आज अन्य तरह से भी न्याय का सवाल दबाव में है

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सभ्यता पर आरंभ से ही किसी-न-किसी तरह से न्याय का सवाल दबाव में रहा है। साथ ही, यह भी सच है कि अन्याय से बचाव के लिए राज और समाज में, सीमित ही सही, सक्रियता भी रही है। आज की विचित्र स्थिति यह है कि न्याय-वंचित लोगों को वंचना से बाहर निकालने का प्रयास पूरी तरह से निष्क्रिय नहीं हो गया हो, तो भी आपराधिक शिथिलता की चपेट में जरूर पड़ गया है।

न्याय-वंचना से बचाव का प्रयास न सिर्फ आपराधिक शिथिलताओं में पड़ गया है, बल्कि न्याय का सवाल उठानेवाले के प्रति नफरत का माहौल भी लगातार बनाया जाता रहा है। माननीय अदालत का काम अन्याय हो जाने के बाद न्याय देने का होता है, अन्याय को होने से रोकना तो समग्र जन-समाज के सतत और सचेत प्रयास से ही संभव हो सकता है।

‘प्रतिभावान लोगों’ के मन में ‘प्रतिभाहीन लोगों’ के मानवाधिकार के प्रति पर्याप्त सम्मान के अभाव के चलते अन्याय की प्रवृत्ति की विनाशकारी क्षमता और घटना में कोई कमी नहीं आती है। भारत अपनी आजादी का ‘अमृत-महोत्सव’ मना रहा है, तो कम-से-कम पिछले दो सौ साल की राजनीतिक पृष्ठभूमि को जरूर याद किया जाना चाहिए। खासकर, इसलिए भी कि आज विश्व-युद्ध की स्थिति न हो तो भी ‘विश्वास-युद्ध’ का घना माहौल तो है ही।

14 अगस्त 1945 को जापान ने अपने विश्व के ‘विनाश’ से बचाव के लिए ‘बिना शर्त आत्मसमर्पण’ किया तो दुनिया की जान-में-जान आई। दुनिया ने राहत की सांस ली। भारत की आजादी की तारीख तय करने में इस घटना का भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव जरूर रहा। वह इसलिए ही नहीं कि यह तारीख ब्रिटिश शक्ति की ‘विजय-स्मृति’ से जुड़ी हुई थी, बल्कि इसलिए भी कि बहुत बड़ी आबादी के खो देने और दुनिया के विनाश के कगार से वापस लौटने की उम्मीद इस तारीख को जगी थी।

संवेदनशील लोगों के शंकित मन में मानवता के अंतिम अध्याय का आखिरी पृष्ठ खुल गया था। उस समय के महत्वपूर्ण दस्तावेजों, रपटों, रिपोर्ताजों आदि में ‘मनुष्य के अंतिम दिन’ की चिंता की लकीरें भरी पड़ी है। इन उलझी हुई कंटीली लकीरों से भारत की आजादी की इबारत लिखी गई। इन्हीं कंटीली लकीरों से बनी डाल पर भारत की आजादी के फूल खिले।

पुरखों ने सोचा कि धीरे-धीरे कांटे कम और फूल अधिक होते जायेंगे। ‘शीत युद्ध’ की ‘ठंढी आग’ में जलती हुई दो-ध्रुवीय दुनिया के बीच से हमारे पुरखों ने गुट निरपेक्षता का रास्ता तैयार और अख्तियार किया। दो-ध्रुवीय दुनिया में गुट निरपेक्षता का रास्ता अभाव, अन्याय से पीड़ित मानवता की मुक्ति के लिए नई उम्मीद बन गया।

1961 में शुरू हुए गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) के नेता नेहरु, नासिर, टीटो ने दुनिया की आर्थिक विकास में संतुलन बनाने की भरपूर कोशिश की, कामयाबी भी मिली, कुछ हद तक ही सही, लेकिन मिली। सोवियत की उत्प्रेरक उपस्थिति के विविध प्रभावों के कारण, दुनिया में गुट निरपेक्ष आंदोलन आर्थिक से अधिक नैतिक और राजनीतिक संदर्भ से महत्वपूर्ण साबित हुआ।

सोवियत व्यवस्था में बदलाव के बाद पूरी दुनिया को बताया गया कि दुनिया एक-ध्रुवीय बन गई! अस्वाभाविक नहीं है कि दुनिया ‘गोल से चिपटी’ होती चली गई। ‘इतिहास और अंतिम आदमी के अंत’ की झूठी-सच्ची कहानियां लिखी गई। तकनीक एवं अन्य संसाधनों के बल पर ‘प्रतिभावान’ और ‘प्रतिभाहीन’ की भूलभुलैया में राज-व्यवस्था लग गई।

दुनिया की बड़ी आबादी रोजगार से दुराव की ओर धकेली जाने लगी। कहना न होगा कि सम्यक रोजी-रोटी का अभाव मनुष्य को स्वत्वहीन, साहसहीन और सत्वहीन कर देता है, मनुष्य अमानुष (Subhuman and Inhuman) बनने की ‘पाठशाला’ में दाखिल हो जाता है।

मनुष्य जाति की पूरी आबादी के लिए उपलब्ध भौतिक संसाधनों की आधिकारिकता के न्यायपूर्ण वितरण के सवाल को हल करना, मनुष्य निर्मित बुनियादी संरचना के लाभ तक अंतिम आदमी की पहुंच को सुनिश्चित करना उत्तरदायी लोकतांत्रिक राज-व्यवस्था का मौलिक कर्तव्य होता है।

वास्तविक स्थिति यह है कि नई विश्व-व्यवस्था में लोकतंत्र का यह कर्तव्य-पथ ही बदल गया! सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन के बीच के संबंध की अनदेखी नहीं की जा सकती है, मगर की गई, लगातार की जा रही है। कभी-कभी तो सामान्य नागरिकों को ऐसा एहसास होने लगता है कि ‘राज’ ही ‘अराजक’ हो गया है या बहुत तेजी से ऐसी स्थिति बनाने में लग गया है।

1990 से दुनिया में जो बदलाव आने शुरू हुए वे निश्चित ही पहले के सारे बदलाव से भिन्न प्रकार के रहे हैं। अद्भुत है कि विश्व-युद्धों के ताप से निकल आई राजनीतिक व्यवस्था की मानसिकता पर आज किसी भी तरह के, किसी खतरे के, डर का कोई भाव ही नहीं बचा है! इस बदलाव में पूंजी और मुनाफा पर ही जोर है, श्रम और मनुष्य सब से उपेक्षित है।

शोषण, अन्याय और उत्पीड़न का ऐसे खेल में लगने का राजनीतिक दुस्साहस 20वीं सदी के अंतिम दो दशक के पहले की राजनीति में नहीं था। 20वीं दशक के अंतिम और 21वीं सदी के आरंभिक दो दशक के बाद अब तो लग रहा कि लोकतंत्र का ढांचा शोषण, अन्याय और उत्पीड़न से होनेवाले विक्षोभ और आंदोलन को रोकने, मोड़ने और नियंत्रित करने के लिए ही खड़ा किया गया था।

आज के ‘चुनावी शासकों’ के मन में लोकतंत्र के प्रति कोई ‘नकली श्रद्धा’ भी नहीं है। दुनिया के नेतृत्व में कहीं-न-कहीं यह विचार घर कर गया है कि तकनीक एवं अन्य संसाधनों के बल पर राजनीतिक आंदोलनों को नियंत्रित करने में वह सक्षम है, बचाव के लिए लोकतांत्रिक उपायों की कोई जरूरत नहीं है। जाहिर है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र के प्रति हिकारत का भाव खतरे की हर सीमा का अतिक्रमण कर रहा है।

दुनिया विश्व-युद्ध से तो बाहर निकल आई है, लेकिन विश्वास-युद्ध से जूझ रही है। विडंबना है कि विश्वास-क्षरण के इस दौर में विश्वास का भी आयुधीकरण हो गया है। विश्वास का ही क्यों, मानव सभ्यता के लगभग सारे सकारात्मक मूल्यों का आयुधीकरण हो चुका है। मुश्किल यह है कि इस युद्ध में भयानक आघात करनेवाले हथियार तो एक-से-एक हैं, लेकिन बचाव के लिए ढाल तो कोई नहीं है।

‘प्रतिभावान’ लोगों की ‘प्रतिभा’ में कल्याण, करुणा, परहित, परोपकार, सहिष्णुता, अस्तेय के लिए रत्ती भर जगह नहीं है! सूचना का संबंध मानव की नैसर्गिक संबद्धता और एकता से नहीं विच्छिन्नता से हो गया है। लोगों से सहकार की बुद्धिमत्ता के साथ आगे बढ़ने की जगह, लोगों को गिराकर आगे बढ़ने की धूर्तता ने घर कर लिया है।

यह सच है कि सभ्यता के विकास में ‘विरुद्धों के युग्म’ को एक साथ साधे जाने का महत्व रहा है, बावजूद इस के नृशंसता से लड़ने के बदलने नृशंस के सामने घुटने टेकनेवाली मानसिकता और लोकतांत्रिक चेतना एक साथ नहीं रह सकती है।

यह ठीक है कि भारत अपने तरह से ‘लोकतंत्र की जननी’ है, लेकिन यह भी सच है कि लोकतांत्रिक जीवन का अभ्यास भारत के लिए बहुत पुराना नहीं है। लोकतंत्र और न्याय की अवधारणाओं में बदलाव से नैतिक मूल्यों के पूरे समुच्चय में ही बदलाव आ जाता है। ऐसे में अपराध और भ्रष्टाचार से बरताव का तरीका क्या हो? यह सभ्यता की बड़ी समस्या है, भारत की भी।

भारत की समस्याओं को समझना ही मुश्किल है, समाधान तो दूर की बात। ये कोई आज की समस्या नहीं है। यह विश्वास करना बहुत मुश्किल हो सकता है कि अपनी मान्यताओं और मूल्य-बोध में भारत की आबादी में कभी-कभी अचेतन रूप से मातृसत्तात्मकता और पितृसत्तात्मकता के द्वंद्व-दोलन में झूलते हुए पुरातात्त्विक समाज के भी लक्षण दिख जाते हैं!

बहुत अचंभे की बात है कि आधुनिकता और बदलाव के दौर में भी बुनियादी मूल्य-बोध पुरातात्त्विक ही बना हुआ है। संसद से लेकर सड़क तक कलह और कोलाहल के तथ्यहीन तेवर पर ध्यान देने से यह साफ-साफ पता चल सकता है कि हम असल में हैं कहां? किसी एक पक्ष को दोष देने की बात नहीं है, क्योंकि कोलाहल और कलह का पैटर्न अनिवार्यतः विभिन्न पक्षों की पारस्परिकता में ही विकसित होता है।

असल में अ-विश्वास और पक्षपात का सा माहौल बन गया है कि जहां पक्षपात नहीं भी होता है, वहां भी आम लोगों के मन में ‘सब कुछ’ के ठीक होने का भरोसा नहीं होता है। ऐसा माहौल बनने के पीछे के कारण बहुत अ-स्पष्ट नहीं हैं। सूचना-विस्फोट और अब सूचना-नियंत्रण के इस जमाने में अपराध-बोध या किसी तरह की सामाजिक ग्लानि के कारण के रूप में ‘अपराध’ को नहीं देखा जाता है, बल्कि व्यक्तिगत पराक्रम के रूप में देखा जाने लगा है।

समाज में भी और राज में भी ‘अपराधी मानसिकता’ का वर्चस्व वैध और स्वीकार्य ही नहीं, बल्कि ‘नीचे से ऊपर तक’ सभी क्षेत्र और स्तर के ‘महा-पुरुषों’ के लिए सहायक और कार्य-सिद्धि की सब से बड़ी गारंटी होता है।

शक्तिशालियों का कारोबार ‘स्वयं-सक्षम-न्याय’ से चलता है। कमजोर के लिए ‘सब कुछ’ के स्वीकार की परिस्थिति सत्ता के शिखर से बरसते आशीर्वाद से तय होता है। आज की गैरबराबरियों के माहौल में ‘प्रतिभाहीन’ आबादी लोकतंत्र से कुछ अधिक और गैर-वाजिब उम्मीद पाले हुई है! आज के लोकतांत्रिक व्यवस्था में अन्य तरह से भी न्याय का सवाल भयानक दबाव में है।

इस सवाल के जवाब का इंतजार पूरी दुनिया को है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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