ब्राजील में लूला की जीत:अमेरिकी साम्राज्यवाद से लैटिन अमेरिकी जनता के आजाद होने की छटपटाहट

लैटिन अमेरिका के सबसे बड़े मुल्क ब्राजील में 1 जनवरी को राष्ट्रपति के रूप में लूला डिसिल्वा ने शपथ ली। उनकी विजय सैन्य पृष्ठभूमि वाले तानाशाह जायर बोलसोनारो को हराकर संभव हो सकी। जो ब्राजील के लिए दु:स्वप्न बन चुके थे। प्रारंभिक संकेतों में भारी पीछे चल रहे बोलसोनारो अमेरिकी और ब्राजीली शासक वर्गों के अथक प्रयास के बावजूद वापसी नहीं कर सके। बोलसोनारो की पराजय ने दक्षिण अमेरिका पर यूएसए की पकड़ को थोड़ा और ढीला कर दिया है।

लैटिन अमेरिका में ब्राजील का भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक रूप में वही महत्व है जो अफ्रीका में साउथ अफ्रीका और दक्षिणी एशिया में भारत का है। जिसके बल पर अमेरिकी साम्राज्यवाद अपनी विश्व बादशाहत बनाए रखने में कामयाब रहा है।

पश्चिमी एशिया के तेल समृद्ध इस्लामिक देशों के बाद अगर कोई सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है तो उसमें लैटिन अमेरिकी देश ही यूएसए के सुदृढ़ गढ़ रहे हैं। ब्राजील व भारत में दक्षिणपंथी निरंकुश सरकारों के कारण अमेरिकी इजराइली रणनीति का विस्तार हुआ था।

ब्राजील में लूला की वर्कर्स पार्टी की विजय

लैटिन अमेरिका पिछले 200 वर्षों से यूएसए के लिए आर्थिक और रणनीतिक महत्व का क्षेत्र है। इसे लोकप्रिय शब्दों में यूएसए का पिछवाड़ा कहा जाता है। लैटिन अमेरिका में यूएसए की लूट की लाक्षणिक विशेषता को चिन्हित करने के लिए ही नियो कॉलोनिज्म का सिद्धांत अस्तित्व में आया था। यूरोपीय साम्राज्यवाद के स्वर्ण युग में भी यूएसए ने हर संभव कोशिश की थी कि यूरोप का प्रवेश लैटिन अमेरिकी देशों में न हो सके। इसके लिए उसने यूरोप से कई मौकों पर टकराहट भी मोल ली।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की बादशाहत खत्म होने पर अमेरिका यानी यूएसए विश्व साम्राज्यवाद का लीडर बना। यूरोपीय चुनौती समाप्त होते ही यूएसए ने लैटिन अमेरिका को अपने नव‌उपनिवेश में बदल दिया। वेनेजुएला से लेकर चिली, ब्राजील, अर्जेंटीना, वोलिबिया और निकारागुआ सहित छोटे बड़े सभी देशों तक अमेरिकी लुटेरी कंपनियां, जासूस, सीआईए के  हत्यारे दस्ते और अमेरिका द्वारा सत्ता में बैठाये गए मिलिट्री तानाशाह लैटिन अमेरिका को रौंदते व लूटते रहे। जनता गरीबी भुखमरी और जहालत की जिंदगी जीती रही।

लैटिन अमेरिका की चुनी हुई सरकारों और उभरते जन प्रतिरोध की लहरों को क्रूर हिंसक तरीके से दबाया जाने लगा। महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा के वोलिबिया के जंगलों में मारे जाने के बाद सैन्य तानाशाहों ने राहत की सांस ली थी। उन्हें लगा था कि उनका साम्राज्य अनंत काल तक स्थाई बना रहेगा।

लेकिन मनुष्य की स्वतंत्र और आजाद होने की जिजीविषा अंततोगत्वा लैटिन अमेरिका की प्राकृतिक संपदा की लूट और नागरिकों की आजादी के दमन के साथ टकराकर नई तरह की लोकतांत्रिक लहरों को जन्म दिया और लैटिन अमेरिका वाम क्रांतिकारी लहर के आगोश में खिच आया। साठ के दशक के शुरुआत में ही फिदेलकास्त्रो और चे ग्वारा की जोड़ी के नेतृत्व में संपन्न हुई क्यूबाई क्रांति ने लैटिन अमेरिका में उत्प्रेरक का काम किया। जिससे समय-समय पर चुनावी जीत के साथ-साथ क्रांतिकारी संघर्षों को भी आवेग मिलता रहा है।

1973 में चिली की दुनिया की पहली चुनी हुई वामपंथी सरकार के सैन्य तख्तापलट के द्वारा (राष्ट्रपति अलेंदे महाकवि पाब्लो नेरूदा और मंत्रिमंडल के अधिकांश मंत्रियों सहित हजारों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की हत्या हुई) अमेरिका ने लैटिन अमेरिकी देशों पर अपने सैन्य पिट्ठुओं को बिठाने का अभियान छेड़ दिया। सीआईए और अमेरिकी भीमकाय कंपनियों के गठजोड़ ने एक के बाद एक सरकारों के सैनिक तख्तापलट का अभियान चलाया। सम्पूर्ण लैटिन अमेरिका में क्रूर सैनिक तानाशाहों का दौर शुरू हुआ और शुरू हुआ लाखों नागरिकों के कत्लेआम के साथ लैटिन अमेरिकी खनिज और प्राकृतिक संपदा का निर्मम दोहन।

लोकतंत्र का खूनी चेहरा

अमेरिकी लोकतंत्र का खूनी चेहरा सबसे वीभत्स रूप में लैटिन अमेरिका में ही दुनिया ने देखा। अगर आपको अमेरिकी लोकतंत्र  के संरक्षण में पल रही भीमकाय मल्टी नेशनल कंपनियों की क्रूरता और बर्बरता देखनी हो तो लैटिन अमेरिका जाना चाहिए। वहां चप्पे-चप्पे पर उनके लूट के क्रूर निशान दिखाई देंगे। अमेरिका की बादशाहत बनाए रखने में जहां अरब जगत के बादशाह महत्वपूर्ण ढाल बने रहे। वहीं लैटिन अमेरिकी तानाशाहियों की निर्णायक भूमिका रही।

इसलिए लूला के दूसरी बार जीतने पर देशी जमीदारों, दलाल पूंजीपतियों और अमेरिकी कंपनियों के मालिकों को झटका लगा है और वे बौखला उठे हैं। राष्ट्रपति के रूप में लूला के शपथ लेने के बाद उनका धैर्य जवाब दे गया। चुनाव परिणाम आने के बाद चंद जायर बोलसनारों समर्थक सेना के मुख्यालय पर धरना देकर मांग कर रहे थे कि सेना सत्ता पर कब्जा कर ले। लेकिन लैटिन अमेरिका में अमेरिकी साम्राज्यवाद मल्टीनेशनल कंपनियों और जंगल-जमीन के लुटेरों के खिलाफ उठ रही जन भावनाओं की लहरों के डर से पूर्व समयों में सत्ता का स्वाद चख चुके सैन्य अधिकारियों ने भी मौन रहना उचित समझा।

इसलिए पहला सप्ताह बीतते-बीतते सैन्य कॉरपोरेट गठजोड़ वाले अमेरिकी दलालों की लोकतंत्र के प्रति घृणा और नफरत नंगी होकर पर सामने आ गई। जब बोलसनारों के समर्थक राष्ट्रपति भवन, न्यायालय और संसद पर हमला बोल दिया। वे वहां घंटों तोड़फोड़ करते रहे। वहां लूटपाट और भारी विध्वंस हुआ। ऐसी खबर आ रही है कि राष्ट्रपति भवन में रखी हुई ब्राजील के संविधान की मूल प्रति भी दंगाई उठा ले गए। यह सब राजधानी ब्रासीलिया‌ के बोलसनारो समर्थक गवर्नर की मौजूदगी में होता रहा। (यहां आप भारत में राज्यपालों की भूमिका को भी ध्यान में रख सकते हैं)

यह सभी घटनाएं सोची-समझी रणनीति के तहत आयोजित की गई थी। क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति बोलसोनारो परंपरा का उल्लंघन करते हुए शपथ ग्रहण के एक दिन पूर्व ही ट्रंप के गृह राज्य चले गए थे। उन्होंने लूला की जीत को उसी तरह से अस्वीकार कर दिया जैसे ट्रंप अपनी हार स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। आपको दोनों जगह घटनाक्रमों में गजब की समानता दिखाई देगी। फर्क इतना है कि ट्रंप राष्ट्रपति भवन में जमे हुए थे और बोलसोनारो लूला के राष्ट्रपति पद के शपथ ग्रहण से एक दिन पहले ही अमेरिका भाग चुका था। यही दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों का बुनियादी चरित्र होता है। जनाक्रोश को देखते ही उनकी देशभक्ति काफूर हो जाती है और अपने मूल मालिक के यहां शरणागत हो जाते हैं। (दुनिया के सभी तानाशाह जनाक्रोश के डर से भागकर अमेरिका या यूरोपीय साम्राज्यवादियों के यहां ही शरण लेते हैं।)

जिस समय यह सब घटित हो रहा था राष्ट्रपति पर लूला डिसिल्वा अपने गृह राज्य में बाढ़ से हुए नुकसान के आकलन के लिए गए हुए थे। लौटते ही उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हुए हमले की कड़ी निंदा की। राष्ट्रपति ने कहा कि यह सब पूर्व राष्ट्रपति के इशारे पर हो रहा है। वे जनता के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने घोषणा की कि दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। इसी क्रम में ब्राजील के सर्वोच्च न्यायालय ने ब्रासीलिया के गवर्नर को 90 दिन के लिए सस्पेंड कर दिया।

विश्व में दक्षिणपंथ का उभार और बुर्जुआ लोकतंत्र

यूरोप, अमेरिका, एशिया और अफ्रीका तक में इस समय तीस के दशक का नजारा दिख रहा है। उदारीकरण की नीतियों के गंभीर संकट में फंस जाने से पूंजीपति वर्ग अपने बचाव के लिए फासिस्ट दक्षिणपंथी विचार वाली ताकतों को प्रश्रय देने में लगा है। ऐसा लगता है कि पूंजीवादी जनतंत्र अपनी प्रासंगिकता खो चुका है और वह स्वयं के द्वारा घोषित लोकतांत्रिक नैतिकता और मूल्यों से पीछे हट रहा है।

पूंजी के केंद्रीकरण और भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढ़ती जकड़न (जो लूट की बहुत ही जटिल संस्थाओं के द्वारा संचालित होती है) से यूएसए, यूके, इटली, फ्रांस, जर्मनी, तुर्की, भारत, श्रीलंका और रूस जैसे देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं को धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों की गंभीर चुनौती झेलनी पड़ रही है। लोकतंत्र का रखवाला मानने वाला यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका ट़ृंप जैसे कट्टरपंथी और गैर लोकतांत्रिक व्यक्तियों का गवाह रहा है। जिसने जनता के लोकतांत्रिक निर्णय को मानने से इनकार कर दिया था।

हम जानते हैं कि यूएसए का निर्माण दुनिया भर के विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं, रंग और नस्ल के लोगों के समन्वय से मिलकर हुआ है। लेकिन ‘अमेरिका फर्स्ट’ जैसे उन्मादी नारे देने वाले ट्रंप अमेरिका की मूल अवधारणा पर ही हमला किया। 4 साल के राष्ट्रपति शासन में उन्होंने “यही अमेरिका है” के विचार को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त किया।

दक्षिणपंथ (फासीवाद) की राजनीति में अंतर्निहित समानता

प्रत्येक देश की राष्ट्रीय विशेषताओं के बावजूद फासीवाद में एक समानता दिखाई देती है। वे अपने देश में धर्म भाषा जीवन प्रणाली और नस्ल की महानता का काल्पनिक आख्यान गढ़ते हैं। अपने से भिन्न भाषाओं संस्कृतियों और धर्मों के प्रति घृणा पैदा करके आंतरिक उन्माद खड़ा करते हैं। धर्म या नस्ल की श्रेष्ठता कायम करने के लिए लंपट गिरोहों को संगठित करते हैं। देश के अंदर आंतरिक दुश्मन गढ़कर इन शत्रुओं से मुक्ति के नाम पर अपने ही देश के लोगों का जनसंहार करने के लिए मजबूत राष्ट्र यानी सैन्य राष्ट्रवाद की पुरजोर वकालत करते हैं।  अंदर और बाहर से लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला करते हुए अंततोगत्वा लोकतांत्रिक संस्थाओं को घोषित या अघोषित रूप से नष्ट कर तानाशाही थोप देते हैं।

पूंजी के मालिकों (आज के समय में कॉरपोरेट कंपनियों) की सेवा यानी लूट को सुगम बनाने के लिए जनता में फूट डालकर नफरत और हिंसा के द्वारा जन एकता को विखंडित कर देते हैं। राष्ट्र के नाम पर राष्ट्र को ही बंधक बना लेते हैं। लोकतांत्रिक शक्तियों से घृणा इनकी खासियत है। संविधान के तहत चुनकर आने के बावजूद हर समय संविधान की अवहेलना करते हुए उसे कमजोर करने में व्यस्त रहते हैं।

अंततोगत्वा ये फासीवादी ताकतें राष्ट्र के लिए अभिशाप में बदल जाती हैं। व्यापक जनता की दरिद्रता भूख और कुछ हाथों में पूंजी और सत्ता के केंद्रीकरण के द्वारा लोकतंत्र को खत्म कर देते हैं। जिससे जन विरोधी ताकतों के अभ्युदय की परिस्थिति भी तैयार होती है।

ट्रंप, बोलसोनारो और मोदी की दोस्ती

भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी ने हर समय ट्रंप को अपना मित्र कहा और बोलसनारो को खास महत्व दिया है। दोनों भारत के विशिष्ट मेहमान रह चुके हैं। आप जानते ही हैं कि कोरोना के मंडराते खतरे के मध्य हमारे मोदी जी ने “नमस्ते ट्रंप” जैसा आयोजन करोड़ों रुपया खर्च करके गुजरात में किया गया था।

यही नहीं भारत के गणतंत्र दिवस पर विशेष मेहमान के रूप में बोलसोनारो को संभवत 2019 में आमंत्रित किया गया था। स्वाभाविक है कि अमेरिकी-इजरायली रणनीति के पैरोकार संघ और भाजपा का राजनीतिक चक्र बोलसनारों के साथ जुड़कर पूरा हो जाता है।

ब्राजील और भारत में समानता

अमेजन नदी घाटी दुनिया के सबसे बड़े वनों के क्षेत्र से आच्छादित है। जिसे विश्व का फेफड़ा कहा जाता है। बोलसोनारो ने सत्ता में आने के बाद अमेजन के जंगलों को जलाना-लूटना और वहां के स्थानीय निवासियों को खदेड़ना शुरू किया। एक अनुमान के अनुसार 10 लाख हेक्टेयर से अधिक जंगल माफियाओं ने काट डाले। जिसके खिलाफ पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों ने ब्राजील में लंबा आंदोलन चलाया। जनता को भारी दमन झेलना पड़ा। लेकिन तानाशाह बोलसोनारो पर इसका कोई असर नहीं हुआ। ब्राजील के नागरिक  चिंतित हो उठे।

भारत में बस्तर (छत्तीसगढ़) से लेकर झारखंड तक अडानी- अंबानी जैसे कॉरपोरेट घरानों को जंगल और खनिज संपदा सौंपने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा आदिवासियों और छोटे गरीब किसानों को जंगल और जमीन से बेदखल करने के लिए की जा रही बर्बरता की गंभीरता को अगर आप समझते हैं तो ब्राजील में हुए विध्वंस की भयावहता को आप समझ सकते हैं।

तानाशाही का नया ट्रेंड

यूएसए जैसे गणराज्य में जहां लोकतांत्रिक संस्थाएं अभी मजबूत अवस्था में है वहां ट्रंप जैसे नस्लवादी तानाशाह ने चुनाव में अपनी हार स्वीकार करने से इंकार कर दिया और राष्ट्रपति भवन में लंबे तक जमे रहे। उनके समर्थकों ने राष्ट्रपति भवन में प्रवेश कर भारी उत्पात मचाया। मोदी के मित्र बोलसोनारो के समर्थकों ने भी चुनाव में पराजय के बाद उसी तरह की पटकथा लिख डाली। लेकिन जनता और सेना का समर्थन न मिल पाने के कारण उनका प्रयास असफल गया।

भारतीय विशेषता

भारत में भी हम दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा के चुनाव हारने के बाद इस प्रवृत्ति को दूसरे अर्थों में देख सकते हैं। पिछले समयों में कई राज्यों में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन गैर लोकतांत्रिक भाजपा ने इसे अंदर से कभी भी स्वीकार नहीं किया। अकूत पैसे और केंद्र की सत्ता की ताकत (ईडी, सीबीआई, एनसीबी, आईबी, आईटी आदि) का नंगा इस्तेमाल करके राज्यों में सरकारें गिराई जाने लगीं। विधायकों और मंत्रियों को जेल भेजा जाने लगा और खरीद फरोख्त का नंगा खेल खेलकर सरकारें गिरायी गयीं और भाजपा की सरकारें बनी। अब तक 5 राज्यों में सीधा तख्तापलट हो चुका है।

इसलिए भविष्य के संकेत बहुत खतरनाक हैं। भारत के लोकतांत्रिक जन गण इस बात को जितना जल्दी समझ लेंगे। हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए उतना ही बेहतर होगा। 2024 वह निर्णायक मोड़ है। जहां अगर भारत की जनता ने भाजपा को कड़ी शिकस्त नहीं दी तो संभव है अल्पमत में आने के बाद भी सत्ता का दुरुपयोग करते हुए भाजपा और मोदी केंद्र की सत्ता पर काबिज बने रहें और लोकतंत्र के मृत्यु की अंतिम पटकथा लिख डाले।

ट्रंप और जायर बोलसोनारो की हार के बाद घटित घटनाओं से भारत के लोकतांत्रिक नागरिक एक बात ध्यान रखें कि बोलसोनारो की पराजय वामपंथी विचारधारा वाले लूला डिसिल्वा के हाथों हुई थी। उनकी पार्टी के पास वाम विचारों वाले कार्यकर्ताओं की एक संगठित टीम है। जो दक्षिणपंथी हमलों को नाकाम करने में सफल रही। अमेरिका में लोकतांत्रिक संस्थाएं सशक्त हैं। उन्हें ट्रंप कमजोर नहीं कर सके थे। इसलिए अमेरिका में तख्ता पलट संभव नहीं था।

लेकिन जाति-धर्म में विभाजित भारत में दुर्भाग्य है कि विपक्षी राजनीतिक दल व्यक्तिवादी, संकीर्ण, लोकतंत्र के प्रति कमजोर प्रतिबद्धता और तुच्छ स्वार्थों के कारण संघर्षशील नागरिक व कार्यकर्ता तैयार कर पाने में असफल रहे हैं। जिस कारण से भारत में फासीवाद के खिलाफ लड़ाई थोड़ा जटिल है। लेकिन कठिन कठोर परिश्रम द्वारा सामाजिक राजनीतिक चेतना उन्नत करते हुए हिंदुत्व की वैचारिक स्वीकार्यता और समाज पर उसकी  पकड़ को कमजोर करना होगा। साथ ही फासीवाद विरोधी व्यापक लोकतांत्रिक मोर्चा बनाने के अलावा कोई सरल सीधा रास्ता नहीं है। हमें इस दिशा में अभी से ठोस और चौतरफा प्रयास करना चाहिए।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता हैं)

जयप्रकाश नारायण
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जयप्रकाश नारायण