अभी दिल्ली विधानसभा का चुनाव सामने है और विचारधारा की लड़ाई जारी है। विचारधारा की लड़ाई आजादी के आंदोलन के समय से ही जारी है। कुछ लोगों को तो लगता था कि जिनके राज में सूर्यास्त नहीं होता है उन के खिलाफ लड़ना ‘बेवकूफी’ है। मोटे तौर पर कहें तो उन्हें यह अच्छा लगा था कि ब्रिटिश लोगों ने उन मुगलों को पराजित कर अपनी हुकूमत कायम की थी। हालांकि 1857 की लड़ाई हिंदू-मुसलमान ने मिलकर लड़ी।
ब्रिटिश लोगों की समझ में यह बिल्कुल नहीं आया कि हिंदू-मुसलमान की आपसी हित-विरुद्धता कैसे हवा हो गई और वे साथ-साथ उन के खिलाफ आ गये! भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की छिपी हुई ताकत के दर्शन से सहम गये और उन्होंने हिंदू-मुसलमान तनाव और आघात में अपनी सुरक्षा खोज निकाली। वे लगातार हिंदू-मुसलमान के बीच फासला बनाने के लिए विभिन्न परियोजनाओं पर काम करते रहे।
भ्रष्टाचार बीच हिंदुत्व की राजनीति ने घुमा-फिराकर ब्रिटिश हुकूमत का साथ देना शुरू कर दिया। कांग्रेस का गठन भले ही 1885 में हुआ था, लेकिन आजादी के आंदोलन में 1920 से ही रंग पकड़ना शुरू किया था। तब तक कांग्रेस के भीतर बहुत सारी ऐसी ताकतें भी थी जो उन मूल्यों के साथ थी जो हिंदुत्व की राजनीति के अनुकूल पड़ती थी। लेकिन धीरे-धीरे वे ताकतें कमजोर हो गईं।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का गठन तो 27 सितंबर 1925 को हो गया था। आखिर 1925 से 1947 तक राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ क्या करता रहा था? राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ अपने को सांस्कृतिक संगठन कहता था और बलपूर्वक अपने राजनीतिक स्वरूप का निषेध करता था। संस्कृति के नाम पर हिंदू समाज को मूलतः सवर्ण चेतना के आधार पर संगठित करने और उस के सैन्यीकरण में लगा रहा।
हिंदुत्व की राजनीति चाहती थी कि ब्रिटिश हुकूमत जाये तो राजपाट देशी राजाओं को सौंप दे, बाकी वे ‘संभाल’ लेंगे। एक तो कांग्रेस और महात्मा गांधी का दबाव और यूरोपीय अनुभव के कारण ब्रिटिश हुकूमत को ऐसा करने के खतरों को सूंघने में देर नहीं लगी। हिंदुत्व की राजनीति की यह विफलता थी, क्योंकि बोरिया-बिस्तर समेटते हुए अंग्रेजों ने उन्हें कृतार्थ नहीं किया!
ब्राह्मण और बौद्ध विचारधारा या परंपरा के हजारों साल से चले आ रहे संघर्ष को संवैधानिक रूप से विराम लग गया। 26 जनवरी 1950 को जिस संविधान को ‘हम भारत के लोगों’ ने आत्मार्पित किया था उस में मनुस्मृति के लिए कोई सम्मान नहीं था, बल्कि वह हर तरह की गैर-बराबरी और हर तरह के विशेषाधिकार का दृढ़तापूर्वक निषेध के प्रावधानों से सुसज्जित था।
महात्मा गांधी की हत्या में संलग्नता के आरोप के कारण इन की राजनीति को बहुत बड़ा झटका दिया अंततः ठीक पहले आम चुनाव के समय राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के द्वारा या सहमति से भारतीय जनसंघ का गठन 21 अक्तूबर 1951 में हुआ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी अध्यक्ष बने। इस प्रसंग में हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद को भी याद किया जा सकता है। इन्हें वे सारे अधिकार प्राप्त थे जो भारत की अन्य राजनीतिक पार्टियों को थे। लेकिन इन की जन-स्वीकार्यता नहीं बन पा रही थी। आम तौर पर यह बात थी कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ एक फासीवादी विचारधारा के आधार पर काम करनेवाला संगठन है, और अन्य राजनीतिक पार्टियां इस से दूरी बनाकर रखती थी।
लेकिन इमरजेंसी ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया। इमरजेंसी के विरोध की राजनीति में जयप्रकाश नारायण ने कह दिया कि आरएसएस फासीवादी है, तो मैं भी फासीवादी हूं। जयप्रकाश नारायण के एक बयान से राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और जनसंघ के जनता पार्टी और सरकार में शामिल होने और बाद फिर अलग होकर बनी भारतीय जनता पार्टी स्वीकार्यता मिल गई। वह आज अपने इतिहास के छूटे हुए पन्नों से निकालकर अपनी खोई हुई राजनीतिक प्रासंगिकता और इरादों के साथ भारत के संविधान और लोकतंत्र में प्रकट होकर विकट हो गया है। जाहिर है कि वह विचारधारा की लड़ाई में जिस बाजी को संविधान के लागू होते ही हार गई थी, अब उसे पलटना चाहती है।
राम जन्म-भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय को देवी अहिल्या पुरस्कार देने के लिए किये गये आयोजन के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अयोध्या के राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा की तिथि को ‘प्रतिष्ठा द्वादशी’ के रूप में मनाई जाने की पेशकश कर दी है। कौन मनायेगा? किस के सामने यह प्रस्ताव रखा गया है।
चूंकि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचार पोषित राजनीतिक पार्टी इस समय भारत में सत्तासीन है, इस से जाहिर है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख का प्रस्ताव और सुझाव सरकार के लिए है। उन का कहना है कि ‘प्राण प्रतिष्ठा’ के दिन को इसलिए ‘प्रतिष्ठा द्वादशी’ मनाई जानी चाहिए क्योंकि भारत को ‘सच्ची आजादी’ मिली, सदियों से दुश्मनों का आक्रमण झेलनेवाले देश को ‘सच्ची आजादी’ मिली थी।
इन्हें यह लगता है कि अयोध्या के राम मंदिर में भगवान राम की ‘प्राण प्रतिष्ठा’ से भारत के ‘स्व या स्वत्व’ के प्रतिष्ठित होने पर भारत का ‘स्व या स्वत्व’ प्रतिष्ठित हो गया। लेकिन संवैधानिक लोकतंत्र पर भरोसा रखनेवाले लोगों को लगता है कि देश की पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक आबादी के संवैधानिक अधिकार का लाभ उन तक पहुंचना ही भारत के ‘स्व या स्वत्व’ का प्रतिष्ठित होना है, जो अभी बाकी है और जिस की राह में यह सब रोड़ा ही हैं।
यह ‘सच्ची आजादी’ का मामला अपनी-अपनी धारणा के अनुसार व्याख्या की मांग रखता है। जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के छात्र समेत इस देश के अधिकतर लोगों को ‘सच्ची आजादी’ की तलाश है। ‘सच्ची आजादी’ की सुबह का इंतजार इस देश के उन तमाम लोगों को है जिन तक आजादी का सच्चा अर्थ नहीं पहुंच पाया है। लेकिन आज की तारीख में कोई भी 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी की विरुद्धता में जाकर ‘सच्ची आजादी’ की तलाश में नहीं लगा है।
‘सच्ची आजादी’ के बारे में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और उस की पोषित राजनीतिक पार्टियों की क्या धारणा है? सवाल यह है कि उन्हें 15 अगस्त 1947 को मिली ‘आजादी’ ‘सच्ची आजादी’ क्यों नहीं लगती रही है? बहुत विस्तार में जाने की जरूरत नहीं होगी। उन्हें शिकायत है कि भारत के संविधान में ‘कुछ भी भारतीय नहीं होने’ की शिकायत है।
यह शिकायत इसलिए है कि यह संविधान न सिर्फ मनुस्मृति से असहमति रखता है बल्कि मनुस्मृति की व्यवस्थाओं का पूरी तरह से निषेध करता है। शिकायत यह है कि संविधान किसी भी अर्थ में किसी भी आधार पर नागरिकों के प्रति भेद-भाव की अनुमति नहीं देता है। इसलिए राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ इस संविधान का चिर-विरोधी है।
भारतीय जनता पार्टी समेत ऐसे सभी नागरिक और राजनीतिक दल जो देश को भारत के संविधान में निहित बराबरी के सिद्धांत से असहमति रखते हैं या गैर-बराबरी में अपनी सामाजिक श्रेष्ठता और व्यक्तिगत उपलब्धि देखते हैं, उन्हें इस संविधान से शिकायत है। जाहिर है कि ऐसे लोग इस संविधान को मनुस्मृति के अनुसार बदल देने के राजनीतिक प्रयास में लगे हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री के शासन-काल में इसे संभव हुआ देखना चाहते हैं। इसी के लिए पिछले लोकसभा के चुनाव में चार सौ के पार’ की आकांक्षा की घोषणा की गई थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की तमाम कोशिशों और कारगुजारियों को एक तरफ करते हुए भारत के मतदाताओं ने चार सौ के पार’ को ‘दो सौ चालीस’ पर समेट दिया। बहुमत से दूर रखा। नीतीश कुमार और एन चंद्रबाबू नायडू के समर्थन से नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री हो गये और अब वह सब कर लेना चाहते हैं, हालांकि फिर भी चार सौ के पार’ की ताकत कहां! ताकत नहीं है तो क्या हुआ, बेचैनी तो है! बेचैनी है आध्यात्मिक राष्ट्र गढ़ने की, ‘सच्ची आजादी’ पाने की।
पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ी भारत की बहुत बड़ी आबादी, आम लोगों, मेहनतकश-मजदूरों, महिलाओं को भी ‘सच्ची आजादी’ चाहिए! आजादी’ चाहिए! इन की क्या शिकायत है! इन की शिकायत है कि संविधान के प्रावधानों का पूरा लाभ उन तक पहुंच नहीं पा रहा है। ऐसे लोगों और उन के राजनीतिक दलों की कोशिशों को देखें तो वे इस संविधान को अपना रक्षा-कवच मान रहे हैं और इस के साथ किसी भी तरह के नकारात्मक छेड़-छाड़ का जबरदस्त विरोध करते हैं। संविधान के प्रावधानों को लागू किये जाने के प्रति राजनीतिक रूप से अपनी अंतरात्मा की आवाज पर आज बहुत संवेदनशील हैं।
संविधान के प्रावधानों का लाभ देश की बहुत बड़ी आबादी तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है! सच पूछा जाये तो राजनीतिक रूप से रौंदी गई पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक आबादी की दृढ़ और सही मान्यताओं के मुताबिक संविधान के प्रावधानों का पूरा लाभ इन तक ‘संवैधानिक तंत्र’ पर संविधान के मूल्यों के विरुद्ध भाव रखनेवालों का कब्जा है। तंत्र पर ऐसे लोगों का कब्जा पहले भी रहा है लेकिन राजनीतिक आकाओं का इतना बेरोक-टोक ‘समर्थन और प्रेरणा’ पहले कभी नहीं था। लोकतंत्र में ‘लोक’ के विरुद्ध ‘तंत्र’ का ऐसा भयानक प्रकोप पहले कभी नहीं था, शायद इंदिरा गांधी के समय घोषित इमरजेंसी में भी नहीं!
राहुल गांधी ने इसी ‘लोक विरुद्ध तंत्र’ से लड़ने की बात कही है। क्या गलत कहा है? इमरजेंसी में लोगों और राजनीतिक पार्टियों ने ‘लोक विरुद्ध तंत्र’ में राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी थी? ‘लोक विरुद्ध तंत्र’ के खिलाफ लड़ना देश या राष्ट्र के खिलाफ होना नहीं हो सकता है। ऐसा हो तो फिर लोकतंत्र के होने का कोई मतलब ही नहीं बचता है।
असल में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक शैली में अधिकार संपन्न नागरिक के लिए कोई जगह ही नहीं है, उन्हें तो उनकी कृपा पर आश्रित आज्ञापालक प्रजा का ही पता मालूम होता है। इंडिया गठबंधन की राजनीतिक लड़ाई अधिकार संपन्न नागरिकता की ‘प्राण प्रतिष्ठा’ की लड़ाई है।
अभी सामने दिल्ली विधानसभा का चुनाव है। चुनावी नतीजा पर विचारधारा पर छिड़े इस संग्राम का क्या असर पड़ेगा यह महत्वपूर्ण तो है लेकिन उस से कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि भारत की लोकतांत्रिक राजनीति पर पड़नेवाला असर होगा। देखा जाये विचारधारा की बात निकली तो है लेकिन पहुंचती कहां तक है! देखना दिलचस्प होगा कि अंततः इंडिया गठबंधन के कौन-कौन से साथी अधिकार संपन्न नागरिकता की ‘प्राण प्रतिष्ठा’ की लड़ाई में ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के साथ टिके रहते हैं।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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