Thursday, March 28, 2024

आज पहली जनवरी को झारखंड के आदिवासी क्यों मना रहे हैं काला दिवस?

आजादी के मात्र साढ़े चार महीने बाद ही पहली जनवरी 1948 में खरसावां हाट बाजारटांड़ में पुलिस फायरिंग में हजारों लोग मारे गए थे। जिसे आजाद भारत का जालियांवाला बाग हत्याकांड की संज्ञा दी गई है। कितने लोग उस गोली कांड में शहीद हुए थे, यह आज भी रहस्य बना हुआ है। पूरे मामले को दबाने का प्रयास किया गया था। मृतकों की संख्या को कम से कम दिखाने की व्यवस्था की गयी थी, अब तक यह दावा किया जाता रहा है कि हजारों आदिवासी ओड़िशा पुलिस की गोली के शिकार हुए थे। लाशों को ट्रकों पर लादकर दूर-दराज के जंगलों में फेंक दिया गया था। बताया जाता है कि आज जहां शहीद स्थल बना हुआ है, पहले वहां एक कुआं हुआ करता था। पुलिस फायरिंग में मारे गये आदिवासियों के शवों को ओड़िशा पुलिस ने पहले उस कुआं में डाला था, जब कुआं शवों से भर गया, तब जाकर लाशों को अन्यत्र ठिकाने लगाया गया। इसी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस गोलीकांड में कितने लोग शहीद हुए होंगे। एक तरफ जहां पूरी दुनिया पहली जनवरी को नए वर्ष का जश्न मनाती है, वहीं झारखंड के खरसावां का आदिवासी समुदाय एक जनवरी को ‘काला दिवस’ के रूप में मनाता है।

हर साल एक जनवरी को खरसांवा के शहीद स्थल पर शहीदों को याद किया जाता है और श्रद्धासुमन अर्पित की जाती है। खरसावां गोलीकांड में घायल हुए कुछ लोग जो चार—पांच तक जीवित थे। वे बस इतना ही बता पाये थे कि चारों ओर जहां तक नजर दौड़ती थी, लाश ही लाश नजर आती थी। शहीदों की संख्या के बारे में जो बहुत कम दस्तावेज उपलब्ध है, उनमें से एक है पीके देव (पूर्व सांसद व महाराजा, विपक्ष के नेता) द्वारा लिखित पुस्तक “मेमोरीज ऑफ एन बाइगोन एरा” इस पुस्तक में इस बात का उल्लेख है कि खरसांवा का ओड़िशा में विलय का विरोध करने वाले आदिवासियों पर ओड़िशा मिलिट्री ने फायरिंग की थी, जिसमें 2000 से ज्यादा आदिवासी मारे गये थे। (इसे जानने के लिए ‘द पीपुल्स मूवमेंट द मर्जर ऑफ स्टेट्स’ का पेज 123 देखना होगा) श्री देव की किताब और घटना के प्रत्यक्षदर्शियों के बयान में समानता झलकती है, लेकिन ओड़िशा की तत्कालीन सरकार ने पुलिस फायरिंग में सिर्फ 35 आदिवासियों के मरने की पुष्टि की थी, घटना एक जनवरी 1948 की है, जिससे संबंधित रिपोर्ट कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेज दैनिक द स्टेट्समैन में 3 जनवरी, 1948 के अंक में छपी थी।

कटक से भेजी गयी इस रिपोर्ट में कहा गया था कि “ओड़िशा सरकार द्वारा खरसांवा स्टेट्स के टेक ओवर के दौरान विलय का विरोध कर रहे 30 हजार आदिवासियों की अनियंत्रित भीड़ पर गोली चलाने से 35 आदिवासी मारे गये।”यह खबर ओड़िशा सरकार के हवाले से छपी थी। जाहिर है ऐसे में शहीदों की संख्या को कमतर दिखाया गया। इस गोलीकांड की जांच के लिए ट्रिब्यूनल का गठन किया गया था। उसकी रिपोर्ट कहां गयी? आज तक पता नहीं चल पाया है। जहां तक गोलीकांड की बात है, उसके पीछे की कहानी साफ है। देश की आजादी के बाद रियासतों का विलय हो रहा था। हैदराबाद के निजाम को लेकर सब परेशान थे, जिसे तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने सख्ती से निपटाया था। देशी रियासतों को तीन श्रेणी ए, बी और सी में बांटा गया था। ए में बड़ी, बी में मध्यम और सी में छोटी रियासतें थीं। खरसांवा स्टेट्स को सी श्रेणी में रखा गया था। सरायकेला और खरसावां दोनों स्टेट्स में ओड़िशा भाषियों की संख्या अधिक थी। इन दोनों स्टेट्स को ओड़िशा में विलय करने का निर्णय लिया गया था। कश्मीर में भी उन दिनों हंगामा हो रहा था। इस लिए ऐसा निर्देश था कि जो स्टेट्स सीधी तरह से बात न मानें, उनसे सख्ती से पेश आया जाये। 20 नवंबर, 1947 को वी.पी. मेनन के आवास पर नयी दिल्ली में एक बैठक हुई थी। इसमें ओड़िशा के तत्कालीन प्रीमियर हरेक्रुशन मेहताब और संबलपुर के तत्कालीन क्षेत्रीय आयुक्त भी शामिल थे।

इस बैठक के निष्कर्ष से मेनन ने तत्कालीन उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री वल्लभभाई झावेरभाई पटेल को अवगत कराया। इस बैठक में तय हुआ कि विलय को लेकर हो रही परेशानियों से कैसे निपटा जाए। इसका उल्लेख मेनन ने अपनी पुस्तक “द ओड़िशा एंड छत्तीसगढ़ स्टेटस” में किया है। खरसावां गोलीकांड का सीधा संबंध इसके ओड़िशा में विलय को लेकर था, इसलिए विलय पर चर्चा आवश्यक है। पूरे ओड़िशा प्रांत में विलय को लेकर स्थिति बिगड़ी थी और इसका असर दूसरे प्रांतों पर पड़ने की आंशका थी। इसको लेकर स्वयं सरदार पटेल और मेनन चिंतित थे। यह तय हुआ था कि विलय की प्रक्रिया ओड़िशा से ही की जाये। पहले कटक की बैठक में सिर्फ मेनन को जाना था, लेकिन बाद में सरदार पटेल ने भी जाने का निर्णय लिया। इसके पीछे कारण था कि सरदार पटेल किसी भी कीमत पर ओड़िशा की रियासतों का विलय आसानी से शांतिपूर्ण तरीके से कराना चाहते थे। इसलिए 13 और 14 दिसंबर 1947 की बैठक में सरदार पटेल ने कहा था कि मेरे सुझाव मानिये। फिर भी अगर आप न माने तो स्थिति बिगड़ने पर आप जब दिल्ली आयेंगे तब तक काफी विलंब हो जायेगा। अंततः सभी राजाओं ने विलय का फैसला कर लिया था।

कटक की बैठक में बिहार प्रांत के भी प्रतिनिधियों ने भाग लेने की इच्छा व्यक्त की थी। क्योंकि बिहार के कुछ हिस्सों को भी ओड़िशा में शामिल किया जा रहा था। विलय के दौरान खरसावां के तत्कालीन राजा का क्या रूख रहा था, इस पर जिक्र आज तक सिर्फ मेनन ने अपनी पुस्तक “द ओड़िशा एंड छत्तीसगढ़ स्टेट्स” में किया है। इस किताब में मेनन ने लिखा है — खरसांवा के राजा ने बैठक में कहा था कि उनका स्टेट बिहार के सिंहभूम जिले से घिरा हुआ है और आदिवासियों को इस बात की चिंता है कि उनका विलय उनके प्रांत में ही होना चाहिए। मेनन ने आगे लिखा है कि राजा की बात सुनने के बाद उन्होंने कहा था कि पहले विलय की प्रक्रिया पूरी कर लीजिए, फिर लोगों से बात कर यह तय किया जायेगा कि वे ओड़िशा में रहना चाहते हैं या बिहार में। मेनन (जो विलय प्रक्रिया के प्रभारी थे) की किताब पर अगर विश्वास किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि खरसावां राजा ने कटक की बैठक में आदिवासियों द्वारा बिहार में विलय करने की मांग को उठाया था। आदिवासियों की बात को तर्क के साथ रखा था, खरसावां स्टेट्स की ओर से राजा राम चंदर सिंह देव ने हस्ताक्षर किया था। वे जिस कार से हस्ताक्षर करने कटक गये थे, आज भी वह कार खरसावां के राजा के महल में पड़ी है। उनके साथ युवराज प्रदीप चंद्र सिंह देव भी गये थे। विलय प्रक्रिया के अनुसार 1 जनवरी, 1948 को सत्ता सौंपना था।

इसी बीच विलय के विरोध में आंदोलन शुरू हो गया। झारखंड अलग राज्य का आंदोलन भी चल रहा था, जयपाल सिंह ने ओड़िशा में विलय का विरोध किया था। वे बिहार के साथ जाना चाहते थे। जयपाल सिंह दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि बिहार के हिस्से को काटकर झारखंड राज्य बनाने की मांग चल रही है और इसके लिए आंदोलन चल रहा है। आज नहीं तो कल यह मांग पूरी होगी ही। लेकिन अगर सरायकेला और खरसांवा का ओड़िशा में विलय हो जाता है तो बाद में किसी भी हालत में उसे अलग झारखंड राज्य में शमिल नहीं किया जा सकता। हुआ भी यही, उनके आंदोलन के 50 साल बाद जब झारखंड बना तो सिर्फ बिहार को काट कर ही, जबकि ओड़िशा, बंगाल और मध्य प्रदेश के भी कुछ हिस्से को काटकर झारखंड में शामिल करने की मांग की जा रही थी अगर उन दिनों सरायकेला-खरसावां को ओड़िशा में शामिल कर लिया गया होता, तो इन दोनों का भी हाल मयूरभंज, क्योंझर जैसा होता यानी ये ओड़िशा में ही रहते। उन दिनों देश की राजनीति पर बिहारी नेताओं की पकड़ काफी मजबूत थी। डा. राजेन्द्र प्रसाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह भी काफी मजबूत थे, बिहार के सारे नेता भी आदिवासियों की मांग से सहमत थे कि सरायकेला-खरसावां को बिहार में ही रहना चाहिए।

उस समय उनके दिमाग में सिर्फ ओड़िशा और बिहार में से किसी एक को चुनने की बात थी, जबकि जयपाल सिंह बिहार के साथ रहकर बाद में झारखंड लेने तक की सोच रहे थे। अंततः जयपाल सिंह और अन्य नेताओं ने 1 जनवरी, 1948 को पावर का हस्ताक्षर होने का विरोध करने का निर्णय लिया था। इसी को लेकर उन्होंने अपील की थी कि विलय का विरोध करने के लिए सभी खरसांवा पहुंचे। जयपाल सिंह के आह्वान पर 50 हजार से ज्यादा लोग पारंपरिक हथियारों के साथ खरसावां पहुंचे थे। रांची, सिमडेगा, खूंटी, तमाड़, चाईबासा, सिंहभूम के दूर-दराज के लोग भी पहुंचे थे अधिकांश लोग ट्रेन से आये थे। बताया जाता है कि ओड़िशा सरकार ने पूरे खरसांवा को छावनी में तब्दील कर दिया था। झारखंड के आदिवासी किसी भी कीमत पर ओड़िशा में विलय नहीं चाहते थे। इन्हें बिहारी नेताओं का समर्थन भी था, अंततः दोपहर में हल्की झड़प शुरू हो गयी। ओड़िशा मिलिट्री पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी, मशीनगन से फायरिंग की गयी, दो हजार से ज्यादा लोग मारे गये, चारों ओर लाशें पड़ी थीं। प्रत्यक्षदर्शी ने बताया था उसके अनुसार जैसे ही फायरिंग शुरू हुई कुछ तो लेट गये ताकि गोली नहीं लगे वे ही बच गये, बाकी मारे गये। कौन लेटा हुआ था, कौन मारा गया था, इसकी पहचान करना मुश्किल था।

राज परिवार का कहना था कि जिस समय गोली चली, वे लोग अपने महल में थे और जब राजा ने बाहर निकलने का प्रयास किया तो ओड़िशा पुलिस ने रोक दिया और नहीं जाने दिया। बताना जरूरी होगा कि इस क्षेत्र को उड़ीसा राज्य में मिलाने के लिए उड़ीसा के मुख्यमंत्री विजय पाणी काफी आतुर थे। क्योंकि सिंहभूम का खरसांवा व सरायकेला का क्षेत्र पहाड़ों और जंगलों से घिरा था, जो खनिज संपदाओं से भरपूर था, जिसकी जानकारी उड़ीसा के मुख्यमंत्री विजय पाणी को थी। इसी मोह के वशीभूत हो उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने क्रूरता की हद पार कर दी। गोलीकांड के बाद पूरे देश में हंगामा हुआ। आजादी के बाद यह देश का सबसे बड़ा गोलीकांड था, विलय के विरोध में यह घटना घटी, इसलिए सरकार भी इस मामले को दबाना चाहती थी ताकि दूसरे जगहों पर हिंसा की घटना नहीं घटे। जांच के लिए ट्रिब्यूनल बना लेकिन उसकी रिपोर्ट कहां गयी, पता नहीं चला। इस घटना के बाद एक तरह से ओड़िशा की पुलिस ने खरसावां को खाली कर दिया था। लोगों में पुलिस के प्रति काफी आक्रोश था। इस घटना के कुछ माह बाद ही ओड़िशा के तमाम विरोध के बावजूद सरायकेला, खरसांवा को बिहार में शामिल कर लिया गया और जब बिहार का विभाजन हुआ तो वह स्वतः झारखंड में आ गया।

इस तरह हजारों गुमनाम आंदोलनकारियों की शहादत के बाद आज सरायकेला, खरसांवा झारखंड में है। हर साल झारखंडी जनता 1 जनवरी को अपने शहीदों को नमन करती है और इस दिन को काला दिवस के रूप में मनाती है। अब जबकि अलग झारखंड राज्य का गठन हो गया है। इस बात की जानकारी होनी चाहिए थी कि इस कांड में कितने लोग मारे गये थे और वे कौन लोग थे? ताकि अगर झारखंड के शहीदों के परिजनों को सरकार सहयोग देती है तो उससे वे वंचित न हों। यह अलग बात है कि खरसावां गोलीकांड में जो घायल हुए थे, उनमें से कई कई हाल के दिनों तक जीवित थे, लेकिन उन्हें एक पैसा का भी सरकार ने सहयोग नहीं दिया है। आखिरी समय तक ऐसे लोगों को भरोसा था कि आज नहीं तो कल, उन्हें सम्मान अवश्य मिलेगा। वहीं दूसरी तरफ आज झारखंड आंदोलन तथा अलग राज्य दिलाने के नाम पर सत्ता सुख हासिल करने वाले ऐसे नेता हैं जिन्होंने झारखंड के लिए कुछ भी नहीं गंवाया और सारी सुख सुविधाओं को भोग रहे हैं, जबकि झारखंड अलग राज्य के लिए अपना खून बहाने वालों को लाल बत्ती तो क्या लाल कार्ड भी उपलब्ध नहीं है। सरायकेला के भूरकुली निवासी दशरथ मांझी जो पांच साल पहले तक जिंदा थे, जिन्होंने सरायकेला, खरसांवा को तत्कालीन बिहार में शामिल करने के लिए हुए आंदोलन में भाग लिया था। उनकी जुबान वीरता की शौर्य गाथा कहते हुए कांप जाती थी।

बता दें कि आज दशरथ मांझी की तरह कई ऐसे गुमनाम शहीदों का जिक्र तक नहीं होता है। जो आंदोलन के दौरान अपाहिज हो गए। शहीद स्मारक समिति खरसांवा के अध्यक्ष 47 वर्षीय दामोदर सिंह हांसदा बताते हैं कि दशरथ मांझी की पत्नी तुलसी भी अब इस दुनिया में नहीं हैं, वे मजदूरी करके जीवनयापन करती रहीं। उन्होंने बताया था कि जब भारत आजाद हुआ तो दशरथ मांझी की उम्र 20 वर्ष थी। उस समय वे जमशेदपुर में नौकरी करते थे। सप्ताह में 10 रूपये 75 पैसे मिलते थे। 1 जनवरी, 1948 को नववर्ष की खुशियां मनाने एवं मकर पर्व के कारण घर आना हुआ। इसी बीच लोगों से जानकारी मिली की झारखंड अलग राज्य आंदोलन के पुरोधा जयपाल सिंह के नेतृत्व में खरसावां हाट मैदान में सरायकेला-खरसावां को ओड़िशा में शामिल करने के विरोध में तथा बिहार में शामिल करने की मांग में एक आम सभा का आयोजन किया गया है। उन्हें लगा कि उन्हें भी वहां जाना चाहिए और जब वे वहां पहुंचे, तो टीम का नेतृत्व कर रहे झारखंड पार्टी के वरीय नेता प्रसत्र मुर्मू ने उन्हें मैदान में डटे रहने की हिदायत दी। मकर पर्व का हाट था। इसलिए काफी तादाद में वहां लोगों की भीड़ जमा थी। अचानक खबर मिली कि किसी कारणवश जयपाल सिंह नहीं आ सके। अचानक भीड़ में काफी इजाफा हुआ। मरांग गोमके के न पहुंचने के कारण भीड़ अनियंत्रित हो रही थी। इसी दौरान भीड़ ने राजा को एक ज्ञापन सौंपने का निर्णय लिया जिसमें क्षेत्र को ओड़िशा में शामिल करने का विरोध किया गया था।

लाखों की तादाद में भीड़ राजावाड़ी की ओर कूच करने लगी। इसी दौरान वहां तैनात ओड़िशा मिलिट्री के जवानों ने भीड़ को रोकना चाहा। लेकिन आंदोलन पर उतारू लोगों का जोश इस कदर बढ़ा हुआ था कि वे किसी भी बाधा को पार करने के लिए आतुर थे। विरोध कर रही पुलिस पर तीरों की बौछार होने लगी। पांच पुलिस कर्मी आंदोलनकारियों के तीरों का शिकार होकर गिर गये। अनियंत्रित भीड़ पर काबू पाने में विफल पुलिसकर्मियों ने भीड़ पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। चंद पलों में लाशों के ढेर हो गए। इसी बीच एक गोली दशरथ की अंतड़ियों को छेद करती हुई निकल गयी। असह्य पीड़ा के बावजूद वे भय से एक पेड़ के नीचे लाश बनकर पड़े रहे। लाश की तरह उन्हें घसीटकर खरसावां थाना लाया गया। प्राथमिक उपचार के बाद उन्हें सरायकेला अस्पताल ले जाया गया। बाद में तीन माह तक उनका उपचार कटक के एक अस्पताल में किया गया। जब उन्हें कटक अस्पताल से छुट्टी मिली, तो प्रशासन की ओर से उन्हें दस रूपये घर जाने के लिए मिले थे। जब काफी इंतजार के बाद अलग राज्य बना, तब यह पल दशरथ के लिए दूसरी आजादी से कम नहीं थी। दशरथ को उम्मीद थी कि कम से कम झारखंड सरकार की ओर से उन्हें सम्मान तो मिलेगा।

इस गोलीकांड के एक और चश्मदीद गवाह साधु चरण बिरूआ भी अब इस दुनिया में नहीं रहे। तांतनगर के बड़ा पोखरिया गांव में लंबे समय तक गुमनामी की जिन्दगी जीने वाले साधु चरण विरूआ को भी 1 जनवरी, 1948 के खरसावां गोली कांड में एक गोली उनके बांह में लगी थी। उनके बांह में फंसी यह गोली 54 साल, 7 महीने, 12 दिन के बाद तक रही। गोली तो निकल गई लेकिन अपनी दर्द बयां करते उन्होंने बताया था कि उन्हें पता नहीं था कि उनके बांह में गोली है। उम्र ढलती गयी तो उनके बांह में दर्द व सूजन हुआ। इसके बाद वे जमशेदपुर में चिकित्सक के पास गये और गोली निकलवायी थी। बिरूआ ने गोली कांड को याद हुए बताया था कि जयपाल सिंह के आह्वान पर वे लोग खरसावां गये थे। उन्हें एक झंडा दिया गया, जिसे वहां गाड़ना था। जैसे ही वे लोग आगे बढ़े पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दी। वे आम के पेड़ के नीचे छिप कर लेट गये। बिरूआ बताया था कि उन्होंने सिर्फ सात जवानों को ही गोली चलाते हुए देखा था। जब तक वे लेटे थे, उन्हें कोई गोली नहीं लगी। थोड़ी देर बाद फायरिंग बंद हुई, तो वे अपनी उस थैली को लेने गये, जिसमें 3 सौ रूपये रखी हुई थी।

जैसे वे थैली उठाने के लिए झुके मशीनगन से गोलियां चलनी शुरू हो गयी। उनकी तलहटी पर गोली लगी और अंगुली बेकार गयी। वे वहीं लेट गये जिससे गोली उनके सिर या सीने में नहीं लगी। एक गोली जमीन से टकरा कर उनके बांह में लगी, जो 54 सालों तक फंसी रही थी। बिरूआ ने बताया था कि पहली गोली में उतना दर्द हुआ था कि बाद वाली गोली का पता तक नहीं चला। 54 साल बाद उन्हें मालूम हुआ कि उन्हें एक गोली और लगी थी, उन्होंने बताया था कि उन्होंने चारों ओर लोगों को मरे हुए पाया। जब फायरिंग रूकी तो वे भागे। ट्रेन पकड़कर वे जमशेदपुर वापस गये थे। जमेशदपुर के एमजीएम अस्पताल में उन्होंने अपना इलाज करवाया था। इसके बाद वे गांव आये और साठ वर्ष बाद शादी की। बिरूआ को इस बात का मलाल रहा कि इस आंदोलन के कामयाब होने के बाद भी आज तक आंदोलनकारियों के आश्रितों को कोई सरकारी सहायता नहीं मिली। अपने सहयोगियों के बार में वे बताते थे कि अब गोलीकांड के समय के बहुत कम ही लोग बचे हैं।

खरसावां गोलीकांड में शहीद हुए डोलो मानकी सोय के चचेरे भाई मंगल सोय बताते हैं कि इस गोलीकांड के 72 साल हो गए, मगर दो शहीदों को छोड़कर किसी अन्य शहीद के परिजनों को सरकारी स्तर से कोई सम्मान अभी तक नहीं मिला है। दो शहीदों में महादेव बुटा (खरसांवा) गांव के सिंगराय बोदरा व बायडीह (कुचाई) के डोलो मानकी सोय के परिजनों को 2016 में एक—एक लाख रूपए सम्मान स्वरूप दिया गया है।घटना के बाद समय के साथ यह जगह खरसावां शहीद स्थल में रूप में जाना गया, जिसका आदिवासी समाज और राजनीति में बहुत भावनात्मक व अहम स्थान है। खरसावां हाट के एक हिस्से में आज शहीद स्मारक है और इसे अब पार्क में भी तब्दील कर दिया गया है। एक जनवरी को शहीदों के नाम पर पूजा की जाती है। लोग श्रद्धांजलि देते हैं। फूल-माला के साथ चावल का बना रस्सी (खीर) चढ़ा कर पूजा की जाती है। शहीद स्थल पर तेल भी चढ़ाया जाता

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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