Friday, March 29, 2024

सचमुच में गांव वाले मशालें लेकर उतर पड़े हैं: बल्ली सिंह चीमा

जनकवि बल्ली सिंह चीमा किसान आंदोलन की शुरुआत से ही इसमें शामिल हैं और अपने जनगीतों से इसकी धार और पैनी करते जा रहे हैं। पिछले दिनों वे बाजपुर में चल रहे आंदोलन में थे तो अगले हफ्ते भर सिंघु बॉर्डर पर रहेंगे। इस दौरान कविता, किसान और आंदोलनों पर उनसे बात की राइजिंग राहुल ने। प्रस्तुत है पूरी बातचीत-

प्रश्न: आप लगातार किसान आंदोलन में शामिल हैं, इस आंदोलन को किस रूप में देख रहे हैं?
बल्ली सिंह चीमा: मैं इस आंदोलन में शुरू से ही शामिल हूं। जब से किसान पंजाब से चले हैं, उसी के दो दिन बाद मैंने गीत लिखे और मुझे लोग कह रहे हैं कि इस आंदोलन ने मेरी वह वाली कविता, ‘ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे, लोग मेरे गांव के’, उसे सार्थक कर दी है। पहले तो इस कविता में ये भावना थी कि ऐसा हो। मगर पहली बार ऐसा हुआ है कि गांव के लोग वाकई चल पड़े हैं और इस कविता को व्यापक अर्थ मिला है। जब मैं पहली बार गाजीपुर बॉर्डर पर बोला, तो मेरे बोलने से पहले कहा कि जनकवि बल्ली सिंह चीमा समर्थन देने आए हैं। तो मैं वहां बोला कि भाई, मैं हिस्सा लेने आया हूं। मैं खुद किसान हूं।

प्रश्न:अब इस आंदोलन में आगे आपकी क्या रूपरेखा है, क्या कर रहे हैं?
बल्ली सिंह चीमा: मैं अभी सिंघु बॉर्डर पर हूं और हफ्ते भर आंदोलन में ही रहूंगा। आंदोलन में जब भाषण सुन-सुन कर लोग ऊब जाते हैं तो वो कविता की डिमांड करते हैं। मैंने उससे प्रभावित होकर पंजाबी में भी एक-दो गीत लिखे हैं, जो बहुत पॉपुलर हो रहे हैं। ‘अपणें मना चों लोकां ने, तेरा हर इक डर कट दित्तै। राजधानी नूं कहो, लोकां ने डरना छड़ दित्तै।’ मतलब कि अपने दिलों में तेरा हर एक डर लोगों ने निकाल दिया है और राजधानी को ये बता दो कि लोगों ने डरना छोड़ दिया है। किसान नेताओं ने इन कृषि कानूनों को अपने लिए डेथ वारंट बताया है। डेथ वारंट में संशोधन नहीं किया जाता है, वह वापस होता है। इसलिए किसान अड़े हैं और मैंने लिखा है, ‘संघर्ष करना सीख लिया है, खुदकुशियां करना छोड़ दिया है, राजधानी से कहो, पिंडा (गांव) ने डरना छोड़ दिया है।’

प्रश्न: लंबे अरसे से हम सभी आपके गीत सुनते रहे हैं। हमें बताइए कि आप आंदोलनों से कैसे जुड़े? कैसे जनगीत लिखना शुरू किया?
बल्ली सिंह चीमा:1972 में मैं बाबा नानक कॉलेज, अमृतसर पंजाब में पढ़ रहा था, तो वहां सुरजीत पातर थे। सुरजीत पातर पंजाब के बड़े साहित्यकार हैं। अभी वे पंजाब साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं और अभी हाल ही में उन्होंने किसानों के समर्थन में अपना पद्मश्री सम्मान लौटाया है। वो और पंजाबी कहानीकार जोगिंदर सिंह हमें पढ़ाते थे और हमें पाश (अवतार सिंह संधू पाश, क्रांतिकारी पंजाबी कवि) के बारे में बताया करते थे। ये दोनों मेरे उस्ताद हैं। तो मेरा मन था कि मैं पाश जैसा बनूं। सन् 1972 में पाश कभी जेल चले जाते थे, कभी बाहर आ जाते थे, क्रांतिकारी कविताएं लिखते थे। तो वो एक तरह से हमारे हीरो थे। बाद में उनसे कई बार कवि सम्मेलनों में मुलाकात भी हुई। मगर मेरे साथ दिक्कत यह थी कि उन दिनों मुक्त कविताएं खूब लिखी जा रही थीं, मगर मेरा मन छंदबद्ध कविताओं में ही लगता, क्योंकि उनमें संगीत होता है। संगीत मुझमें पैदायशी है। अभी किसान आंदोलन पर मैंने आह्वान किया है, ‘मौत के डर को छोड़छाड़ के, तू जीने के काबिल हो। जिंदा है तो दिल्ली आ जा संघर्षों में शामिल हो। जाति धर्म से ऊपर उठ जा इंसानों में शामिल हो, जिंदा है तो दिल्ली चलकर संघर्षों में शामिल हो।’

प्रश्न: अभी तक ऐसा ही चलता रहा है कि समाज का कमजोर तबका आंदोलन करता रहा है। यह पहला आंदोलन है, जिसमें समाज का अमीर तबका भी शामिल है और गरीब तबका भी। तो इसमें वर्ग की जो समझ है, इस पर कोई फर्क पड़ेगा या यह बदलेगा?
बल्ली सिंह चीमा: इसमें पचास एकड़ का मालिक और दो बीघे के मालिक भी एक साथ आ गए हैं। वजह यह कि दोनों को पता है कि उनकी जमीन छिन जानी है। दोनों को पता है कि मंडियां खत्म होने और खेती को बाजार के हवाले करने से क्या होने जा रहा है। बाजार किसानों को पहले ही एमएसपी से कम भाव दे रहा है। खेती में लागत मूल्य लगातार बढ़ता जा रहा है। खुद कृषि मंत्री के क्षेत्र से खबर आई है कि कंपनी अनाज लेकर भाग गई, किसानों को चेक दिया, जो बाउंस हो गया। तो सारे वर्ग, सभी धर्म और सभी प्रदेशों के किसान साफ देख रहे हैं कि क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है। मगर यहां अमीर किसान और गरीब किसान वाली बात है। कह सकते हैं कि यह वर्गबोध इन्हीं किसानों में खत्म हुआ है, मगर ऐसा नहीं है कि यह वर्गबोध समूचे भारतीय समाज से खत्म हो गया है और इसे चिन्हित भी किया जाना चाहिए।

प्रश्न: आपने कई आंदोलन देखे हैं। किसान आंदोलन और अब तक देखे आंदोलनों में क्या फर्क देखते हैं?
बल्ली सिंह चीमा:मैंने जेपी आंदोलन भी देखा। राम मंदिर आंदोलन भी देखा, लेकिन ये आंदोलन देश का एकदम अलग आंदोलन है। बेसिक फर्क यह है कि इसमें जातिवाद खत्म हुआ है, धर्म खत्म हुआ है और लोगों में एक-दूसरे से प्यार बहुत है। लोग एक दूसरे के लिए लड़ने-मरने को तैयार हैं। हुड़दंगबाजी नहीं है। इतना जेपी की लहर में हमने नहीं देखा, इतना राम लहर में हमने नहीं देखा। सबसे बड़ी बात यह कि यह आंदोलन मेले की तरह है। यहां खाने-पीने की हर चीज फ्री है। नहाने का गर्म पानी है। अब तो वहां किसान मॉल भी खुल गया है, जहां किसानों के लिए सब फ्री है। बस सुबह फ्रेश होने की दिक्कत है। सरकार ने जो इंतजाम किए हैं, वो एकदम नाकाफी हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इतने बड़े आंदोलन में किसानों का तालमेल जबरदस्त है। हर बार प्रेस कॉन्फ्रेंस में इनकी नई कमेटी होती है, और उसका फैसला वही होता है, जो सब किसान मिलजुल कर करते हैं। जैसे जेपी आंदोलन में जो जेपी कहते थे, वही होता था। वैसी तानाशाही यहां नहीं है। या फिर राम मंदिर आंदोलन में जिस तरह की कट्टरता थी, वैसी कोई भावना इस आंदोलन को छूकर भी नहीं गई है। यहां उनकी ही चल रही है, जिनके विचार खुले हैं।

प्रश्न: फिर सरकार क्यों नहीं समझ रही है?
बल्ली सिंह चीमा:मोदी जी की समस्या यह नहीं है कि किसान मामले को समझ नहीं रहे हैं। उनकी समस्या यह है कि किसान इस पूरे मामले को समझ गए हैं, और किसान देख रहा है कि आने वाले पांच छह सालों में सारी खेती पर कॉरपोरेट कब्जा करने जा रहा है। सरकार की दिक्कत वही है। वह नाम तो किसानों का ले रही है, मगर काम कॉरपोरेट के लिए कर रही है। वे सब समझ रहे हैं, बस दिखावा कर रहे हैं कि नहीं समझ रहे हैं। तीनों कृषि कानून सोच समझ कर ही लाए गए हैं।

प्रश्न: आमतौर पर मध्यवर्ग किसी भी आंदोलन से दूर ही रहता है। इस आंदोलन में आपको यह कहां दिखाई देता है?
बल्ली सिंह चीमा:जो शहरी उच्च मध्यवर्ग है, जिसका खेतों से या किसान से कोई वास्ता नहीं है, वो इस आंदोलन से नहीं जुड़ रहा है। मगर बड़े शहरों से अलग, छोटे शहरों में जो व्यापारियों का एक बड़ा मध्यवर्ग है, जो किसी न किसी तरह से किसान से जुड़ा हुआ है, वह पूरा किसानों के साथ खड़ा है। यह वही मध्यवर्ग है, जिसने बीजेपी की सरकार बनाई, उसे वोट दिया। आज उसी व्यापारी को बीजेपी दलाल बता रही है।

प्रश्न: इस आंदोलन का भविष्य और आगे के आंदोलनों पर इसका प्रभाव क्या देखते हैं?
बल्ली सिंह चीमा:इसका भविष्य तो मैं नहीं जानता, लेकिन ये मैं बता दूं कि जो तीनों कृषि कानून हैं, इन्हें वापस कराए बगैर हम वापस नहीं जाएंगे। किसानों को पता है कि अगर ये कानून वापस नहीं करा पाए तो सरकार आगे जो मर्जी, वह करेगी, और फिर वे खत्म हो जाएंगे। फिर इतना बड़ा आंदोलन फिर कभी हो पाए या न हो पाए, इसलिए फैसला अभी ही करके जाएंगे। सरकार कहती है कि हमारी जुबान पर विश्वास करो। कालेधन के लिए नोटबंदी की, सबने देखा कि नुकसान हुआ। जीएसटी लाए, वो धोखा निकला। दो करोड़ रोजगार का वादा किया, वो जुमला निकला। विधायकों की तरह किसानों को खरीदने की कोशिश कर रहे हैं। तो किसान इस सरकार पर नहीं, लिखे पर ही विश्वास करते हैं। महात्मा गांधी ने भले ही सत्य, अहिंसा की बात बाबा नानक, महात्मा बुद्ध से ली, आज वही बात किसानों के काम आ रही है और किसान उस पर चल रहे हैं। और उसी में चलने में फायदा है, और इसी का लाभ आगे होने वाले आंदोलन भी उठाएंगे। 

प्रश्न: धुर वामपंथ से आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़े? यह किसी वैचारिक बदलाव का सूचक है?
बल्ली सिंह चीमा:बिल्कुल नहीं। पहली बात यह कि मैं मार्क्सवादी हूं, मगर मैं कभी किसी पार्टी का कार्ड होल्डर नहीं रहा। दूसरी बात यह कि जैसे बंगाल खत्म हो गया था, वहां जो गलतियां कीं, किसानों पर गोलियां चलाईं, विचारधारा को बदनाम कर दिया। रूस या चीन में जब विचारधारा का पतन हुआ, तब भी मेरे में इतनी निराशा नहीं आई थी, जितनी कि इस घटना के बाद आई। इस निराशा में मैंने देखा है कि कई वामपंथी भगवान की पूजा करना शुरू कर देते हैं, मगर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मुझे यह पार्टी दक्षिणपंथी पार्टियों में सबसे अच्छी लगी और भी कई साथियों ने यह पार्टी जॉइन की। तो निराशा को हराने के लिए मैंने यह पार्टी जॉइन कर ली थी। चूंकि अब मेंबर नहीं हूं, इसलिए पार्टी में सवाल नहीं उठा सकता, पर आज भी मैं इस पार्टी का समर्थक हूं।

(साक्षात्कारकर्ता पत्रकार हैं।)

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