर और डर से बचाव के धार्मिक आख्यानों से बनी मानसिकता का इस्तेमाल राजनीतिक औजार, कभी-कभी हथियार के रूप में भी होता रहा है।

धर्म के आधार पर निर्मित स्थाई सामाजिक-समूह का चुनावी राजनीति में इस्तेमाल करनेवालों के लिए स्थाई समर्थक का जुगाड़ संभव हो जाता है।

आम लोगों का नागरिक अनुभव यही बताता है कि समाज में अच्छाई निरंतर घायल और चोटिल होती रहती है। घायल के घाव तो दिख जाते हैं, चोटिल की चोट नहीं दिखती है। सभ्य और बेहतर सामाजिक और नागरिक जीवन मनुष्य का जन्म-प्राप्त हक है।

अधिकतर लोगों के लिए यह हक आकाश कुसुम बनकर रह गया है। कारण! कुछ कारण तो संसाधनों का अभाव और ‘बहुत कुछ’ शासन की मनमर्जी। मनमर्जी शासन का नतीजा बेकाबू प्रशासन, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलनेवाला सामाजिक उथल-पुथल का दौर शुरू हो जाता है।

ऐसी परिस्थिति में या तो व्यवस्था के क्रांतिकारी पुनर्गठन का दौर शुरू होता है या फिर ‘सब कुछ’ के बरबाद होने का दौर शुरू होता है।

क्रांतिकारी पुनर्गठन के लिए संगठित प्रयास की जरूरत होती है। संगठित प्रयास के लिए प्रशिक्षित एवं अनुशासित सांगठनिक शक्ति, यानी क्रांतिकारी राजनीतिक दल की आवश्यकता होती है। क्रांति में समर्पित बलिदानियों की जबरदस्त भूमिका का साक्षी दुनिया का इतिहास है।

दुनिया का इतिहास तो इस बात का भी साक्षी है कि किस प्रकार से क्रांति के कुछ ही दिन बाद क्रांतिकारियों की सर्वोच्च भवानाओं का तिरस्कार और असम्मान होना शुरु हो जाता है। किस प्रकार से क्रांतिकारी परिवर्तन के कुछ दिन बाद व्यवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसी वह क्रांति के पहले थी। न्याय का सवाल विक्रम-बेताल का कभी न समाप्त होनेवाला किस्सा बनकर रह जाता है।

भारत के आजादी के आंदोलन के दौरान असंख्य बलिदानियों की आकाश-गंगा की तरफ ताकने से यह पता लगते देर नहीं लगेगी कि किस प्रकार से आकाश-गंगा के चारों ओर समय की दुर्भावनाओं का धुआं जम गया है।

इस धुएं की आग के स्रोत और सामग्री की खोज नागरिक समाज को करनी चाहिए। बलिदानियों की आकाश-गंगा को घेरे में लेनेवाला धुआं किस के द्वारा लगाई गई आग से निकल रहा है? कम-से-कम इस पर सोचना जरूर चाहिए।

जिस विचारधारा में प्रशिक्षित लोगों ने आजादी के आंदोलन के अप्रतिम नायक महात्मा गांधी का खून कर दिया, वे ही कांग्रेस के द्वारा आजादी के आंदोलन के अन्य नेताओं के कथित रूप से किये गये मान-अपमान के नाम पर अपनी सत्ता की राजनीति को चमकाने के फेर में लगे रहते हैं।

आजादी के आंदोलन के दौरान अर्जित मूल्य-बोध को कांग्रेस ने शासन की संवैधानिक शैली बनाई। उस शैली को शासन की सीढ़ी बनाकर जनादेश तो हासिल किया जा सकता है, लेकिन ‘हाथ में लगे खून’ को धोया नहीं जा सकता है!

यह सहमिलानी और सहिष्णु भारत की विलक्षण मानसिक शक्ति की खासियत है कि जिसे भारत माफ नहीं करता है, उस के प्रति भी किसी तरह की दुर्भावनाओं को भारत बढ़ावा नहीं देता है।

नफरत की राजनीति करनेवाले हिंदू-मुसलमान करते-करते सामाजिक अन्याय, असह्य आर्थिक अवहेलना, शोषण और सरकारी संस्थाओं के मनमाने इस्तेमाल के साथ-साथ अब खुले आम दहाड़ते हुए संगठित अपराध को बढ़ावा देने के खतरनाक रास्ते पर सरपट दौड़ने की तैयारी में लग गये हैं।

छिपने-छिपाने की ‘कोई बात’ नहीं। अब वे अपने राजनीतिक दुस्साहस को दिखाने और आजमाने का दौर शुरू करने पर आमादा हैं। दिल-दिमाग खोलकर, व्याकरण हमें ठीक-ठीक समझाता है कि ‘प्रधान’ और ‘प्रमुख’ में कोई तात्विक फर्क नहीं होता है, न है। तो, आगे क्या है! आगे है विवेक और मताधिकार!

‘प्रमुख’ जी ने खुले दिल-दिमाग से साफ-साफ संदेश-संकेत कर दिया है; पुलिस का इंतजार न करें, पुलिस देर से आती है, आती रहेगी। आशय यह कि जो काम पुलिस नहीं कर सकती है, खुद करें!

खुले दिल-दिमाग से कही गई ऐसी साफ-साफ बात से भी अगर किसी की आंख-कान और तर्जनी सही-सही काम न करे, तो फिर? फिर तो, फरियाद का कोई मतलब नहीं बचता है। फरीद का भी कोई मतलब नहीं रह जाता है! न फरियाद, न फरीद!

आगे भारत के आम लोगों और सभी राजनीतिक दलों को आग और पानी की पहचान करनी है। कहने में कोई संकोच नहीं है कि राजनीतिक दल राजनीतिक संदेश-संकेत पकड़ने में नाकाम रहे हैं, अधिकतर बार जान-बूझकर नाकाम रहे हैं। न सिर्फ नाकाम रहे हैं, बल्कि राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीतिक लापरवाही से देश को ना-उम्मीद भी किया है।

जब ‘तोप के मुकाबिल’ निकलनेवाले अखबार की पहुंच आंख-कान तक नहीं रह जाती है, तब हाथ में हथियार थंभाने का काम आसान हो जाता है। घोषित इमरजेंसी में जो काम मीडिया ने जबरिया किया, वही काम अघोषित इमरजेंसी में नजरिया से हो रहा है। सच पूछा जाये तो ‘जबरिया’ पर ‘नजरिया’ बहुत भारी है!

नजर के बदल जाने पर ‘नजरिया’ के बदलते क्या देर लगती है! जोरावर के राज में जो भी होता है ‘जबरिया’ ही होता है, ऐसा ही मान लिया जाना चाहिए।

पूरी दुनिया उथल-पुथल के दौर में है। जोरावरों की मनमर्जी से आम लोगों की जिंदगी तहस-नहस होने की स्थिति में पहुंच गई है।

यह सच है कि दुनिया शांति का सरोवर कभी नहीं रही है। सच यह भी है कि सरोकारहीनता के ताप से जीवन का पानी इतना उत्तप्त भी कभी नहीं था। बहुत उबाल है! ऐसे में विवेक! जी हां, ऐसे में ही विवेक! विवेक और मताधिकार! यही समझदारी है और रास्ता भी।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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