Friday, March 29, 2024

जवाहरलाल नेहरू से मोदी सरकार की यह खुन्नस संघ परिवार की बेचारगी का पता देती है

अंग्रेजी के प्रख्यात कवि एवं नाटककार विलियम शेक्सपियर भले ही कह गये हों कि नाम में क्या रखा है, गुलाब को चाहे जिस नाम से पुकारा जाये, वह गुलाब ही रहता है और उनके अलविदा कह जाने के चार सौ साल बाद भी बहुत से लोग उनके इस कथन से इत्तेफाक रखते हों, और दुनिया में नामों की निरर्थकता को लेकर कहावतों व मुहावरों की अभी भी कोई कमी न हो, हमारे देश में 2014 में नरेन्द्र मोदी और उसके सबसे बड़े प्रदेश में 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार आने के बाद से ही चल रहा नामों को बदलने का सिलसिला इस विपरीत समझ पर आधारित है कि नाम में जितना रखा है, उतना किसी भी अन्य शय में नहीं। काम में तो कतई नहीं।

बहरहाल, नाम बदलने के इस सिलसिले का ताजा शिकार देश के पहले प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास तीन मूर्ति भवन में स्थित और केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय द्वारा स्थापित स्वायत्त नेहरू स्मारक संग्रहालय हुआ है। इस संग्रहालय को 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के उपरान्त देश के स्वतंत्रता संग्राम की यादें संजोने के लिए स्थापित किया गया था और इसके चार भाग थे- स्मारक संग्रहालय, आधुनिक भारत से संबंधित पुस्तकालय, सम-सामयिक अध्ययन केन्द्र और नेहरू तारामण्डल। यह सोमवार से शुक्रवार सुबह नौ से शाम आठ बजे और शनिवार को अपराह्न साढ़े पांच बजे तक खुलता था और इसमें हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, कश्मीरी, तमिल, मलयालम, राजस्थानी, मैथिली, तेलगू, कन्नड़, उड़िया, पंजाबी भोजपुरी, नेपाली, संस्कृत, उर्दू, असमिया, मराठी, गुजराती व कोंकणी आदि भाषाओं में बहुमूल्य दस्तावेज संरक्षित किये जाते थे।  

नरेन्द्र मोदी सरकार ने अब इसके नाम से ‘नेहरू’ शब्द हटाकर ‘प्रधानमंत्री संग्रहालय’ रखने का फैसला किया है। उनका कहना है कि अब इस संग्रहालय में देश के अब तक के सभी चौदह पूर्व प्रधानमंत्रियों की यादें सहेजी जाएंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी 14 अप्रैल को बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती के अवसर पर इसके बदले हुए नाम का, क्योंकि संग्रहालय तो पहले से उद्घाटित व मौजूद है,  उद्घाटन करने वाले हैं।

मोदी सरकार का यह विचार कि सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों की यादें सहेजी जाएं, पहली नजर में बहुत पवित्र और नाकाबिल-ए-एतराज लगता है। प्रधानमंत्री के यह कहने के बाद और भी कि इसमें कोई राजनीति न की जाये। इसके बावजूद यह विचार पंडित नेहरू से इस सरकार की पुरानी दुश्मनी की गंध से नहीं बच पाता। उसके पास इस साधारण से सवाल का भी जवाब नहीं है कि क्या यह संग्रहालय पंडित नेहरू के योगदान या यादों को ही समर्पित था? हम जानते हैं कि ऐसा कतई नहीं था। निस्संदेह, पहले प्रधानमंत्री के तौर पर इसमें उनकी यादें भी संरक्षित थीं, लेकिन उसके केन्द्र में देश का स्वतंत्रता संग्राम ही था। जाहिर है कि उसमें शेष तेरह प्रधानमंत्रियों की यादें भी शामिल की जानी थीं तो उसमें कोई बाधा थी ही नहीं। और चूंकि इस पूर्व-प्रधानमंत्रियों की श्रृंखला नेहरू से ही शुरू होती है, उन्हें और कुछ नहीं, फस्ट एमंग फोर्टीन ही माना जाये तो भी, संग्रहालय के नाम से उनका नाम जुड़े रहने से उसकी गरिमा घटने के बजाय बढ़ती ही। हां, सरकार को पूर्व प्रधानमंत्रियों के लिए किसी और संग्रहालय की जरूरत महसूस हो रही थी तो उसे उसकी स्थापना से किसने रोक रखा था?

इसके बावजूद उसने पूर्वप्रधानमंत्रियों की यादें संजोने के नाम पर उसके नाम से पं. नेहरू का, जो इस अर्थ में महज प्रधानमंत्री नहीं थे कि उन्हें देश की गुलामी की बेड़ियां तोड़ने के लिए अपने जीवन के बहुमूल्य ग्यारह साल जेलों में काटने पड़े थे और प्रधानमंत्री बनने के बाद उसके नवनिर्माण में दिन-रात एक करना पड़ा था, नाम हटाना जरूरी समझा तो इसे इसके सिवाय और किस रूप में देखा जा सकता है कि वह अभी भी उनके बारे में अपने पुराने पूर्वाग्रहों से पार नहीं पा सकी है, और उनसे दुश्मनी निकालने के चक्कर में उन पूर्व प्रधानमंत्रियों को उनके बरक्स खड़ा कर रही है, जिन्होंने अपनी बारी पर कुछ किया तो यही कि उनसे हासिल विरासत को आगे बढ़ाया।

यह कृत्य वैसे ही है जैसे कई बार नेहरू के उपप्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल का कद बढ़ाकर नेहरू को छोटा करने के फेर में अपनी जग-हंसाई कराने में लग जाती है। फिर भी समझ नहीं पाती कि कुछ तो बात है कि आठ साल की अपनी ऐसी तमाम कोशिशों के बावजूद वह उनको छोटा नहीं कर पाई है। उलटे उनकी उदारता, विराटता और प्रगतिशीलता के आईनों के सामने खडे़ किये जाने से उनके बारे में प्रचारित कई पूर्वाग्रहों की पोल खुल गई है और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व कुछ और बड़े दिखने लगे हैं।

गौरतलब है कि आजादी के पहले और बाद में नेहरू के नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल व बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर वगैरह से विभिन्न मसलों पर गम्भीर मतभेद हुए। लेकिन उनमें से किसी ने भी नेहरू की क्षमता या नीयत पर सवाल नहीं उठाए। यही कारण है कि इससे पहले देश में जितनी भी सरकारें या प्रधानमंत्री आए, उनमें किसी ने भी पं. नेहरू और उनकी पार्टी कांग्रेंस से असहमतियों व अलग विचारों के बावजूद उनके योगदान को कमतर दिखाकर उनसे रंजिश निकालने का काम नहीं किया-भाजपा के अटलबिहारी वाजपेयी तक ने भी नहीं। 1977 में अटल जनता पार्टी की सरकार में विदेशमंत्री बने और पाया कि अफसरों ने उन्हें खुश करने के लिए उनके साउथ ब्लॉक स्थित कार्यालय में लगी पं. नेहरू की तस्वीर हटवा दी है तो उन्होंने नाराजगी जताकर उसे फिर से यथास्थान लगवाया था। लेकिन मोदी सरकार उनसे भी कुछ नहीं सीखना चाहती।

गौरतलब है कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान 2015 में एशियाई-अफ्रीकी देशों के बांडु्रंग सम्मेलन सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही तत्कालीन विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने अपने सम्बोधन में नेहरू का नाम नहीं लिया तो कई अन्य देशों के नेताओं ने उन्हें दुनिया में मानवता व लोकतंत्र के लिए बेहतर मूल्यों की स्थापना में नेहरू का योगदान याद दिलाकर शर्मिन्दा कर दिया था और यह तो अभी हाल की बात है कि सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियन लूंग ने अपने देश की संसद में नेहरू को याद करते हुए भारत को उनका देश बताया था।

अब यह तो कोई बताने की बात भी नहीं कि नेहरू ने आधुनिक भारत का निर्माण ही नहीं किया, उसे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का नेता बनाकर तत्कालीन दो ध्रुवीय दुनिया में सर्वथा अलग पहचान दिलाई थी। उनकी तटस्थता पर आधारित विदेशनीति इतनी प्रासंगिक थी, कि उन्हें फूटी आंखों भी पसन्द न करने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार को रूस-यूक्रेन युद्ध के सिलसिले में उसी पर चलना पड़ रहा है। फिर भी वह उनके नाम पर बने संग्रहालय से उनका नाम मिटा रही है तो यह प्रमाणित करने के लिए और क्या चाहिए कि उनके समय-सिद्ध प्रगतिशील विचारों से उसके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार का डर लगातार गहरा रहा है। उसे यह स्वीकारने में बहुत मुश्किल पेश आ रही है कि नेहरू की सोच व सरोकारों के ही कारण नवस्वतंत्र भारत पुनरुत्थान के चक्कर में अपनी ‘जड़ों’ की ओर नहीं लौटा और सच्चे अर्थों में आधुनिक बनने की ओर बढ़ा।

दरअसल, नेहरू इस परिवार को ऐसी कोई छूट नहीं देते, जिससे वह अपने किसी एप्रोच-सोच के प्रति उनका तनिक भी झुकाव साबित कर सके। अपने प्रधानमंत्री काल में उन्होंने जैसे बहुलवादी भारत का निर्माण करना चाहा, उसके मद्देनजर उनकी और जैसे भी आलोचना की जाये, यह कहकर नहीं की जा सकती कि उनकी प्रगतिशीलता में कोई लोचा है। बिना इस लोचे के संघ परिवार उनको उस तरह नहीं ही अपना सकता जिस तरह बापू या पटेल को ‘अपना’ लिया है। ऐसे में वह उनसे खुन्नस न निकाले तो भला क्या करे?

(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक हैं।)

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