Wednesday, April 17, 2024

फ्लोर टेस्ट से पहले इस्तीफा देना उद्धव को महंगा पड़ा, बच सकती थी CM की कुर्सी

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि अगर महाराष्ट्र में विधानसभा अध्यक्ष को 39 विधायकों के खिलाफ लंबित अयोग्यता याचिकाओं पर फैसला करने से नहीं रोका जाता तो शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं ले पाते। चीफ जस्टिस  डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह, जस्टिस कृष्ण मुरारी, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पांच सदस्यीय संविधानपीठ शिवसेना पर दावे के केस की सुनवाई कर रही है। केस में गुरुवार को भी सुनवाई होगी।

ठाकरे गुट ने इससे पहले शीर्ष अदालत को बताया था कि निचली अदालत के 27 जून, 2022 को विधानसभा अध्यक्ष को विधायकों के अयोग्य घोषित करने संबंधी लंबित याचिकाओं पर फैसला करने की अनुमति नहीं देने और 20 जून, 2022 के आदेश में विश्वास मत की अनुमति देने के फैसलों के चलते महाराष्ट्र में शिंदे की सरकार बनी।

शिंदे गुट ने कोर्ट को बताया कि अगर 39 विधायक विधानसभा से अयोग्य हो जाते, तो भी ‘महा विकास अघाड़ी’ (एमवीए) सरकार गिर जाती क्योंकि वह बहुमत खो चुकी थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने शक्ति परीक्षण से पहले इस्तीफा दे दिया था। शिंदे के नेतृत्व में महाराष्ट्र में सरकार का बनना सुप्रीम कोर्ट के 27 जून, 2022 (अध्यक्ष को लंबित अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने से रोकना) और 29 जून, 2022 (विश्वास मत की अनुमति देना) के दो आदेशों का रिजल्ट था।

सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने शिंदे के वकील नीरज किशन कौल से कहा कि वे (उद्धव गुट) इस बात पर सही हैं कि एकनाथ शिंदे को गवर्नर द्वारा मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई थी और वे अपना बहुमत साबित करने में इसलिए सक्षम थे क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष शिंदे गुट के विधायकों के खिलाफ अयोग्यता की कार्रवाई करने में सक्षम नहीं थे।

इस पर कौल ने कहा कि 29 जून, 2022 के ठीक बाद ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया था, क्योंकि उन्हें पता था कि उनके पास बहुमत नहीं है और पिछले साल 4 जुलाई को फ्लोर टेस्ट में उनके गठबंधन को केवल 99 वोट मिले थे, क्योंकि एमवीए के 13 विधायकों ने मतदान से खुद को दूर रखा था। शिंदे को 288 सदस्यीय सदन में, 164 विधायकों का साथ मिल गया था, जबकि 99 विधायकों ने ठाकरे को वोट दिया था।

कौल ने कहा कि शिंदे गुट कभी भी ठाकरे के खिलाफ नहीं था, लेकिन महाविकास अघाड़ी के खिलाफ था। उन्होंने कहा कि हम तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ कभी नहीं थे, लेकिन हम एमवीए गठबंधन के खिलाफ थे। शिवसेना ने भाजपा के साथ पूर्व में गठबंधन किया था और चुनाव के बाद हमने एनसीपी और कांग्रेस की मदद से सरकार का गठन किया। जिसके खिलाफ हम थे।

उन्होंने कहा कि उद्धव गुट ने तीन संवैधानिक अधिकारियों गवर्नर, स्पीकर और चुनाव आयोग की शक्तियों को भ्रमित करने की कोशिश की है और अब चाहते हैं कि सब कुछ अलग-अलग रखा जाए, जिसमें पिछले साल 4 जुलाई के फ्लोर टेस्ट शामिल है।

कौल ने कहा कि 29 जून, 2022 के बाद उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया था क्योंकि उन्हें पता था कि उनके पास बहुमत नहीं है। पिछले साल 4 जुलाई को हुए फ्लोर टेस्ट में उनके गठबंधन को केवल 99 वोट मिले थे, क्योंकि एमवीए के 13 विधायक मतदान से अनुपस्थित थे।

पिछले साल चार जुलाई को शिंदे ने राज्य विधानसभा में भाजपा और निर्दलीयों के समर्थन से बहुमत साबित किया था। 288 सदस्यीय सदन में 164 विधायकों ने विश्वास प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था, जबकि 99 ने इसके विरोध में मतदान किया था।

शिंदे गुट ने कोर्ट को शिवसेना और भाजपा के चुनाव पूर्व गठबंधन के बारे में जानकारी दी। साथ ही शिवसेना पार्टी के अधिकार पर अपना दावा दोहराया। एन के कौल ने पीठ को बताया कि उनका गुट शिवसेना से अलग नहीं हुआ है, वे पार्टी के भीतर एक प्रतिद्वंद्वी गुट हैं। शिंदे गुट को शिवसेना के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए क्योंकि वे पार्टी का ‘प्रतिनिधित्व’ करते हैं।

इसके पहले  मंगलवार (28 फरवरी) को महाराष्ट्र राजनीतिक संकट से जुड़े मुद्दे को लेकर ठाकरे गुट और शिंदे गुट की तरफ से दायर याचिकाओं पर सुनवाई में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के धड़े ने शिवसेना पार्टी पर अपना अधिकार जताते हुए कहा कि एक विधायक दल राजनीतिक दल से संगठित रूप से जुड़ा होता है ।

शिंदे गुट के वकील ने पीठ को बताया कि विपक्षी नेताओं का अब मंत्रालय में विश्वास नहीं रह गया है। इस पर जस्टिस नरसिम्हा ने शिंदे खेमे से यह दिखाने को कहा कि उनके पास राजनीतिक बहुमत है न कि विधायी बहुमत। इस दौरान कोर्ट ने तमाम मुद्दों और फैसलों में कानूनी पहलुओं पर शिंदे खेमे से कई सवाल भी पूछे और यह जानने की कोशिश की कि दलबदल और फ्लोर टेस्ट को कैसे अलग किया जाए।

इस दौरान चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी टिप्पणी की कि अगर फ्लोर टेस्ट का कारण दसवीं अनुसूची के उल्लंघन पर आधारित है, तो उस स्तर पर फ्लोर टेस्ट आयोजित करना दसवीं अनुसूची के पूरे आधार और उद्देश्य को विफल कर देगा। कोर्ट ने यह भी जानना चाहा कि क्या शिंदे गुट एक दलबदल को वैध बना रहे हैं जो दसवीं अनुसूची के तहत स्वीकार्य नहीं है।

इस पर शिंदे गुट के अधिवक्ता ने जवाब दिया कि उनका मामला दसवीं अनुसूची के तहत विभाजन का मामला नहीं है। वे एक पार्टी के अंदर एक प्रतिद्वंद्वी गुट के बारे में बात कर रहे हैं जिनका हमारे साथ असहमति है और एक पार्टी के अंदर ही है और उनका दावा है कि शिवसेना उनकी है। वरिष्ठ अधिवक्ता कौल ने इसे आंतरिक असंतोष का मामला बताया।

कोर्ट ने कहा कि राजनीतिक दल के प्रमुख ने राज्यपाल को सूचित नहीं किया कि वे ‘महा विकास अघाड़ी’ के गठबंधन से हट रहे हैं। इसके जवाब में कौल ने कहा कि 55 में से 34 ने राज्यपाल को पत्र लिखकर कहा है कि उन्हें इस पार्टी पर भरोसा नहीं है। दरअसल उद्धव ठाकरे गुट ने पहले दिखाया था कि विपक्ष खेमे के पास दसवीं अनुसूची के तहत कोई बचाव नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान तमाम मुद्दों और फैसलों पर कानूनी पहलुओं को लेकर शिंदे खेमे से कई सवाल भी पूछे। साथ ही यह जानने की कोशिश की कि दलबदल और फ्लोर टेस्ट को कैसे अलग किया जाए ।

शिंदे गुट के एडवोकेट एन के कौल ने कहा कि हमारे विरोधी गुट का मंत्रिमंडल पर कोई भरोसा नहीं रह गया है। इस जवाब पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शिंदे गुट हमें अपना राजनीतिक बहुमत दिखाए।

चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘अगर हम आपकी इस दलील को मान लें तो इसके बड़े ही अजीब नतीजे सामने आएंगे। एक तरफ हमारे पास संविधान है, जो पार्टी से विद्रोह जैसे संवैधानिक पाप को रोकता है। दूसरी ओर आप कहते हैं कि जो भी विभाजन की वजह बनता है, उसे डिसक्वालिफाई किया जाना चाहिए। उसी वक्त आप यह भी कहते हैं कि भले ही वह व्यक्ति डिसक्वालिफिकेशन का जिम्मेदार है, फिर भी वह सदन में ट्रस्ट वोटिंग में हिस्सा ले सकता है।’

चीफ जस्टिस ने कहा कि टेस्ट फ्लोर की स्थिति इसलिए बनी, क्योंकि विधायकों का एक गुट पार्टी से अलग होने की वजह से डिसक्वालिफाई किया जा सकता था। पार्टी में विभाजन की वैधता ही जब सवालों में है तो क्या आप डिसक्वालिफिकेशन प्रॉसेस को फायदे के लिए नहीं इस्तेमाल कर रहे?’

कौल ने कहा कि यह पार्टी में विभाजन का केस है ही नहीं। मामला यह है कि शिंदे गुट ही शिवेसना है और वह पार्टी में ऐसा विरोधी गुट हैं, जिन्हें मेंबर्स का बहुमत हासिल है। केवल चुनाव आयोग ही यह फैसला ले सकता था कि कौन असली पार्टी है। अब चुनाव आयोग ने यह कह दिया है कि शिंदे गुट ही आधिकारिक शिवेसना है।

जस्टिस हिमा कोहली ने कहा कि 30 जून को केवल एक ही पार्टी थी। आपने ओरिजिनल पार्टी से मिले टिकट के आधार पर चुनाव लड़ा था। अगर आप कहते हैं कि आप ही असली पार्टी हैं तो आपको यह विधानसभा के बाहर करना था, सदन में नहीं।

कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में शिंदे-ठाकरे विवाद पर राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठा दिया। उन्होंने कहा कि शिंदे सरकार को उन्होंने अवैध तरीके से बनाया। राज्यपाल से उम्मीद की जाती है कि वे संविधान की मर्यादा में रहकर काम करें। एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस को शपथ दिलाने का फैसला महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल कोश्यारी ने किस आधार पर किया?  यह कौन सा विवेक, कहां की नैतिकता है?  इन सवालों को उठाते हुए मैं केस जीतूं या हारूं, इसके लिए मैं आज अदालत में नहीं खड़ा हूं। मैं इसलिए आज खड़ा हूं ताकि देश में संविधान की मर्यादा कायम रहे, जो हमने 1950 से संजोकर रखी है।

कपिल सिब्बल ने संविधान की दसवीं अनुसूची, राज्यपाल के अधिकार, अविश्वास प्रस्ताव जैसे मुद्दों पर अपनी दलीलें पेश कीं। कपिल सिब्बल ने अपनी दलीलों में कहा कि दसवीं अनुसूची के मुताबिक अगर किसी पार्टी का कोई धड़ा अलग होता है तो उसे मान्यता देने की मनाही है। बागी विधायकों के गुट को हर हालत में किसी दूसरी पार्टी में विलय करना होता है। लेकिन संविधान की ओर से जो साफ तौर से मना किया गया है, राज्यपाल ने वही काम किया।

सिब्बल ने कहा कि जब चुनी हुई सरकार अस्तित्व में आ जाती है, तब राज्यपाल को अपने विवेक से फैसला करने का हक नहीं रहता है। राज्यपाल अपने विवेक से फैसला उसी स्थिति में कर सकता है जब अविश्वास प्रस्ताव आए, सरकार गिर जाए या ऐसा ही कोई संवैधानिक सवाल खड़ा हो जाए। राज्यपाल अपनी मनमानी करते हुए सरकार नहीं गिरा सकता। राज्यपाल से उम्मीद की जाती है कि वे संविधान की मर्यादा में रह कर अपना काम करे। संविधान के खिलाफ जाकर शपथ दिलाना कहां की नैतिकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान कहा कि अगर उद्धव ठाकरे खुद से यह सोच कर कि वे अल्पमत में हैं इस्तीफा नहीं देते और फ्लोर टेस्ट के लिए जाते,  तब अगर शिंदे गुट बीजेपी के साथ मिलकर अलग वोट करता, तब आज सुप्रीम कोर्ट उद्धव ठाकरे के हक में उस प्रस्ताव को रद्द कर सकता था। लेकिन उद्धव ठाकरे ने तो मौका ही नहीं दिया। उन्होंने अपने पद से पहले ही इस्तीफा दे दिया। उन्हें फ्लोर टेस्ट का सामना करना चाहिए था। इस पर सिब्बल ने कहा कि उद्धव ठाकरे ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया था।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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