हमारे मुल्क में इतिहास से ज्यादा मिथकों की रचना होती रही है। लंबे समय तक हमारा इतिहास बाहर के लोग लिखते रहे। अब हमारा भविष्य़ और नियति हमारे यहां के मुट्ठी भर लोग तय करते हैं, इसीलिए वे अपनी बैठकें भी गोपनीय रखते हैं। महामारी पर बैठक में भी गोपनीयता चाहिए। यह सब इसलिए हो रहा है कि हमारे समाज ने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया। लेता भी कैसे? उसे इतिहास के ज्ञान और चेतना से वंचित रखा गया। बीते कुछ वर्षों से जब-जब हम नये किस्म की भक्ति, उपासना-स्थलों की लड़ाई और अपने को विश्वगुरू बनाने के नवसृजित राष्ट्रवादी खुमार में डूबे हुए थे तो हमें शायद ही कभी अपने निकट इतिहास की याद आई। कितनों को याद रहा कि सन् 1918-20 के दौर में इस देश की तकरीबन 5 फीसदी से भी ज्यादा आबादी एक भयावह महामारी में खत्म हो गयी थी! वह महामारी थी-स्पेनिश फ्लू, जिसे अपने यहां बाम्बे फ्लू भी कहा गया था।
स्वतंत्र भारत में हमने महामारियों से निपटने के बारे में शायद ही कभी गंभीरतापूर्वक सोचा या रणनीति बनाई। अगर सोचा होता तो भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र का इस कदर निजीकरण नहीं होता, जो आज तकरीबन 87 फीसदी है। हमारे समाज और सियासत में कभी मुखर आवाजें नहीं उठीं कि हमारी निर्वाचित सरकारें देश की समूची आबादी के स्वास्थ्य पर महज डेढ़ से ढाई फीसदी ही क्यों खर्च करती रही हैं? दूसरी तरफ दुनिया के विकसित और कई विकासशील देश भी स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपने जीडीपी का 6 से 12 फीसदी खर्च करते रहे हैं।
इनमें कई देश कोरोना से अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से निपटने में अब तक कामयाब भी दिखे हैं। अपने यहां मौतों की बेलगाम रफ्तार आज पूरे देश को दहला रही है। इन मौतौं से पूरे समाज में दहशत, मायूसी और मातम का माहौल है। किसी को नहीं मालूम आगे क्या होगा, कौन-कैसे बचेगा? क्या ये महामारी अपने आप चली जायेगी? आजाद भारत में महामारी का यह दंश सौ साल पहले के उस काले अध्याय को तो नहीं दोहराएगा, जब ब्रिटिश-राज में महामारी के चलते पूरी दुनिया में सबसे अधिक लोग भारत में मरे थे? कोविड-19 से हो रही ये बेलगाम मौतें सिर्फ किसी व्यक्ति, किसी परिवार, किसी राज्य या किसी देश की त्रासदी नहीं, एक स्वतंत्र-राष्ट्र की विफलता का खूनी स्मारक बनती जा रही हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े लेकिन सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर काफी जागरूक इलाके के बड़े-बूढ़ों से हमने अपने बचपन में दो बड़ी महामारियों की डरावनी कहानियां सुनी थीं। तब हमारे पुरनिया (बुजुर्ग) यह तो नहीं बता पाते थे कि वो महामारियां कब और कैसे आईं पर सांकेतिक ढंग से जो कुछ बताते थे, उससे बाद में मुझे साफ हुआ कि वे सन् 1918-20 के स्पेनिश फ्लू और 1920 के प्लेग, जिसे इतिहास में ‘तीसरा प्लेग’ कहा जाता है, के बारे में बता रहे होते थे। भारत सहित दुनिया के कई देशों में ये दोनों महामारियां एक के बाद एक आईं और कई जगह तो साथ-साथ चलीं।
बाद के शोधकर्ताओं ने माना कि भारत में इन दोनों महामारियों का प्रवेश प्रथम विश्व युद्ध से लौटे सैनिकों या बाहर से आने वाले अन्य कर्मियों के जरिये हुआ। सबसे पहले इसने आज के मुंबई और गुजरात के कुछ तटीय इलाकों को प्रभावित किया था। संक्रमण के फैलाव में जल मार्ग और रेल मार्ग की अहम् भूमिका रही। बताते हैं कि सिर्फ स्पेनिश फ्लू से मरने वालों की संख्या भारत में डेढ़ से दो करोड़ के बीच थी। इसमें बाम्बे प्रेसिडेंसी का इलाका सर्वाधिक प्रभावित था। उन दिनों बाम्बे प्रेसिडेंसी में आज का महाराष्ट्र, समूचा कोंकण, गुजरात, सिंध और आज के कर्नाटक के भी कुछ हिस्से शामिल थे।
स्वाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी भी इसकी चपेट में आए। काफी समय बाद वह स्वस्थ हो सके। फ्लू में शोध-परक काम करने वाले लेखकों के मुताबिक इस महामारी से भारत के नौ राज्यों के 213 जिले ज्यादा प्रभावित थे। कोविड-19 की तरह स्पेनिश फ्लू की दूसरी लहर भारत में ज्यादा घातक साबित हुई थी। यह बात सही है कि फ्लू से भारत का पश्चिमी और मध्य का इलाका ज्यादा प्रभावित हुआ लेकिन पूरब और उत्तर का इलाका इसके असर से मुक्त नहीं था। कलकत्ता (आज का कोलकाता) में भी फ्लू के चलते अक्तूबर-नवम्बर, 2018 में काफी मौतें हुईं।
बम्बई, मद्रास और कलकत्ता से आने वालों के जरिये इसने हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रवेश किया। आज के उत्तर प्रदेश के कई प्रमुख शहरों, कस्बों और यहां तक कि गावों में भी इसका असर देखा गया। प्रेमचंद और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी मरते-मरते बचे। निराला की पत्नी और उनके परिवार के कई लोग अपनी जान गंवा बैठे थे। इसका उन्होंने अपनी कुछ रचनाओं, खासकर अपने संस्मरण-कुल्ली भाट में वर्णन किया है। प्रेमचंद की दो कहानियों-ईदगाह और दूध का दाम में भी महामारी का उल्लेख है।
पांडेय बेचन शर्मा उग्र और कई अन्य हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं में इस महामारी की भयावहता के चित्र मिलते हैं, लेकिन इन दो-दो बड़ी महामारियों पर तत्कालीन हिंदी लेखकों ने बहुत शोध-परक लेखन नहीं किया। विदेशी लेखकों या बहुत बाद के दिनों में कुछ भारतीय शोधकर्ताओं ने इस पर विस्तार से लिखा है, लेकिन ऐसे विषय के हमारे सामाजिक-बौद्धिक जीवन का हिस्सा नहीं बनने दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे पर्यावरण और जल संसाधन की बर्बादी को नहीं बनने दिया गया। पाठ्यक्रम की किताबों से ऐसे विषयों को दूर रखा जाता रहा। लोगों को ये सच मालूम रहते तो महामारियों से निपटने के लिए जरूरी स्वाथ्य सेवाओं के विस्तार और सम्बद्ध संरचनात्मक निर्माण आदि की जागरूकता समाज में ज्यादा होती। शासन पर लोगों का दबाव भी शायद कुछ ज्यादा रहता।
अचरज की बात कि हमारे लोक जीवन में उक्त दोनों महामारियों की बहुत सारी भयावह स्मृतियां संचित रही हैं। स्वयं हमारे बचपन में बहुत सारे बुजुर्ग अपनी याददाश्त से या अपने चाचा-काका या माता-पिता से सुनी बहुत सारी बातें बताते रहते थे। हमारा घर बनारस से ही कुछ ही दूर गाजीपुर जिले में पड़ता है। हमारे गांव से गंगा नदी की दूरी अधिक से अधिक दो किमी की होगी। बचपन में हमने देखा था कि हमारे बुजुर्ग लोग हर मौसम और हर दिन गंगा नहाने जाते थे।
हम लोग भी कभी-कभी, खासकर गर्मियों के दिनों में इन बुजुर्गों के साथ गंगा नहाने चले जाया करते थे। तब स्कूलों की छुट्टियां होती थीं। रास्ते में उन बुजुर्गों से तरह-तरह की कहानियां सुनने को मिलती थीं। मेरे पिता के एक दोस्त थे- रामसरुप नोनियां। वह बहुत अच्छे किस्सागो थे। जहां वह कुछ भूलते या गलती करते, मेरे पिता उसमें कुछ जोड़-घटाव कर दिया करते थे। जहां तक याद है, उन दोनों महामारियों की भयावहता की कहानियां सबसे पहले मैंने अपने पिता और रामसरूप नोनियां से ही सुनी थीं।
अशिक्षित-असाक्षर परिवार में पैदा हुए इन दोनों को अपने जन्म दिन या वर्ष के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। दोनों अपने जीवन की विभिन्न घटनाओं को उस कालखंड के बड़े हादसों या अन्य घटनाक्रमों से जोड़कर बताया करते थे। आज भी याद है, एक दिन हम लोग नहाने गये हुए थे। हमारे नहाने की जगह से महज दो-चार मीटर की दूरी पर एक फूली हुई सी लाश नदी के तेज धारा के साथ आगे गुजर गई। वहां हम दो-तीन बच्चे नहा रहे थे। हम सब डर गये। ऐसा दृश्य पहली बार देखा था। हम लोग घाट की तरफ भागे। मेरे पिता और रामसरूप नोनियां ने हम लोगों को संभाला और समझाया।
उसी दिन लौटते समय रामसरुप नोनिया ने हम बच्चों को एक सच्ची कहानी सुनाई। उन्होंने बताया कि जब वह बच्चे थे तो उनके पिता ने काफी समय गंगा नहाना बंद कर दिया था, जबकि उस समय गंगा जी हमारे गांव से कुछ और नजदीक थीं। एक दिन उन्होंने जब अपने पिता से पूछा कि आजकल सुबह-सुबह आप गंगा नहाने क्यों नहीं जाते? उन्होंने छूटते ही अपने बेटे से कहा कि गंगा अब नहाने लायक नहीं रह गई हैं, चारों तरफ फूली-फूली लाशें ही तैरती दिखती हैं। जलकुंभियां कम हैं लाशें ज्यादा!
रामसरूप नहीं बता सके, यह किस सन्-संवत् की बात है। हम लोगों ने भी नहीं पूछा क्योंकि हमें भी उस समय तक स्थान और समय से ज्यादा मतलब नहीं था। मेरा अनुमान है, जिस महामारी के बारे में हमें बचपन में बताया गया, वह स्पेनिश फ्लू या प्लेग में कोई एक रही होगी और निश्चय ही वह सन् 1918-20 या 1920-22 का साल रहा होगा।
अब न तो मेरे पिता इस दुनिया में हैं और न रामसरुप नोनियां, लेकिन हमारे इलाके के लोग बता रहे हैं कि पूरे सौ साल बाद, गंगा-जुमना का मैदान फिर दहशतजदा है। मीडिया में इस आशय की बहुतेरी खबरें आ रही हैं कि कई इलाकों में कोविड-19 से होने वाली मौतों का उल्लेखनीय हिस्सा रिकार्ड ही नहीं हो पा रहा है। उसकी वजह है कि कोविड से मरने वालों की बड़ी तादात ऐसे लोगों की है, जिन्हें किसी अस्पताल में जगह नहीं मिली। उनकी मौत का रिकार्ड किसी अस्पताल में नहीं दर्ज है। उत्तर प्रदेश सहित देश के कई प्रदेशों में भयावह स्थिति है और आगे इससे भी ज्यादा भयावह होने की आशंका जाहिर की जा रही है।
उसकी वजह है पंचायती चुनाव। चार चरणों का यह चुनाव पंद्रह दिनों में खत्म होगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक बीते कुछ दिनों के दौरान राज्य के 46 जिलों में कोरोना-संक्रमण के मामले नियमित तौर पर पाये जा रहे हैं। इनमें प्रधानमंत्री मोदी का अपना निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी भी शामिल है। जिले में कोरोना संक्रमण के कुल 15000 से ज्यादा सक्रिय मामले रिकार्ड हुए हैं, लेकिन मौतों की संख्या 497 बताई गई। वाराणसी के लोग इस आंकड़े को सफेद झूठ मानते हैं।
उधर, बंगाल में भी चुनाव चल रहा है- विधानसभा चुनाव। वहां के कुछ दलों ने पिछले दिनों मांग रखी कि बाकी के चार चरणों के मतदान को निर्वाचन आयोग एक साथ-एक ही दिन करा दे, लेकिन केंद्र में सत्ताधारी दल-भाजपा ने इस सुझाव से असहमति जता दी। निर्वाचन आयोग का फरमान आया कि बाकी के सारे चरण पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के तहत ही होंगे या बंगाल में चुनाव का दौर जारी रहेगा। चार चरण के मतदान अलग-अलग तारीखों पर होते रहेंगे। बड़े विशेषज्ञ और चिकित्सक भी चुनावों की इतनी लंबी अवधि और विभिन्न दलों के राजनेताओं द्वारा बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड-शो आदि करने को संक्रमण के फैलाव का जिम्मेदार मान रहे हैं।
ये विशेषज्ञ सरकार के मौजूदा रुख को भांपते हुए अपनी बात खुलकर बोलने से डरते हैं। इस बीच उत्तर प्रदेश के कुछ ज्यादा बेहाल जिलों में लाकडाउन करने का इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया। यूपी की योगी सरकार ने उसे मानने से इंकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी। कुछ ही घंटे बाद सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार की याचिका की सुनवाई की और हाई कोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया, यानी लाकडाउन की कोई जरूरत नहीं।
भाजपा-शासित ज्यादातर राज्य इस बार लाकडाउन के खिलाफ बोल रहे हैं। दिलचस्प बात है कि 20 अप्रैल की देर शाम प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में साफ कर दिया कि देश को लॉकडाउन से बचना होगा। मोदी ने यह बात उस समय कही जब देश में कोरोना के मामले तीन लाख पहुंच रहे थे। आज तो उसे भी पार कर चुके हैं। दुनिया भर के विशेषज्ञ भारत में हो रही मौतों के सरकारी आंकड़ों को अविश्सनीय मान रहे हैं। मोदी ने ऐसे दौर में भी लॉकडाउन से इंकार किया। ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि पिछले वर्ष जब देश में कोरोना के कुल मामले सिर्फ 618 और मौतें सिर्फ 13 दर्ज हुई थीं तो उन्होंने 24-25 मार्च की मध्यरात्रि से लॉकडाउन का एलान क्यों कर दिया था? उन्होंने अपनी कैबिनेट या राज्यों की सरकारों से मशविरा के बगैर किसी शहंशाह की तरह अपना एकतरफा फैसला टेलीविजन प्रसारण में किया था। ऐसा करके उन्होंने करोड़ों देशवासियों को मुसीबत में डाला था। सैकड़ों मजदूरों की अपने कार्यस्थल से अपने पैतृक गांव की तरफ लौटते हुए मौत हुई थी।
निजी तौर पर मैं भी मानता हूं कि लॉकडाऊन समस्य़ा का हल नहीं है। पिछले साल लॉकडाउन का आदेश करने वाले मोदी आज ‘नो लॉकडॉउन’ कह रहे हैं। इस बार सुप्रीम कोर्ट भी ‘नो लॉकडाउन’ कह रहा है। वह कह रहे हैं, मजदूर भाई जहां हैं, वहीं रहें। गांव न भागें। बिल्कुल दुरुस्त बात है, लेकिन मोदी सरकार उन मजदूरों को 10 हजार रुपये महीने का भुगतान भी नहीं करना चाहती, जिनके धंधे या काम ठप्प हो चुके हैं। सरकार ऐसे मजदूरों को किराया-मुक्त आवास मुहैय्या कराने का भी कोई फैसला नहीं कर रही है। ठप्प पड़े धंधे या बंद हो चुके उपक्रमों के बावजूद फिर ये मजदूर अपने कार्यस्थलों पर कैसे टिकेंगे?
देश और उसके लोगों को सरकार ने उनके हाल पर छोड़ दिया है। महामारी से देश भर में दहशत मची है, अगर कोई दहशत या संकट में नहीं है तो वो सिर्फ इस देश का निजाम है, चंद बड़े कॉरपोरेट या फिर अति-विशिष्ट राजनीतिक लोग। ये वो लोग हैं, जो संक्रमित होने पर अपने विशाल बंगले के ही एक कोने में अपने लिए सुसज्जित आईसीयू से लैस मिनी-अस्पताल हासिल कर लेते हैं। ऐसे में स्वयं ही सोचिए, प्रतिदिन हजारों लोगों की जान कोई वायरस ले रहा है या हमारी व्यवस्था, जिसमें अस्पताल, आॉक्सीजन सिलिंडर, जीवन रक्षक दवाएं और यहां तक कि संक्रमण की टेस्टिंग की त्वरित सुविधा तक नहीं है?
(उर्मिलेश राज्यसभा के एक्जीक्यूटिव एडिटर रह चुके हैं।)