दिल्ली में तेजी से बढ़ते वायु प्रदूषण को लेकर लुटियंस ज़ोन अचानक से फायर-फाइटिंग मोड में आ चुका है। दीपावली को बीते दो सप्ताह गुजर चुके हैं, लेकिन उससे भी बड़ी मात्रा में पीएम 10 और पीएम 2.5 का हमले ने केंद्र, दिल्ली सरकार सहित सुप्रीम कोर्ट को जैसे सोते से जगा दिया है।
पहाड़ों पर बर्फबारी से दिल्ली और आसपास के इलाकों में अचानक से बढ़ी ठंड ने पहले से प्रदूषित हवा की रफ्तार को कम करने और नमी लाने के चलते 13 नवंबर से पीएम 2.5 का AQI स्तर 400 को पार कर गया था, लेकिन अगले दिन 14 नवंबर को यह बढ़कर औसत 450 पहुंच गया तो राजकीय मशीनरी हरकत में आने को मजबूर हो गई।
बता दें कि पिछले वर्ष 2023 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के वार्षिक वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश की तुलना में भारत में पीएम 2.5 का स्तर 10।9 गुना अधिक था। यानि हम 11 गुना अधिक प्रदूषित हवा को अपने फेफड़ों में ग्रहण करने के लिए बाध्य हैं।
लेकिन कल दिल्ली के ही एक इलाके में पीएम 2.5 का स्तर 1300 के स्तर को दिखा रहा था, लेकिन इसे राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में तवज्जों नहीं दी जा रही है। इसे वसंत विहार जैसे समृद्ध इलाके में पाया गया है। द्वारका सेक्टर 8 में भी AQI 1051 तो पंजाबी बाग़ इलाके में 740 से 980 तक पाया गया है।
इस बीच वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने दिल्ली-एनसीआर में ग्रैप-3 को 15 नवंबर से लागू कर दिया है। इसके तहत निर्माण कार्य, भवन निर्माण एवं तोड़फोड़ एवं खनन से संबंधित सभी कामों पर रोक लगा दी गई है। दिल्ली सरकार ने कक्षा 5 तक के स्कूलों को बंद किये जाने के आदेश जारी कर दिए हैं।
इसके अलावा, दिल्ली सहित नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद और गुरुग्राम में बीएस-3 पेट्रोल और बीएस-4 डीजल कारों की आवाजाही पर रोक लागू कर दी गई है।
लेकिन क्या दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत की 80 करोड़ आबादी को इस बात का अहसास भी है कि वे इस समय भयानक वायु प्रदूषण के शिकार हैं, और उन्होंने अपने परिवार के स्वास्थ्य को लेकर उसी प्रकार से चिंतित हो जाना चाहिए, जैसे कोविड-19 महामारी के दौरान सभी लोग अतिरिक्त सावधानी बरत रहे थे?
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। कल तक दिल्ली-एनसीआर में लाखों बच्चे सामान्य रूप से स्कूल जा रहे थे। आज यदि छुट्टी भी है तो मुहल्लों में खेलते देखे जा सकते हैं। यह अलग बात है कि धनाड्य वर्ग के लोगों में अपने बच्चों के स्वास्थ्य की बेहतरी को लेकर भारी चिंता बनी हुई है।
उदाहरण के लिए, ट्रेवल ऐप @ixigo @confirmtkt और @abhibus से जुड़े आलोक वाजपेई ने X पर अपने अनुभव को साझा करते हुए लिखा है, ‘500+ AQI पर, मेरे बच्चों ने ही स्कूल जाते समय मास्क पहना हुआ था, जिस पर एक अभिभावक ने मुझसे पूछा- आपके बेटे की तबियत तो ठीक है न? खैर, इन बच्चों की सांस लेने वाली हवा में सब कुछ ठीक नहीं है।
और फिर मैंने अपनी सोसायटी में सुबह की सैर पर निकले 50 से अधिक बुजुर्गों को देखा। इस बारे में अभी तक कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान क्यों नहीं चलाया गया? आपको बस इतना करना है कि स्वास्थ्य संकट को समझने के लिए कुछ फेफड़ों के डॉक्टरों से बात कर लें। एक अधेड़ उम्र के अंकल ने इसे यह कहते हुए टाल दिया कि “अब तो हमें इम्युनिटी हासिल है जी”।
आलोक वाजपेई जिस स्कूल और अपनी सोसाइटी की बात कर रहे हैं, वो कोई मजदूर बस्ती तो नहीं हो सकती। लेकिन सोसाइटी के अंकल लोग भी चूंकि अब अखबार के बजाय व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से ही सारी जानकारी जुटाते हैं, इसलिए भयंकर वायु प्रदूषण अभी तक उनके लिए कोई समस्या नहीं बन सकी तो इसमें उनका क्या कुसूर?
याद कीजिये वर्ष 2021 के उस दौर को, जब पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ था। यह वही समय था जब कोरोना की दूसरी लहर दस्तक दे रही थी।
हम सभी जानते हैं कि यह दूसरी लहर ही थी, जिसमें 80% मौतें देश में हुई हैं। लेकिन चूंकि तब चुनावी समर में भाजपा को जीत की गंध महसूस हो रही थी, इसलिए रोज 8 लाख नए संक्रमित लोगों की खबर के बावजूद चुनाव संपन्न कराए गये।
ऐसा ही कुछ इस समय भी महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव के मद्देनजर देखने को मिल रहा है। इसी के चलते, गोदी मीडिया जितना दिखा रहा, उससे अधिक छिपाने में लगा हुआ है। वर्ना, एक दिन के भीतर ही डिजिटल और प्रिंट मीडिया के साथ सड़कों पर सख्ती और सरकार की ओर से एडवाइजरी एक दिन में पूरे देश को चौकन्ना बना देने के लिए काफी है।
लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है, तो भक्त कह सकते हैं कि मोदी जी ने कुछ सोचकर ही ऐसा किया होगा। लेकिन क्या सिर्फ दिल्ली-एनसीआर तक ही यह संकट फैला हुआ है?
जी नहीं। विश्व प्रसिद्ध प्रेम के स्मारक ताजमहल के साथ-साथ सिख धर्म के सबसे पवित्र मंदिर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भी इस विषाक्त धुंध की वजह से अंधेरा छाया हुआ है, और गुरुवार को हवाई उड़ानों में देरी की खबर थी। कई जगहों पर तो यह धुंध (स्मोग) यह इतनी घनी हो गई थी कि उसमें से आरपार देख पाना भी मुश्किल हो गया।
भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान के लाहौर शहर को इस समय दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर (AQI 1600) का ख़िताब मिला हुआ है।
पाकिस्तान की मीडिया में बताया जा रहा है कि भारत में पंजाब और हरियाणा में अवैध रूप से जलाई जाने वाली पराली असल में हवा के रुख में बदलाव के कारण लाहौर में वायु प्रदूषण को बड़े पैमाने पर बढ़ाने का काम कर रही है।
इसके उलट, भारत में दक्षिणपंथी समूह दिल्ली-एनसीआर में बढ़ते प्रदूषण के लिए पाकिस्तान से आने वाली हवा को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
2023 का सबसे प्रदूषित शहर बेगूसराय
चूंकि देश की हुकूमत, सुप्रीम कोर्ट, विदेशी दूतावास और नौकरशाहों की नगरी दिल्ली है, इसलिए पीएम 2.5 का स्तर यदि गंभीर श्रेणी में आता है तो चिंता होना स्वाभाविक है।
लेकिन दिल्ली शहर देश का सबसे प्रदूषित शहर नहीं है। इसके उलट, बिहार के बेगूसराय को 2023 में देश का सबसे प्रदूषित शहर का ख़िताब हासिल हुआ था, जबकि असम के सिलचर को सबसे साफ़ शहर का श्रेय जाता है।
15 नवंबर को दोपहर तक यदि दिल्ली सबसे प्रदूषित शहर था, तो 4 बजे तक चंडीगढ़ सबसे प्रदूषित शहर बन चुका है। दूसरे स्थान पर दुर्गापुर, प. बंगाल और इसके बाद मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता, मुंबई को ट्रैकर 1 से 10 स्थान पर दर्शा रहा है।
इस मामले में दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर के राज्य के साथ-साथ कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड ही इस चपेट से बचे हुए हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिसा भी काफी हद तक वायु प्रदूषण से बचे हुए हैं।
लेकिन उत्तर भारत का मैदानी इलाका बढ़ती आबादी, ईंट भट्टों, थर्मल प्लांट्स और रसोई से निकलने वाले धुएं के साथ हवा के कम दबाव और ठंड की आगोश के साथ स्मोग की चादर में ढके होने के कारण फेफड़ों में ताज़ी हवा के लिए तरस रहा है।
दिल्ली में आप सरकार में मंत्री गोपाल राय के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में पंजाब के किसानों ने पराली जलाने में 80% की कमी दर्ज की है। इस बार भाजपा की ओर से भी पराली को लेकर इतना हो-हल्ला देखने को नहीं मिला है।
क्योंकि सरकारी और गैर सरकारी शोध में भी इस बात की पुष्टि हुई है कि पीएम 2.5 के लिए पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की घटना प्रमुख रूप से जिम्मेदार नहीं है।
लेकिन इसे नियंत्रण में लाने के लिए केंद्र सरकार की ओर से जो आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए थे, वे तो नहीं उठाये गये, उल्टा देश में वाहनों की बिक्री को बढ़ाने के लिए अपरोक्ष रूप से दबाव की नीति ही अपनाई गई है।
असल में हम विकास की जिस राह अपर निकल पड़े हैं, उसमें राजमार्गों की लंबाई और चौड़ाई को दिखाने के अलावा सरकार के पास कुछ भी नहीं है। इसी एक काम को विकास का नाम दिया जा रहा है, और हर साल नए-नए राजमार्गों के निर्माण में लाखों करोड़ रूपये को पूंजीगत व्यय के नाम पर उड़ाया जा रहा है।
देश में एक ऐसा मध्य वर्ग तैयार हो चुका है, जो अपनी घटती अर्थ शक्ति के बावजूद निजी वाहनों से ही 50-100 नहीं बल्कि 400-500 किमी की यात्रा को तरजीह देता है। ये लोग पेट्रोल, डीजल और टोल टैक्स के माध्यम से सरकार के लिए कमाई के बड़े स्रोत बने हुए हैं।
लेकिन कोई इस ओर ध्यान देना नहीं चाहता कि आधारभूत उद्योगों के बगैर इस भारी निवेश से 145 करोड़ आबादी का कोई भला नहीं होने जा रहा, उल्टा केंद्र पर 2014 तक जो 55 लाख करोड़ रूपये का कर्ज था वह अब बढ़कर 200 लाख करोड़ रूपये को पार कर गया है।
बड़ी संख्या में महानगरों से बीएस4 और बीएस5 वाहनों की विदाई कर बीएस6 से इसे स्थानापन्न किया जा रहा है।
इन सेकंड-हैण्ड कारों को व्यापक पैमाने पर दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों में refurbish कर खटारा होने तक चलाते रहने की अनुमति देकर सरकार को तो एक्साइज और राज्य सरकारों को वैट मिलता रहेगा, लेकिन वायु प्रदूषण में कितना इजाफा होने जा रहा है, इसके लिए चिंता करने की फ़िक्र आज ही क्यों करें।
यह दृष्टिकोण देश को कहां ले जायेगा, यह किसी भी सामान्य बुद्धि रखने वाले नागरिक के लिए अंदाजा लगाना आसान है। क्लाइमेट चेंज और वायु प्रदूषण का चोली-दामन का साथ है और देश हर साल जलवायु परिवर्तन की मार को बढ़े अनुपात में झेलने के लिए अभिशप्त है।
बड़े कॉर्पोरेट घरानों और उन पर पूरी तरह से आश्रित राजनीतिक दलों ने देश को नव-उदारवादी अर्थनीति की चकाचौंध के साथ उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है, जहां से आगे सिर्फ खाई है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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