भारत को यदि रेप, मर्डर और दमन के मामले में दुनिया का सिरमौर कहा जाये तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लेकिन आम तौर पर माना जाता है कि पश्चिम बंगाल की सांस्कृतिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि के चलते, राज्य में महिलाओं को मिलने वाला मान-सम्मान देश के अन्य हिस्सों की अपेक्षा कहीं ज्यादा है।
फिर राज्य में सत्ता की कमान संभालने वाली ममता बनर्जी देश की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में भी महिलाओं की भागीदारी को अन्य सभी राजनीतिक दलों से काफी बेहतर प्रदर्शित करती आई हैं। लेकिन कोलकाता राजकीय आर जी कर अस्पताल की घटना और उसके बाद का घटनाक्रम बताता है कि पश्चिम बंगाल में भी कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
यह घटना 5 दिन पुरानी है। 8 अगस्त की रात को हुई, जिसके बारे में बताया जा रहा है कि पीजी द्वितीय वर्ष की महिला रेजिडेंट डॉक्टर ने अपनी तीन सहकर्मियों के साथ सेमिनार हाल में डिनर किया। डिनर करने के बाद वह महिला डॉक्टर वहीं पर रुकी रहीं, जबकि बाकी तीनों लोग खाना खाकर वहां से बाहर चले आये थे।
इस घटना के बारे में जानकारी रात 11:30 बजे अस्पताल में पता चल सकी। इस 31 वर्षीय महिला डॉक्टर के शव की स्थिति बता रही थी कि उसके साथ बलात्कार और गला घोंटकर मारा गया था। उसके प्राइवेट पार्ट और जांघ की हड्डी जिस प्रकार से टूटी पाई गई थी, उससे जान पड़ता है कि यह काम दो या उससे अधिक लोगों ने अंजाम दिया था।
सोशल मीडिया पर महिला डॉक्टर की पड़ोसी महिला का वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें वे बता रही हैं कि कैसे जब यह सूचना उसके परिवार वालों को मिली, तो सभी भागे-भागे अस्पताल पहुंचे थे। लेकिन पुलिस ने करीब 3 घंटे तक लड़की के माता-पिता को शव के पास जाने की इजाजत नहीं दी।
आखिर जब वे मृतका के पास पहुंचे तो वहां का दृश्य कल्पना से परे था। अगले ही दिन यह खबर आग की तरह कोलकाता और देश के दूसरे शहरों तक फ़ैल गई। रेजिडेंट डॉक्टर्स और कोलकाता शहर के छात्र और युवाओं में आक्रोश की लहर पनपने लगी।
आर जी कर अस्पताल के इंटर्न की ओर से दिल्ली आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस सहित तमाम अस्पतालों में संपर्क साधकर इस मुद्दे पर आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी।
इस सिलसिले में 10 अगस्त को कोलकाता पुलिस ने संजय रॉय नामक एक व्यक्ति को गिरफ्तार भी कर लिया। बताया जाता है कि यह व्यक्ति कोलकाता पुलिस के लिए सिविक वॉलंटियर का काम करता था।
उसके ब्लूटूथ के हेडफोन के टूटे तार को पुलिस ने सेमिनार हॉल से बरामद किया था, जिसके आधार पर उसकी गिरफ्तारी की गई। लेकिन आंदोलनकारी डॉक्टर पुलिस की तहकीकात से पूरी तरह से असंतुष्ट थे।
राज्य सरकार ने मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ संदीप घोष को सस्पेंड कर दिया, लेकिन फिर खबर आई कि अगले 16 घंटे के भीतर ही उन्हें कोलकाता में ही नेशनल मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपल नियुक्त कर दिया गया था।
इस खबर ने आन्दोलनकारियों के बीच गुस्से को और बढ़ा दिया, क्योंकि कहा जा रहा है कि डॉ. घोष भ्रष्टाचारी व्यक्ति रहे हैं, जो हॉस्टल अलॉटमेंट, टेंडर और आरजी कर मेडिकल कॉलेज से जुड़े हर काम के लिए घूस लेते थे।
पूर्व डिप्टी सुपरिटेंडेंट अख्तर अली के बयान के मुताबिक, “डॉक्टर संदीप घोष जानबूझकर छात्रों को फेल कर दिया करते थे और कॉलेज के काम करने के लिए लोगों से पैसे खाते थे। टेंडर के लिए भी 20 पर्सेंट का कमीशन लेते थे।” इतना ही नहीं उनका यह भी कहना है कि डॉक्टर घोष छात्रों को अपने गेस्ट हाउस पर बुलाकर शराब भी पिलाते थे। अख्तर अली ने कहा है कि डॉ. घोष की हरकतें माफियाओं की तरह रही है।
अख्तर अली ने पिछले साल डॉक्टर घोष के खिलाफ एक शिकायत भी दर्ज कराई थी। उन्होंने कहा कि, “डॉ. घोष बहुत पावरफुल शख्स हैं और उनके साथ काफी सिक्योरिटी रहती है।
संदीप घोष के इस्तीफे को भी उन्होंने धोखा बताया है। उन्होंने कहा कि इस्तीफे के जरिए सिर्फ आंखों में धूल झोंकी जा रही है। इस्तीफा देने के 8 घंटे के अंदर ही उन्हें नेशनल मेडकल कॉलेज का प्रिंसिपल नियुक्त कर दिया गया।”
देखते ही देखते आंदोलन कोलकाता, दिल्ली, लखनऊ सहित देश के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में फ़ैल गया था। दिल्ली में पिछले दो दिनों से एम्स के रेजिडेंट डॉक्टर्स हड़ताल पर थे। इस आंदोलन में सीपीआई (एम) के छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया और डीवाईएफआई की भूमिका भी काफी सक्रिय रही, लेकिन संदेशखाली में हिंदू महिलाओं के खिलाफ रेप और जमीन दखल का आरोप लगाने वाली भाजपा के लिए शायद इस मुद्दे में कुछ खास नहीं था।
हालांकि, कल जब कोलकाता उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इस मामले को पश्चिम बंगाल पुलिस के हाथ से लेकर सीबीआई को सौंप देने के निर्देश दिए, उसके बाद से उनके बयानों में काफी तेजी आ चुकी है।
संभवतः, ममता बनर्जी भांप चुकी थीं कि संदेशखाली के विपरीत आरजी कर अस्पताल का मुद्दा भारी पड़ने वाला है, इसलिए कल सुबह ही उनका बयान आया था कि वे बंगाल पुलिस को रविवार तक का समय देती हैं। ताकि इस मामले की तह का पता लगाया जा सके।
लेकिन हाई कोर्ट के फैसले के बाद, मामला पश्चिम बंगाल सरकार के हाथ से निकल चुका है। कोर्ट ने आंदोलनकारी डॉक्टर्स को अपनी हड़ताल वापस लेने का आग्रह किया है, जिसे दिल्ली एम्स ने मान लिया है, लेकिन राज्य के रेजिडेंट डॉक्टर्स अड़े हैं कि जबतक असली दोषियों को सीबीआई गिरफ्तार नहीं कर लेती है, उनका आन्दोलन जारी रहेगा।
असल में क्या है माजरा?
आरजी कर अस्पताल हत्याकांड, ममता बनर्जी सरकार के लिए गंभीर संकट का बायस बनने जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि पश्चिम बंगाल पुलिस इस मामले की निष्पक्ष जांच नहीं कर रही थी, क्योंकि इसके दोषियों के तार राज्य के प्रभुत्वशाली लोगों से जुड़े हुए हैं।
सोशल मीडिया पर अपुष्ट खबरों से ऐसी सूचना मिल रही है कि आरजी कर अस्पताल में कथित तौर पर कुछ हाउस स्टाफ और इंटर्न मिलकर ड्रग्स और सेक्स रैकेट चला रहे थे, जिसका मृतका ने विरोध करना शुरू कर दिया था, और इसका पर्दाफाश करने की धमकी दी थी।
उसके बाद से ही पिछले दो माह से उसे हर संभव तरीके से प्रताड़ित करने की कोशिशें हो रही थीं। उस रात भी वे लोग उसे धमकाने के लिए सेमिनार हॉल में घुसे थे, और फिर यह वाकया हो गया। इनमें से कुछ इंटर्न पश्चिम बंगाल की सरकार की पार्टी से जुड़े प्रभावशाली परिवारों से आते हैं, और सारी कवायद उन्हें बचाने की चल रही थी।
यह शक तब और भी पुख्ता हो गया, जब हाई कोर्ट के मामले को सीबीआई को सौंपने की सूचना के बाद अचानक से सेमिनार हॉल के बगल के कमरों में मरम्मत के नाम पर तोड़फोड़ का काम शुरू हो गया। कोलकाता के अंग्रेजी अख़बार, द टेलीग्राफ ने कल ही इस खबर की पुष्टि कर दी थी कि वारदात स्थल के पास तोड़फोड़ का काम शुरू हो चुका है।
लोग अचंभे में हैं कि राज्य ही नहीं पूरे देशभर में इस मामले में आन्दोलन हो रहा है, और हाई कोर्ट से मामले की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए गये हैं, फिर अचानक अस्पताल को मरम्मत कार्य की कैसे सूझी? अमूमन ऐसी घटनाओं में घटनास्थल पर मौजूद सबूतों, निशान की शिनाख्त करने के लिए उस स्थल को सीलबंद कर दिया जाता है।
आज सीबीआई ने मामले को अपने हाथ में ले लिया है, जिसमें मेडिकल और फोरेंसिक एक्सपर्ट की टीम मामले की जांच शुरू कर रही है। सीबीआई के अधिकारियों का कहना है कि एक टीम आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल का दौरा कर उन गवाहों और डॉक्टरों के बयान लेगी, जो उस रात ड्यूटी पर मौजूद थे।
दूसरी टीम गिरफ्तार आरोपी की कस्टडी को अपने हाथ में लेगी, जबकि तीसरी टीम कोलकाता पुलिस जो इस मामले की छानबीन कर रही थी, उसके साथ समन्वय पर काम करेगी।
तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के लिए नैतिक संकट की घड़ी
आमतौर पर पश्चिम बंगाल की राजनीति में श्रमिक, गरीब, महिला और अल्पसंख्यकों के हित प्रमुखता से रहे हैं। ममता बनर्जी के शासन में भले ही विपक्षी दलों के खिलाफ बदले की भावना रही हो, या नारदा-शारदा सहित तमाम आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों में उसके सांसद और विधायक लिप्त होने की खबरें सुर्ख़ियों में रही हों, लेकिन महिलाओं के खिलाफ रेप और दमन की घटनाएं कम ही सुनने को मिली हैं।
यदि कुछ मामलों में भाजपा के नेतृत्व की ओर से बंगाल में हिंदू महिलाओं के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा बनाने की कोशिशें हुई हों, तो उसका असर भले ही दूसरे राज्यों में एक छवि खड़ी करने में सफल रही हो लेकिन राज्य की राजनीति पर इसका खास असर नहीं पड़ सका था।
लेकिन, इस घटना ने, जिसमें एक शिक्षित महिला मेडिकल डॉक्टर के साथ इतने वीभत्स तरीके से हत्या और बलात्कार की घटना सामने आई है, उसके चलते पश्चिम बंगाल का भद्रलोक, मध्य वर्ग और आम लोग भी हतप्रभ हैं।
हालत यह है कि महिलाओं और राष्ट्रीय विषयों पर सबसे मुखर स्वर सांसद महुआ मोइत्रा तक को सोशल मीडिया पर ट्रोल होने से बचने के लिए कोना ढूंढना पड़ रहा है। आम लोगों के द्वारा इस प्रश्न पर महुआ मोइत्रा और उनके जैसी तमाम टीएमसी की महिला सांसदों से अपेक्षा की जा रही थी कि वे जिस तरह से देश के अन्य विषयों पर मुखरता से अपना पक्ष रखती हैं, इस मामले पर भी उनकी सक्रियता दिखनी चाहिए।
सभी जानते हैं कि क्षेत्रीय दलों, उसमें भी तृणमूल, आम आदमी पार्टी जैसे दलों में आंतरिक लोकतंत्र की क्या हालत है?
इनके सांसदों के लिए अपनी ही पार्टी के भीतर की कमियों पर सवाल उठाने का अधिकार नहीं है। तृणमूल कांग्रेस के पास भी जनाधार को बनाये रखने के लिए एक ऐसा फार्मूला है, जिसका उपयोग कर उसने राज्य में खुद को अपरिहार्य बना डाला है।
पश्चिम बंगाल के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को बचाए रखने की गुहार लगाती ममता बनर्जी असल में भाजपा के साथ नूराकुश्ती करना पसंद करती हैं, और मजबूरन प्रबुद्ध वर्ग और अमन-चैन चाहने वाले आम लोगों को टीएमसी के पक्ष में खड़ा होना पड़ता है।
पिछले एक दशक से अधिक समय से जारी यह सिलसिला, राज्य में सीपीआई(एम) और कांग्रेस को एक तरह से अप्रासंगिक बना चुका है। भाजपा लगातार अपने अस्तित्व को बचाने और बढ़ाने के लिए हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव को ढूंढ़ती है।
जबकि तृणमूल मां-माटी-मानुष के साथ-साथ बंगाली अस्मिता, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के नाम पर बहुमत तो पाती है, लेकिन भाजपा के खतरे को दिखा-दिखाकर पार्टी में शामिल नेताओं और कैडर की गुंडागर्दी और व्यापक भ्रष्टाचार पर आंखें मूंदे रहती है।
लेकिन इस मामले ने पश्चिम बंगाल को झकझोर कर रख दिया है, लेकिन इस हलचल से राज्य की प्रगतिशील शक्तियों को लामबंद होने का अवसर मिलता है या धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी शक्तियों के लिए यह मौके के तौर पर होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बता सकता है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)