दिल्ली विधानसभा का चुनाव राजनीतिक रूप से गर्म हो गया है। संख्या के लिहाज से नहीं लेकिन प्रभाव के लिहाज से इस चुनाव के नतीजे का भारत की राजनीति पर गहरा असर पड़ेगा। पिछले दस साल से दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी की अपराजेय बढ़त बनी हुई है।
जेल और तरह-तरह के खेल-खतरों के बावजूद आम आदमी पार्टी के नेताओं की उम्मीदों में कोई कमी नहीं है। इन दिनों आम आदमी पार्टी भले ही इंडिया गठबंधन का घटक दल बना हुआ है, लेकिन उसके नेताओं में कांग्रेस को चुनावी क्षति और भारतीय जनता पार्टी को पहुंचने की कोई चिंता नहीं होती है।
कांग्रेस को बाहर कर इंडिया गठबंधन को सक्रिय करने के अपने मंसूबों को प्रकट करने में उसे कोई झिझक नहीं होती है। इधर तृणमूल कांग्रेस की ‘सुप्रीमो’ ममता बनर्जी भी इंडिया गठबंधन में शामिल तो है लेकिन अपने ‘इरादों’ के साथ!
कहा जा सकता है कि इंडिया गठबंधन में रहते हुए इन के मन में भी कहीं-न-कहीं कांग्रेस मुक्त राजनीति का इरादा है, जो छिपता भी नहीं है, दिखता भी नहीं है! इंडिया गठबंधन के लगभग सभी घटक दलों ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव में आम आदमी पार्टी का समर्थन कर दिया है।
कायदे से जब इंडिया गठबंधन के दो घटक दल आमने-सामने हों तो अन्य घटक दलों को मीडिया में न जाकर अपना समर्थन सहेजकर रखना चाहिए। जिन राज्यों में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी आमने-सामने थी और तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने चुनाव लड़ने के अपने अधिकार का इस्तेमाल किया तब तो किसी दल ने यह कहने की जरूरत नहीं महसूस की कि वह किस के साथ है।
कुछ भी कहना मुश्किल है कि इंडिया गठबंधन के घटक दलों का कांग्रेस के प्रति रवैया क्या और कैसा है। वे इंडिया गठबंधन को गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा यानी तीसरा मोर्चा बनाना चाहते हैं तो उन्हें अपना नाम कुछ भिन्न रख लेना चाहिए।
कांग्रेस को बेदखल कर इंडिया गठबंधन को हथियाना चाहते हैं तो गंभीरता से इसके राजनीतिक नतीजे पर भी उन्हें सोच लेना चाहिए। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राज्यसभा नेता प्रतिपक्ष भी इस राजनीतिक स्थिति से अवगत हैं, अवगत तो लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी भी हैं।
वे अवगत हैं, तैयार हैं कि अगर संविधान और न्याय के सम्मान और भावनाओं, बुद्धिमत्ता की लड़ाई अकेले ही लड़ना पड़े तो लड़ेंगे।
अकेले यानी अन्य राजनीतिक पार्टियों का साथ और समर्थन न मिले तब भी! लेकिन संविधान और न्याय की सुरक्षा की लड़ाई में सही सोच के नागरिकों के साथ और समर्थन का उन्हें भरोसा है।
सही सोच के नागरिकों का सही सोच के जन-प्रतिनिधि का समर्थन लोकतंत्र का प्राण है; कहना न होगा कि भरोसाहीनता के इस दौर में भी भरोसे को बचाना मौलिक कर्तव्य है।
एक बार उस राजनीतिक वातावरण को भी याद कर लेना प्रासंगिक होगा। उस दौर में, भारत बोध तर्कहीन आक्रमकता और राजनीतिक उत्पीड़न से त्राहि-त्राहि कर उठा। स्वाभाविक रूप से न्याय-बोध के विविध स्वरूप सामने आने लगे।
न्याय भारत के सर्वजन की चिंता का नये सिरे से मूल विषय बन गया। न्याय सभ्यता का मूल-प्रसंग है। मनुष्य अभाव से उतना परेशान नहीं होता है जितना परेशान वह अन्याय से होता है।
भारतीय जनता पार्टी को ‘अकेले दम’ पूर्ण बहुमत का जनादेश मिलते ही राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और उस के संगी-साथी में ‘शक्ति’ का जबरदस्त संक्रामक असर हो गया। इस संक्रामक असर को संकल्प जैसा पवित्र नाम दे दिया गया।
नई-नई हासिल ताकत ने उन्माद और उत्तेजना का ऐसा राजनीतिक वातावरण बना दिया कि वर्चस्व की प्रवृत्ति और हर चीज, हर निकाय को कब्जियाने के इरादों को जैसे पंख ही लग गये।
पिछले सौ-साल के सपने को सामने पाकर धीरज का हर बंधन तड़तड़ाता हुआ टूट गया। भारत के हर मूल्य-बोध को तोड़मरोड़ देने पर आमादा शासक-समूह की ‘शक्ति के समक्ष समर्पण की सहूलियत’ के सामने लोगबाग लाचार हो गये।
हिंदुत्व की राजनीति के स्थाई बहुमत के जुगाड़ के भ्रामक भरोसे ने ऐसा कमाल दिखाया कि शासक-समूह के नेताओं और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संविधान तक की कोई परवाह नहीं रही। हर तरफ नफरती माहौल और डर का वातावरण बन गया।
कानून निर्दोष लोगों के बचाव के आश्वासन से अधिक निर्दोष लोगों के खिलाफ शासक-समूह के हाथ में भयानक हथियार बन गया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अपना फैसला कानून के संदर्भ से करने के बदले प्रार्थना से प्राप्त निर्देश पर लिखे जाने लग गये। ऐसी परिस्थितियां कि ‘हम भारत के लोग’ हक्का-बक्का!
इस डर और नफरत के माहौल में एक आवाज सुनाई दी, ‘डरो मत’। देश की यह आवाज राहुल गांधी के कंठ से निकलकर रोशनी का शहतीर बन गई। ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने भारत के लोगों के मन को डर के भार से हल्का करना शुरू कर दिया।
शुरुआत में कई ’लोगों’ को लगा कि यह यात्रा कहीं-न-कहीं बिखर जायेगी। लेकिन यह यात्रा राजनीतिक स्फूर्ति के साथ सफल हुई! किसने सफल की! बेशक श्रेय राहुल गांधी का है!
जरा ध्यान से देखा जाये तो लगेगा कि इस ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में जो जन-समुद्र उमड़ा उसकी सम्मिलित शक्ति ने राहुल गांधी की यात्रा को सफल बनाया।
यह कम बड़ी बात है कि किसी के बढ़कर हाथ भी न मिलाने के इस दौर में यात्रा-पथ के लोगों ने खुली बांहों से राहुल गांधी का स्वागत किया और कदम-से-कदम मिला कर साथ दिया! लोगों ने अपने मन के मेले में मुहब्बत की दुकान सजा ली। न लैला-मजनू, न शीरीं-फरहाद! मुहब्बत की नई आभा के दीये से मुहब्बत की दुकान जगमगा उठी।
‘एक अकेले के भारी पड़ने’ के दम पर ‘चार सौ के पार’ की दहाड़ और संविधान बदल देने के ‘मजबूत इरादों’ के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी चुनाव मैदान में उतर पड़ी।
इंडिया गठबंधन के साथ क्या हुआ? इंडिया गठबंधन के ‘संयोजक’ की भूमिका निभाने में लगे समाजवाद के ‘फिनिश्ड प्रोडक्ट’ नीतीश कुमार ‘अच्छा’ नहीं लगने के कारण इधर से निकलकर उधर चले गये।
चुनाव के दौरान ‘मटन-मछली-मुर्गा-भैंस’ सब हुआ! राजनीतिक ‘सर्वेक्षक, विशेषज्ञ और विश्लेषक’ बताने में व्यस्त रहे कि ‘चार सौ के पार’ की मुराद सफल हुई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह शेयर बाजार के लहलहाने की उम्मीद से उत्फुल्ल थे! लेकिन वह तारीख 4 जून 2024 आ गई और नतीजा सामने आया तो ‘चार सौ के पार’ सिकुड़ कर ‘दो सौ चालीस’ हो गया। और तो और, बुरी हालत उत्तर प्रदेश में हुई और यहां तक कि अयोध्या सहित राम मंदिर क्षेत्र में भी भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा।
उधर शेयर बाजार औंधे मुंह धड़ाम! नीतीश कुमार और एन चंद्रबाबू नायडू ने आगे बढ़कर सहारा दिया और नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का मौका बना दिया। यह सब हुआ लेकिन संविधान पर खतरा पूरी तरह से टला नहीं।
संसद के उच्च सदन में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का उल्लेख अपमानजनक तरीके से कर दिया। जाहिर है कि विपक्ष ने इस मुद्दे को मजबूती से पकड़ लिया। नेता प्रतिपक्ष, ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी पर संसद के मकर द्वार के सामने धक्का-मुक्की के मामले पर विभिन्न कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत पुलिस थाना में एफआईआर दर्ज करा दी गई।
राहुल गांधी पर गुंडागर्दी का आरोप लगा दिया गया। कुल मिलाकर यह कि संसद में संख्या भले कम हो गई लेकिन शासक-समूह के संविधान विरोधी ‘तेवर’ में कहीं कोई कमी नहीं आई। बदलती हुई वैश्विक परिस्थिति में जब घरेलू एकता की सब से अधिक जरूरत है, शासक-समूह सबसे लापरवाह बनी हुई है।
संविधान की भावनाओं, बुद्धिमत्ता की सुरक्षा और न्याय के सुनिश्चित होने का मतलब क्या है, इसे बार-बार समझना चाहिए।
‘हम भारत के लोगों’ ने भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए और इसके सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए सत्य निष्ठा से संकल्प लिया कि विचार, अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता का सम्मान करेंगे।
हैसियत और अवसर की समानता का सम्मान करेंगे और सभी नागरिकों के बीच व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अखंडता करनेवाली बंधुता सुनिश्चित करेंगे।
इस संकल्प के साथ 26 नवंबर 1949 को ‘हम भारत के लोगों’ ने इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया था।
यह ठीक है कि संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी और धर्म निरपेक्ष’ पद बाद में इमरजेंसी के दौर में 1976 में 42वें संशोधन के साथ डाला गया। ये दोनों पद संविधान की मूल प्रस्तावना में भले न हों, लेकिन यह भारत के संविधान की आत्मा और भारत की समवायी और समावेशी संस्कृति की बुनियाद है।
कुछ लोगों और उनके संगठन को इस पर आपत्ति थी, उन्होंने ने भारत के सुप्रीम कोर्ट में इस की वैधता को चुनौती दी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया। संविधान में बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में लिख लिया गया कि इंडिया, अर्थात् भारत, राज्यों का संघ होगा। भारत के संविधान की मूल आकांक्षा के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक प्रवृत्ति, मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना विकसित करने के लिए अधिकतम प्रयास करे।
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के सुनिश्चित होने की क्या स्थिति है? समाजवादी सोच, धर्म निरपेक्ष जैसे मूल्यों के साथ हम कैसा सलूक कर रहे हैं?
सभी नागरिकों की मौलिक हैसियत को समान मानने और सभी को सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन मिले इसके लिए समान अवसर उपलब्ध हो इसके लिए हम क्या कर रहे हैं? व्यक्ति की गरिमा वैज्ञानिक प्रवृत्ति, मानवतावादी मूल्य-बोध का कितना पालन करते हैं?
हम यानी नागरिक-जन और हमारा जन-प्रतिनिधि। नागरिक के रूप में हम यदि संवैधानिक मूल्यों का भरपूर सम्मान नहीं कर पाते हैं या हमारे जन-प्रतिनिधि हमें ऐसा करने में कोई मदद नहीं करते हैं तो हमें क्या करना चाहिए।
वर्तमान व्यवस्था के अनुसार चुनाव का इंतजार करना चाहिए! जब जहां जिस भी तरह का चुनाव हो मतदाता के रूप में बार-बार सोचना चाहिए। फिर कहें, भरोसाहीनता के दौर में संविधान सुरक्षा और सम्मान का मर्म, मतलब और मर्यादा में भरोसा को बचाना।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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