नई दिल्ली। भारत में गिग वर्कर्स की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में भारत में करीब 80 लाख गिग वर्कर्स हैं। स्मार्टफोन के इस दौर में एप्प आधारित सेवा प्रदाता कंपनियों के निर्माण में जहां एक तरफ जबर्दस्त उछाल आया है, वहीं यह तस्वीर भी पूरी तरह से साफ हो रही है कि बड़ी संख्या में अब भारत की युवा आबादी के लिए भविष्य गिग वर्क में ही है।
ओला एवं उबर टैक्सी सर्विस के साथ गिग वर्क की शुरुआत हुई। लेकिन कोविड महामारी के दौरान 2020-21 में जब भारत के बड़े एवं मझोले शहरों में मध्य वर्ग पूरी तरह से अपने घरों में बंद था और रिमोट या वर्क फ्रॉम होम के जरिये अधिकांश कंपनियां अपना कामकाज कर रही थीं, तो उस दौरान खाने-पीने के सामान से लेकर सब्जी, राशन, कपड़े तक लगभग सभी वस्तुओं एवं उपभोक्ता सामग्री के लिए एप्प आधारित विभिन्न प्रकार की सेवा प्रदाता कंपनियां एक विकल्प के तौर पर उभरीं।
इन वस्तुओं की आपूर्ति और भुगतान के लिए बड़ी संख्या में ऐसे युवाओं की जरूरत थी, जो पार्ट टाइम काम करने के इच्छुक हों और बदले में रेगुलर कर्मचारी की तुलना में कम भुगतान की उम्मीद रखते हों।
बड़ी संख्या में देश के विभिन्न शहरों में ऐसे लाखों गिग वर्कर सामने आये, जिनके पास एंड्राइड फोन और दुपहिया वाहन चलाने की योग्यता थी। 8,000 रुपये से लेकर 15,000 रुपये प्रति माह कमाकर 4-6 घंटे प्रतिदिन की मेहनत से इन्हें और इनके परिवार को लगा कि वे अपनी शिक्षा और परिवार की आवश्यक मदद कर सकते हैं।
लेकिन समय के साथ-साथ अब इन स्टार्टअप कंपनियों के पास आवश्यक पूंजी निवेश में रुकावट, हाल के दिनों में अमेरिका और स्विट्ज़रलैंड सहित दुनिया के बैंकिग क्षेत्र में गिरावट, ब्याज दरों में तेज वृद्धि, महंगाई इत्यादि कारकों ने इस उद्योग को खुद को सिकोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है।
जितनी तेजी से विभिन्न स्टार्टअप बिजनेस मॉडल को ऋण या निवेश मिला था, अब उसी रफ्तार से इनके ऊपर खुद को लाभकारी स्थिति में लाने का दबाव निवेशकों की ओर से डाला जा रहा है। इन सबका असर इस संपूर्ण संरचना के पिरामिड में सबसे निचले स्तर के कर्मचारियों पर सीधे पड़ा है। उनकी आय में तेजी से ऋणात्मक रुख आया है, काम करने की शर्तें लगातार सख्त बनाई जा रही हैं, जो इंसेंटिव थे उनमें भी कटौती की जा रही है।
ओला-उबर में जिस प्रकार शुरू-शुरू में ज्यादा कमीशन और इंसेंटिव मिलता था, लेकिन जैसे-जैसे भारत में इसका कार-रेंटल का व्यवसाय बढ़ा एप्प बेस ओला उबर ड्राइवर मालिक की आय और इंसेंटिव घटता चली गया। उसी तरह आज उनसे भी बुरी स्थिति में अन्य सेवा क्षेत्रों में लाखों गिग वर्कर देखे जा सकते हैं।
पिछले एक दशक से देश में असंगठित क्षेत्र में ही नौकरी के अवसर और भारी बेरोजगारी की स्थिति व्याप्त रही है। ऐसे में रोजगार के रूप में गिग अर्थव्यस्था एक विकल्प के रूप में भारतीय युवाओं के सामने उपस्थित हुई। शहरी युवा ने पार्ट टाइम जॉब के रूप में इसे अपने पहले वर्क एक्सपीरियंस के तौर पर अपनाया। प्रवासी श्रमिकों ने भी तत्काल काम पकड़ने के रूप में इसे हाथों-हाथ लिया। यही नहीं बड़ी संख्या में युवाओं ने इसे दूसरे काम (मूनलाइटिंग) के तौर पर अपनाया।
लेकिन इतनी बड़ी संख्या में युवा आबादी के इस क्षेत्र में प्रवेश के बाद भी भारत सरकार की ओर से इस क्षेत्र में कोई ठोस नीतिगत फैसले नहीं लिए गये हैं। पार्ट टाइम जॉब से शुरू होकर यह पूर्णकालिक श्रेणी में आ गया है। अब कई उद्योगों में स्थिति यह हो गई है कि लोगों को अपनी न्यूनतम जरूरतों के मुताबिक कमाई हासिल करने के लिए 8 घंटे के स्थान पर 10 से लेकर 16 घंटे तक खुद को खपाना पड़ता है।
डिलीवरी से जुड़ी सेवाओं में प्रतिस्पर्धा इस कदर बढ़ चुकी है कि सेवा प्रदाताओं की ओर से कम से कम समय में वस्तुओं की डिलीवरी की गारंटी दी जाती है। यह गारंटी इन गिग वर्कर्स के कंधों पर डाली जाती है, जो अब पहले से कम इंसेंटिव पर काम करने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि नए कामगार उनसे भी बदतर सेवा शर्तों में नौकरी करने के लिए तत्पर हैं।
इन गिग वर्कर्स को ये कंपनियां अपना ‘कर्मचारी’ नहीं मानती, वो इन्हें ‘साझीदार’ की श्रेणी में चिंहित करती हैं। ये कोई बिजनेस पार्टनर नहीं जो कंपनी के लाभ में हिस्सेदारी पाने जा रहे हैं, या स्टॉक के मूल्यों में इजाफे से इन्हें अपने भाग्य उदय की कोई संभावना है। इसके उलट सेवा शर्तों में साझीदार के रूप में पेश कर कंपनियां भारत में करोड़ों संगठित श्रमिकों के लिए उपलब्ध सेवा शर्तों और श्रम कानूनों से सीधे छुटकारा पा जाती हैं।
इन डिलीवरी पार्टनर्स के पास मूलभूत श्रम अधिकार नहीं हैं, भविष्य निधि एवं कर्मचारी स्वास्थ्य बीमा, दुर्घटना बीमा जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित इन कर्मचारियों से कम से कम समय पर वस्तुओं की डिलीवरी कराई जाती है। इस काम के लिए एप्प और रियल टाइम को मॉनिटर करने वाले एआई कंपनियों द्वारा स्थापित किये गये हैं।
इतना ही नहीं कई बार इन पार्टनर्स को ग्राहकों के खराब मूड, डिलीवरी में देरी, स्टोर से कम या गलत माल की आपूर्ति में ग्राहक द्वारा लेने से इंकार जैसी सूरत में नेगेटिव रेटिंग से लेकर अपनी पॉकेट से नुकसान की भरपाई के लिए कंपनियों के द्वारा मजबूर किया जाता है। यह बदलाव इतनी तेजी से इन गिग वर्कर्स के जीवन में घटित हुआ है कि उनके लिए स्थिति को हैंडल कर पाना संभव नहीं रहा है।
हाल के दिनों में कई सेवा प्रदाता कंपनियों के कर्मचारियों की ओर से अचानक से हड़ताल का आह्वान किया गया। इन सभी आंदोलनों में गिग वर्कर्स के काम की स्थितियों में चिंतनीय गिरावट हर बार एक नए निचले स्तर पर देखने को मिल रही है।
पिछले सप्ताह जोमेटो समूह की कंपनी ब्लिंकिट के दिल्ली-एनसीआर में हजारों की संख्या में कर्मचारियों ने अचानक से एक सप्ताह तक सारा काम पूरी तरह से ठप कर दिया था। यहां पर पता चला कि कंपनी ने 2022 तक 50 रूपये प्रति डिलीवरी को जुलाई 2022 में घटाकर 25-30 रुपये कर दिया था।
लेकिन कंपनी यहीं पर नहीं रुकी, और इस वर्ष मार्च 2023 में उसने नए कर्मचारियों के लिए इसे और घटाकर 15 रूपये प्रति डिलीवरी कर दिया था। पिछले एक वर्ष में देश उच्च मंहगाई से जूझ रहा है, ऊपर से रियल एस्टेट क्षेत्र में किराये के मकानों में 14-24% की उछाल के बीच कमाई में पहले 50% और कुछ महीनों बाद फिर से भारी घटोत्तरी 10,000-15,000 मासिक आय वाले कर्मचारी के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने चार श्रम संहिताओं में से सामाजिक सुरक्षा पर संहिता तैयार की है, लेकिन यह अभी कागजों पर ही है। ऐसे में देश में गिग वर्कर्स के लिए आशा की किरण के रूप में राजस्थान सरकार सामने आई है, जिसकी ओर से राजस्थान प्लेटफार्म-बेस्ड गिग वर्कर्स (पंजीकरण एवं कल्याण) बिल, 2023 को लागू किया गया है। यह एक स्वागतयोग्य कदम है। इसमें एक वेलफेयर बोर्ड के गठन की बात कही गई है, जिसके द्वारा गिग वर्कर्स की मुश्किलों और शिकायतों की सुनवाई की जायेगी और उनके लिए कल्याणकारी नीतियों को तैयार किया जायेगा।
हालांकि यह बिल भी चुनावी वर्ष में लाया गया है, और गहलोत सरकार की मंशा इससे चुनावी लाभ कमाने की हो सकती है, लेकिन इसके बावजूद 140 करोड़ की आबादी वाले इस देश में किसी एक प्रदेश की सरकार ने इस दिशा में सार्थक पहल की है, जो आने वाले वर्षों में केंद्र एवं अन्य राज्यों के लिए एक नजीर बनने जा रही है।
द हिंदू समाचार पत्र के अनुसार थाईलैंड और मलेशिया में परिवहन क्षेत्र में गिग वर्कर्स को स्वास्थ्य एवं दुर्घटना बीमा का कवर दिया जा रहा है, जिसमें कर्मचारी को प्रति राइड आय से 2% कटौती कराकर इसके फण्ड को वित्तपोषित किया जा रहा है। भारत में भी कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था के जरिये 2030 तक इस उद्योग में करीब 3 करोड़ श्रमिकों के लिए ठोस उपायों को आज से ही अपनाने के लिए पहल करनी होगी।
(रविंद्र पटवाल लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)