बदलने लगी है देश की हवा

हिंदुत्व अपने दरबे में पहुंच गया है। मोदीत्व की खौलती कड़ाही में हिमाचल की बर्फ पड़ गयी है। और उपचुनावों के जरिये देश ने एक सुर में बीजेपी को न बोल दिया है। हालिया हुए देश में चुनावों के यही संकेत हैं। गुजरात, हिमाचल, दिल्ली और देश के अन्य उप चुनावों को देखा जाए तो गुजरात में केवल बीजेपी जीती है। बाकी में इसे मुंह की खानी पड़ी है। बावजूद इसके मुख्यधारा का मीडिया कुछ ऐसा माहौल बना रहा है जैसे मोदी जी का देश में अभी भी डंका बज रहा है। लेकिन देश के बौद्धिक, जानकार और समझदार हिस्से को असलियत पता चल गयी है और इस बात का अहसास संघ-बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को भी है।

पिछले आठ सालों में जिस एक हिंदुत्व के रास्ते पर देश को ले जाने की कोशिश की जा रही थी इन चुनावों ने उससे तौबा कर लिया है। हिमाचल में ओल्ड पेंशन स्कीम मुद्दा बना। तो अडानी के लूट का मॉडल सेब किसानों को रास नहीं आया। अभी तक राष्ट्रवाद के सबसे अगुआ प्रहरी रहे रिटायर्ड सैनिकों ने भी अग्निवीर के मुद्दे पर बीजेपी से किनारा कर लिया। 

और इस तरह से सभी ने मिलकर जयराम ठाकुर की कुर्सी छीन ली। बीजेपी के पास सूबे की जनता को देने के लिए कुछ नहीं था सिवाय धारा-370 का राग अलापने और अयोध्या मंदिर के निर्माण की झलक पेश करने के। वहां न हिंदुत्व चला और न ही पीएम मोदी का चेहरा। ऐसे में स्थानीय सवालों और जनता के अपने मुद्दे पर हुए चुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी। हालांकि इसमें बीजेपी के तमाम बागियों का भी हाथ है। बताया जा रहा है कि तकरीबन 22 सीटों पर बीजेपी के बागी प्रत्याशी खड़े थे। ऐसे में समझा जा सकता है कि संगठन और अनुशासन का राग अलापने वाली बीजेपी अंदरूनी तौर पर कितनी कमजोर हो गयी है।

और यह तब हुआ है जब कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं में केवल प्रियंका गांधी ही चुनाव प्रचार अभियान में हिस्सा ले सकीं। अपनी भारत जोड़ो यात्रा के चलते राहुल गांधी जा नहीं पाए। और दूसरा कोई ऐसा चेहरा नहीं था जो भीड़ खींच सकता था। यहां बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस ज़रूर ज्यादा संगठित होकर लड़ी। राजीव शुक्ला, भूपेंद्र हुडा और भूपेश बघेल की तिकड़ी ने संगठित होकर अभियान चलाया और उसका फल भी उन्हें मिला। बगावत की आशंका कांग्रेस खेमे में भी थी लेकिन जी-23 के अगुआ आनंद शर्मा ने ऐसी कोई हरकत नहीं की जिससे पार्टी को नुकसान पहुंचे। जबकि केवल प्रत्याशियों के स्तर पर ही नहीं बल्कि शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर भी बीजेपी में बड़ा अंतरविरोध था। वह जेपी नड्डा बनाम अनुराग ठाकुर और जयराम ठाकुर बनाम अनुराग ठाकुर या इसी तरह के कई रूपों में सामने आता रहा। इससे यह बात पता चलती है कि अगर विपक्ष एकजुट होकर लड़े तो सत्ता पक्ष के खेमे में भी दरार पैदा की जा सकती है।

बात अगर एमसीडी की की जाए तो इसका चुनाव दूसरे राज्यों की ही तरह इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह देश की राजधानी में हुआ है। जहां केंद्र की सत्ता सीधे चीजों को प्रभावित कर रही है। सीधे तौर पर कहा जाए तो केंद्र भी दिल्ली की सत्ता में भागीदार है। और अपने एलजी के जरिये समानांतर सत्ता का संचालन कर रहा है। एमसीडी का चुनाव एक तरह से ग्रास रूट का चुनाव था। जिसके जरिये सच्चे मायने में जनता के रुख का पता चला है। और उसने बीजेपी को लाल झंडी दिखा दी है। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि आप को भी जिस स्तर की सफलता की उम्मीद थी वह उसे नहीं हासिल हो सकी।

राजधानी के अल्पसंख्यकों ने सीधे तौर पर आप को न कर दिया है। और उसके दक्खिन टोले के साथ गलबहियां को चिन्हित करते हुए उससे दूरी बना ली है। इसका लाभ कांग्रेस को मिला है। पार्टी पहली बार पिछले 10 सालों में खड़े होने के लिए अपनी जमीन बनाती दिखी है। बहरहाल अब यह बात कही जा सकती है कि मोदी के लिए दिल्ली वह दिल्ली नहीं रही जो लोकसभा चुनावों में सात की सातों सीटें उनकी झोली में डाल देती थी।

और इन सबसे ज्यादा बड़ा संकेत देश में हुए लोकसभा और विधानसभा के उप चुनावों ने दिया है। मैनपुरी लोकसभा सीट पर 65 फीसदी वोट लेकर डिंपल यादव की जीत ने सपा के पुनर्वापसी का संकेत दिया है। बीजेपी को यहां महज 35 फीसदी वोट मिले हैं। जबकि योगी ने इस सीट को हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। लेकिन मैनपुरी की जनता सपा के साथ लौहस्तंभ बनकर खड़ी हो गयी। सूबे की खतौली सीट पर भी विपक्ष का कब्जा रहा। यहां आरएलडी के प्रत्याशी मदन भैया जीते। अकेले रामपुर सीट पर बीजेपी जीती। लेकिन यह जीत भी उसको लोकतंत्र को कब्र में पहुंचा कर मिली है। चुनाव के दिन यहां अल्पसंख्यक मतदाताओं को बूथ पर पहुंचने से रोकने के लिए क्या-क्या करतूतें की गयीं उसके वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हैं।

अभी तक पुलिस और प्रशासन ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को बूथों पर ले जाने में सहयोग करता रहा है लेकिन यहां खाकीधारी बिल्कुल उल्टी भूमिका में खड़े हो गए। उन्होंने विपक्ष के पक्ष में पड़ने वाले वोटों और उसमें भी खासकर मुस्लिम मतदाताओं को बूथ तक न पहुंचने देने की हर संभव कोशिश की। जिसका नतीजा रहा कि यहां महज 33 फीसदी वोट पड़े। मतदान के दिन पुलिस के डंडा फटकारने और बगैर वोट डाले अल्पसंख्यक मतदाताओं के अपने घरों को लौटने वाले वीडियो लगातार सामने आते रहे लेकिन चुनाव आयोग ने सब कुछ जानते हुए भी चुप्पी साध रखी थी। और चुनाव आयोग यह उस समय कर रहा था जब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ बार-बार उसका जमीर जगाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन इस चुनाव ने साबित कर दिया कि वह कब्र की सात परतों के भीतर दफ्न हो चुका है। और उसे फिर से इतनी आसानी से जिंदा कर पाना मुश्किल है। बिहार की एक विधानसभा सीट पर ज़रूर बीजेपी की जीत हुई है लेकिन उसके वोटों का अंतर महज एक प्रतिशत है। इसके अलावा राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में बीजेपी औंधे मुंह गिर पड़ी है। यहां खासे मार्जिन से विपक्ष के प्रत्याशी जीते हैं।

अब रही बात गुजरात की तो हमेशा की तरह एक बार फिर यह अपवाद साबित हुआ है। इस बात में कोई शक नहीं कि 27 सालों में पहली बार जनता के मुद्दे सामने आए हैं। और चुनाव में उस पर बात हुई है। लेकिन आखिर में सूबे ने व्यवहार हिंदुत्व के स्वतंत्र किले के तौर पर ही किया है। विपक्ष के वोटों के बंटवारे ने सत्ता बदलने की संभावनाओं का अंत कर दिया था। जिसने न केवल बीजेपी को रिकॉर्ड बनाने में मदद की बल्कि उसके लिए जीत का रास्ता भी आसान कर दिया। गुजरात अपने तरह की पहेली बन गया है। यहां समस्याएं किसी और सूबे के मुकाबले ज्यादा हैं। जनता उन पर बात करती हुई भी दिखती है। बात करने पर उसकी पीड़ा सामने भी आती है।

लेकिन जब वोट की बारी आती है तो उस पर हिंदुत्व का नशा चढ़ जाता है और वह अपनी समस्याओं को भूल जाती है। इस बात में कोई शक नहीं कि इस बार मोदी और शाह परेशान थे। अनायास नहीं शाह दो महीने तक खंभा गाड़े खड़े रहे। और मोदी को 50 से ज्यादा रैलियां करनी पड़ीं। और बाद में जब रैलियों में उस तरह से भीड़ नहीं उमड़ी तो उन्होंने रोड शो का सहारा लेना शुरू कर दिया। और आखिर में मतदान के दिन भी आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए तीन किमी का रोड शो किया। लेकिन इस पूरे प्रचार के दौरान उन्होंने हिंदुत्व के कोर एजेंडे को कभी नहीं छोड़ा। 

यह बात सही है कि पहले की तरह मोदी उस तरह से इन मुद्दों पर मुखर नहीं हुए। लेकिन अमित शाह ने जब यह बात कही कि 2002 में उन्होंने स्थाई शांति ला दी थी और इस चुनाव में वह शांति खतरे में है। तो उसका संकेत मतदाताओं के लिए स्पष्ट था। पार्टी ने अपने मैनिफेस्टो में मदरसों और वक्फ बोर्डों की जांच का बाकायदा वादा किया था। बिल्किस बानो के बलात्कारियों को न केवल छोड़ने बल्कि उसको छुड़वाने के सूत्रधार को टिकट देकर इस बात को और ज्यादा स्पष्ट कर दिया गया था। बताया जा रहा है कि चुनाव से ठीक पहले जूनागढ़ की पहाड़ियों पर स्थित मस्जिदों और दरगाहों को जमींदोज कर दिया गया। और इसे मोदी जी ने इशारे में कहा- देखिए सफाचट्ट कर दिया।

इसी तरह से सूरत में वर्षों पुरानी एक दरगाह को रोड के किनारे से रातों-रात म्यूनिसिपल्टी के कर्मचारियों ने इस तरह से साफ किया कि वहां उसका कोई निशान ही नहीं रहा। और ऊपर से ओवैसी साहब को लगा दिया गया जो लगातार विषवमन कर रहे थे। और मुस्लिम-मुस्लिम कहकर हिंदुत्व की भट्टी में कोयला डालने का काम कर रहे थे। जिग्नेश को हराने के सिवा और उनका क्या मकसद हो सकता है जब उन्होंने वडगाम में अपनी चार-चार सभाएं कीं। और अपना प्रत्याशी दलित दिया। बावजूद इसके जिग्नेश जीत गए और वहां के मुसलमानों ने ओवैसी को खारिज कर दिया। और वह जान गए कि गुजरात में ओवैसी किस मकसद से आए हैं। अनायास नहीं उन्हें 1 फीसदी से कम वोट मिले हैं।

हिंदुत्व की इन्हीं खुराकों ने एक बार फिर से बीजेपी को सत्ता रूढ़ किया है। यह बात सही है कि सीट के टर्म में बीजेपी ने रिकॉर्ड बनाया है लेकिन वोट के मामले में अभी भी वह माधव सिंह सोलंकी से पीछे है। जिसमें उनके रहते कांग्रेस ने 1985 के विधानसभा चुनाव में 55 फीसदी वोट हासिल किए थे।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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