लैंगिक असमानता का तात्पर्य लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है। परंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमज़ोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर रहा। भारतीय समाज में लैंगिक असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार, “पितृसत्तात्मकता सामाजिक संरचना की ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था है, जिसमें आदमी औरत पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है और उसका शोषण करता हैं।” महिलाओं का शोषण भारतीय समाज की सदियों पुरानी सांस्कृतिक घटना है। पितृसत्तात्मकता व्यवस्था ने अपनी वैधता और स्वीकृति हमारे धार्मिक विश्वासों, चाहे वो हिन्दू, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म से ही क्यों न हों, से प्राप्त की है।
उदाहरण के लिये, प्राचीन भारतीय हिन्दू नीतियों के कथित प्रवर्तक और भाष्यकार मनु के अनुसार, “ऐसा माना जाता है कि औरत को अपने बाल्यकाल में पिता के अधीन, शादी के बाद पति के अधीन और अपनी वृद्धावस्था या विधवा होने के बाद अपने पुत्र के अधीन रहना चाहिये। किसी भी परिस्थिति में उसे खुद को स्वतंत्र रहने की अनुमति नहीं है।”इसलिए वह पराश्रित रहने के लिए अभिशप्त थी। मुस्लिमों में भी समान स्थिति है और वहाँ भी भेदभाव या परतंत्रता के लिए मंजूरी धार्मिक ग्रंथों और इस्लामी परंपराओं द्वारा प्रदान की जाती है।
इसी तरह अन्य धार्मिक मान्याताओं में भी महिलाओं के साथ किसी न किसी तरह से भेदभाव हो रहा है। महिलाओं को समाज में निचले स्तर पर रखने के कुछ कारणों में से अत्यधिक गरीबी और शिक्षा की कमी भी रही है। गरीबी और शिक्षा की कमी के कारण बहुत सी महिलाएं सामाजिक गुलामी या बेगार करने के लिये मजबूर होती हैं। पैतृक संपत्ति में भी उनकी हिस्सेदारी नहीं होती थी। क्वेज़ोन सिटी, फ़िलिपींस के कृषि सुधार के लिए काम करने वाले एक गैर-लाभकारी नेटवर्क एएनजीओसी (एशियन एनजीओ कोएलीशन फॉर एग्रेरियन रिफॉर्म एंड रूरल डेवलपमेंट) के कार्यकारी निदेशक नाथानिएल डॉन मार्केज कहते हैं कि एशिया में भूमि को लेकर संघर्ष तेजी से बढ़ रहा है।
ऐसा सिर्फ उद्योग की वजह से नहीं हो रहा है बल्कि सामाजिक बहिष्कार, भेदभाव और वर्षों से चले आ रहे एकाधिकार की वजह से भी हो रहा है। जमीन पर उद्योग लगाने के दबाव से आदिवासियों को जमीन का हक मिलना मुश्किल हो गया है। पारिवारिक संपत्ति बंटवारे में महिलाओं को उनका हिस्सा दिलाने में भी भूमि सुधार असफल रहा।” एएनजीओसी ने हाल ही में फिलीपींस, भारत और बांग्लादेश सहित एशिया के आठ देशों में सर्वे किया। इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि भूमि सुधार कानून, जो आदिवासियों और महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देता है, पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया। जमीनों को फिर से सही तरीके नहीं बांटा गया। मार्केज कहते हैं कि जब भी आदिवासी लोग जमीन पर दावा करते हैं, प्रायः उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। ब्रिटेन स्थित ग्लोबल विटनेस की रैंकिंग में पिछले साल फिलीपींस को भूमि सुधार कार्यकर्ताओं के लिए सबसे खतरनाक देश बताया गया।
भारत में जमीन का मालिकाना हक ज्यादातर पुरुषों के नाम होता है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र में काम करने वालों में महिलाओं की भागीदारी एक तिहाई है लेकिन उनके नाम पर मात्र 13 प्रतिशत ही जमीन है। ध्यातव्य है कि देश में 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिंदुओं की है। 2005 में हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम में संशोधन किया गया। महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए। लेकिन तमाम कानूनों के बावजूद सामाजिक प्रथाओं और परंपराओं की वजह से भारत में आज भी महिलाओं को अधिकार नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसी मानसिकता बनी हुई है कि जमीन पुरुषों के नाम पर ही होनी चाहिए। नौकरी के लिए पुरुषों का शहरों में पलायन बढ़ने की वजह से पूरे एशिया में कृषि के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या बढ़ी है। लेकिन अभी भी जमीन का मालिकाना हक महिलाओं के नाम नहीं के बराबर हुआ है।
महिलाओं पर शादी के समय अपनी पैतृक संपत्ति को छोड़ने का दबाव भी बनाया जाता है। 2005 में हिंदू उत्तराधिकार क़ानून में संशोधन करके ये व्यवस्था की गई थी कि महिलाओं को पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन जब महिलाओं की ओर से अधिकारों की माँग की गई तो ये मामले कोर्ट पहुंचे। और कोर्ट पहुंचकर भी महिलाओं के हक़ में फ़ैसले नहीं हुए। हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर फैसले दिए और इन फ़ैसलों में काफ़ी विरोधाभास देखा गया। वर्तमान में महिला समाज को भूमि/संपत्ति संबंधी अधिकार से वंचित रखना वास्तव में उस आधी आबादी अथवा आधी दुनिया की अवमानना है जो एक माँ, बहन और पत्नी अथवा महिला किसान के रूप में दो गज जमीन और मुट्ठी भर संपत्ति की वाजिब हकदार है। भारत में महिलाओं के भूमि तथा संपत्ति पर अधिकार, केवल वैधानिक अवमानना के उलझे सवाल भर नहीं हैं बल्कि उसका मूल, उस सामाजिक जड़ता में है जिसे आज आधुनिक भारत में नैतिकता के आधार पर चुनौती दिया ही जाना चाहिये। भारत विश्व के उन चुनिंदा देशों में से है जहाँ संवैधानिक प्रतिबद्धता और वैधानिक प्रावधानों के बावजूद महिलाओं की आधी आबादी आज भी धरातल पर अपनी जड़ों की सतत तलाश में है।
जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस एमआर शाह ने इस मसले पर ये फ़ैसला सुनाकर महिलाओं के सामने खड़े उस सवाल को हल कर दिया है कि उन्हें पिता की संपत्ति या देयताओं में कितनी हिस्सेदारी हासिल है। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि अब महिलाओं को वही हिस्सेदारी हासिल होगी जितनी उसे उस स्थिति में होती अगर वह एक लड़के के रूप में जन्म लेती। यानी लड़के और लड़की को पिता की संपत्ति में बराबर का उत्तराधिकार मिलेगा चाहे उसके पिता की मौत कभी भी हुई हो। 11 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय नें हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की पुनर्व्याख्या करते हुये एक बार फिर समाज के उस जनमानस में चेतना लाने का प्रयास किया है जो ऐतिहासिक कानून के बाद भी जड़हीन हो चुके सामाजिक मान्यताओं के मुगालते में जी रहा है। बीना अग्रवाल ब्रिटेन की मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी में विकास अर्थशास्त्र और पर्यावरण की प्रोफ़ेसर हैं, उन्हें 1994 में आई किताब “अ फील्ड ऑफ वन्स ओन: जेंडर एंड लैंड राइट्स इन साउथ एशिया” के लिए पुरस्कार भी मिल चुका है।
2005 में उन्होंने लैंगिक समानता के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में बदलाव के लिए नागरिक अभियान चलाया था। उनका महिला अधिकारों के क्षेत्र में प्रतिनिधि काम किया है। उनका मानना है कि “अचल संपत्ति, खासकर ज़मीन, अब भी भारत में लोगों की सबसे अहम संपत्ति है। ग्रामीण इलाकों में यह सपंत्ति, नई संपदा बनाने वाली और आजीविका का ज़रिया है। किसानों के लिए यह बेहद अहम उत्पादक संसाधन है। लेकिन ज़मीन के मालिकाना हक वाले परिवारों में भी, अगर महिलाओं के पास ज़मीन या घर नहीं है, तो वे भी आर्थिक और सामाजिक तौर पर संकटग्रस्त होती हैं। ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा होने से भी महिलाओं को गरीबी का ख़तरा कम हो जाता है, खासकर विधवा या तलाकशुदा मामलों में। जब महिला के पास ज़मीन का मालिकाना हक होता है, तब बच्चों की हालत, स्वास्थ्य और शिक्षा भी बेहतर पाई गई है। किताब लिखने के बाद किए गए शोध में मैंने पाया कि अगर महिला के पास अचल संपत्ति होती है, तो घरेलू हिंसा का खतरा भी काफ़ी कम हो जाता है।
महिलाओं के पास ज़मीन का अधिकार होने से संभावित उत्पादकता फायदे भी बढ़ जाते हैं। ग्रामीण भारत में करीब़ 30 फ़ीसदी कृषि कामग़ार महिलाएं हैं, वहीं 70 फ़ीसदी से ज़्यादा महिलाएं अब भी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। करीब़ 14 फ़ीसदी महिलाएं खेत प्रबंधक भी हैं, हालांकि इस संख्या में बहुत सारी महिलाएं ऐसी हैं, जिनके पति के नौकरी में होने की वजह से वह कृषि कार्य का प्रबंधन करती हैं। जो महिलाएं खेतों का प्रबंधन करती हैं, उनके पास लिए कर्ज़, सब्सिडी लेना और बाज़ार तक पहुंच भी आसान हो जाती है। इसके चलते उनकी फ़सल में काफ़ी सुधार होता है, जिससे देश का कृषि विकास भी होता है। ज़मीन का मालिकाना हक होने से महिलाओं का कई तरह से सशक्तिकरण होता है।
मेरी किताब में मैंने सशक्तिकरण को परिभाषित करते हुए बताया है कि “यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे वंचित (शक्तिहीन) तबकों या व्यक्तियों को शक्ति संबंधों को अपने पक्ष में झुकाने और उन्हें चुनौती देने का अधिकार मिलता है। यह वह शक्ति संबंध होते हैं, जिनसे उन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों में निचली श्रेणी में रहना पड़ता है।” ज़मीनी अधिकारों से महिलाओं की आर्थिक स्थिति भी अच्छी होगी, साथ ही सामाजिक और राजनीतिक लैंगिक भेदभाव को चुनौती देने की उनकी क्षमता भी मजबूत होगी। 1970 के दशक के आखिर में जब गया में दो भूमिहीन महिलाओं को अपने नाम पर पहली बार ज़मीन मिली तो उन्होंने कहा, “हमारे पास जीभ थी, पर हम बोल नहीं सकते थे, हमारे पास पैर थे, पर हम चल नहीं सकते थे।
अब जब हमारे पास ज़मीन है, तो हमारे पास बोलने और चलने की शक्ति आ गई है।”
यही सशक्तिकरण है! यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि महिलाओं का एक छोटा वर्ग ऐसा भी है, जिनके पास औपचारिक क्षेत्र में नौकरियां हैं, जो अपने पति से ज़्यादा कमाती हैं, लेकिन उन्हें हिंसा की घटनाओं का बेरोज़गार महिलाओं से ज़्यादा सामना करना पड़ता है। लेकिन अगर किसी महिला के पास संपत्ति है और उसका पति संपत्ति विहीन भी है, तो भी उसे हिंसा का कम सामना करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो रोज़गार होने से महिला की सुरक्षा पर विपरीत असर पड़ सकता है, पर अचल संपत्ति का अधिकार होने से उसको सुरक्षा मिलती है।भारत में दलित और आदिवासियों को जमीन के मालिकाना हक से दूर रखा गया है। इसकी वजह है सामाजिक पूर्वाग्रह की गहरी जड़ें। भारत में जाति के आधार पर भेदभाव पर 1955 में कानूनी रोक लगा दी गई थी इसके बावजूद यह जारी है। भारत में दलित समाज के करीब आधे लोग भूमिहीन हैं। जबकि ऐसे कानून अस्तित्व में हैं कि भूमिहीनों को भूमि दी जा सके पर उसके बावजूद उनके पास इतनी कम जमीन है। यह एक बड़ी विडंबना है।
भारत में महिलाओं के लिये बहुत से संवैधानिक सुरक्षात्मक उपाय किये गये हैं। जमीनी हकीकत इससे बहुत अलग है। इन सभी प्रावधानों के बावजूद देश में महिलाओं के साथ आज भी द्वितीय श्रेणी की नागरिक के रुप में व्यवहार किया जाता है, पुरुष उन्हें अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति करने का माध्यम मानते हैं, महिलाओं के साथ अत्याचार अपने खतरनाक स्तर पर है, दहेज प्रथा आज भी प्रचलन में है, कन्या भ्रूण हत्या भी होती है। स्थितियां बदली हैं पर अभी भी और जागरूकता की आवश्यकता है।
महिलाओं को भी आज के समय और आवश्यकता के अनुसार अपनी पुरानी रुढ़िवादी सोच बदलनी होगी और जानना होगा कि वो भी इस शोषणकारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक अंग बन गयी हैं और पुरुषों को खुद पर हावी होने में सहायता कर रहीं हैं। इस स्थिति में वास्तविक परिवर्तन तभी संभव है जब पुरुषों की सोच में परिवर्तन लाया जाये। पुरुष, महिला के साथ समानता का व्यवहार करना शुरु कर दे न कि उन्हें अपना अधीनस्थ समझे।
(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं।)
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