Saturday, April 20, 2024

आज भी सड़क, पानी, बिजली, स्वास्थ्य व शिक्षा की राह ताकते झारखंड के कई गांव

झारखंड। कहना ना होगा कि आजादी के सात दशक बाद और झारखंड अलग राज्य गठन के दो दशक बाद भी राज्य में ऐसे कई गांव हैं, जहां तक जाने के लिए न तो सड़क है, न शुद्ध पेयजल की व्यवस्था है, न स्वास्थ्य केंद्र है, न रोशनी और न ही रोजगार की कोई सार्थक व्यवस्था है।

बात शुरू करते हैं बोकारो जिले के जरीडीह प्रखंड अंतर्गत दक्षिणी बांधडीह पंचायत के भंडारगोड़ा गांव की, जो प्रखंड मुख्यालय से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर है। वहीं जिला मुख्यालय से यह गांव लगभग 15-16 किमी दूर है। इस गांव में झारखंड की सबसे पिछड़ी जाति घटवार और कमार (करमाली) के घरों को मिलाकर कुल 15-16 घर हैं। गांव की कुल आबादी 100 के आसपास होगी।

इस गांव से 150 मीटर की दूरी पर मुख्य सड़क है। जो प्रखंड मुख्यालय तो जाती ही है, साथ ही लगभग दो ढाई किलोमीटर दूर अवस्थित जैनामोड़ बाजार भी जाती है, जो इस गांव के लोगों के लिए रोजगार का माध्यम है।

भंडारगोड़ा गांव के लोगों की रोजी-रोटी का साधन मजदूरी है। ये लोग बाजार में व्यापारियों के सामान को पीठ पर लादकर एक जगह से दूसरी जगह करते हैं या रिक्शा से एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते हैं। इस काम को मुख्यतः घटवार जाति के लोग करते हैं, जबकि कमार जाति के लोग लोहा से बनने वाली सामाग्री तैयार करते हैं। जैसे कृषि कार्य में इस्तेमाल होने वाला सामान या घर में रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाली सामग्री।

लोहे का औजार बनाने की जगह

गांव में बिजली तो है लेकिन न स्वास्थ्य केंद्र है न शुद्ध पेयजल की व्यवस्था। पेयजल या पानी के अन्य कामों के लिए मात्र एक चापाकल है। शिक्षा के नाम पर एक नव प्राथमिक विद्यालय है और एक आंगनवाड़ी केंद्र है, जिसकी बिल्डिंग जर्जर है। वहां केवल बोर्ड लगा है। आंगनवाड़ी सेविका और बच्चे वहां जाते ही नहीं। प्राथमिक विद्यालय में बच्चे केवल मध्याह्न भोजन के लिए जाते हैं। गांव में जनप्रतिनिधि केवल चुनाव के वक्त आते हैं, बाकी दिन प्रतिनिधि भी दर्शन नहीं देते।

वहीं बोकारो जिले के ही गोमिया प्रखंड का असनापानी गांव में आज भी बिजली नहीं पहुंची है। ढिबरी ही लोगों के जीवन में रोशनी का सहारा है। ना सड़क है, ना शुद्ध पेयजल की सुविधा। एक डाड़ी (जो गांव के सबसे नीचे के भाग में अवस्थित खेत में गढ्ढा होता है) से पूरे गांव की प्यास बुझती है। वह भी गर्मियों में पूरी तरह सूख जाता है।

जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूरी पर बसे इस गांव तक जाने के लिए सड़क तक नहीं है। ग्रामीणों को लगभग 12 किमी की दूरी तय करके दुर्गम पहाड़ियों तथा पथरीले रास्ते से पैदल जाना होता है। न स्कूल, न चिकित्सा सुविधा, रोशनी के लिए कुछ सोलर लाइट लगी हैं, लेकिन अब बेकार होकर शोभा की वस्तु में बदल चुकी हैं। गांव में एक भी व्यक्ति इतना पढ़ा लिखा नहीं मिला जो प्रखंड कार्यालय जाकर या गांव का दौरा कर रहे प्रशासनिक अधिकारियों या कर्मचारियों को अपनी समस्या सुना सके, हक अधिकार की मांग कर सके।

सड़क का हाल

सड़क की असुविधा का आलम यह है कि गांव में साइकिल, मोटरसाइकिल से पहुंचना तो सपने जैसा है। गांव में अगर कोई बीमार पड़ गया या किसी गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई तो समझिए उस परिवार के लिए शामत आ गई। अस्पताल तक पहुंचना असंभव सा हो जाता है। ग्रामीण खाट में उठाकर 12 किमी पैदल यात्रा करते हुए गांव के बाहर मुख्य सड़क पर इंतजार में खड़ी एंबुलेंस तक मरीज को पहुंचाते हैं। तब जाकर इलाज संभव हो पाता है।

गोमिया के प्रखंड विकास पदाधिकारी कपिल प्रसाद का कहना है कि यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है। सड़क नहीं होने के चलते यहां से मरीजों को भी इलाज के लिए ले जाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

अब आते हैं गुमला जिला के डुमरी प्रखंड के करनी पंचायत के करमदोन ग्राम के 14 घरों के सिधमा गांव टोला पर, जो प्रखंड मुख्यालय से महज आठ 8 किलोमीटर की दूरी पर है और झारखंड-छत्तीसगढ़ सीमा पर अवस्थित पहाड़ियों से घिरा है।

गांव में जन सुविधाओं का अभाव

इस गांव में बसने वाले आदिवासियों में लगभग 150 मुंडा व नगेसिया जनजाति के लोग निवास करते हैं। यहां से छत्तीसगढ़ की दूरी महज पांच किलोमीटर है। इस गांव के लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। सड़क तो है लेकिन कहने भर को, क्योंकि इस पर पैदल चल पाना भी मुश्किल भरा है। पेयजल की सुविधा नहीं है। गांव में एक जलमीनार तो बना है, लेकिन पर्याप्त पानी नहीं मिलता है। इसके कारण लोग नदी का पानी पीने को विवश हैं।

यहां के लोग कृषि कार्य पर निर्भर हैं। सिंचाई की असुविधा के कारण यहां के ग्रामीण सिर्फ मानसूनी फसल ही कर पाते हैं। इसके बाद रोजगार की तालाश में महानगरों का रुख करते हैं। जो गांव में रह जाते हैं, वे जंगल की लकड़ी काटते हैं और बाजार ले जाकर बेचकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। गांव में कोई चिकित्सा सुविधा भी नहीं है। इस गांव के लोग अक्सर जंगली हाथियों के डर से भी भयभीत रहते हैं।

गुमला जिला का ही गुमला प्रखंड का फोरी जुंगाटोली गांव जो जिला मुख्यालय से महज आठ किमी की दूरी पर स्थित है। यहां भी सड़क के अभाव में बीमार होने पर रोगी को इलाज के लिए बहंगी पर बैठाकर ले जाया जाता है। क्योंकि गांव तक आने की सड़क न होने के कारण वाहन गांव तक नहीं पहुंच पाती है।वहीं नदी में पुल नहीं होने के कारण गांव बरसात में टापू में तब्दील हो जाता है। मतलब साफ है कि आजादी के सात दशक बाद भी इस गांव की सूरत जस की तस है।

महिला के इलाज के लिए ले जाते लोग

ऐसा भी नहीं है कि ग्रामीणों ने गांव के विकास और गांव में बुनियादी सुविधा के लिए जिला प्रशासन से अनुरोध नहीं किया है। ग्रामीणों द्वारा बार-बार इस ओर ध्यान दिलाने के बावजूद अधिकारी और जनप्रतिनिधियों ने कभी इस गांव के लोगों की सुध नहीं ली।

फोरी जुंगाटोली से होकर खटवा नदी गुजरती है। इस नदी पर पुल नहीं है। बरसात के दिनों में आवागमन पूर्णतः बाधित हो जाता है। स्कूली बच्चें भी बरसात में छुट्टी मनाते हैं। बीमार होने पर बहंगी पर बैठाकर नदी पार करना पड़ता है और फिर कच्ची सड़क तक आना पड़ता है।

2016 के बाद से गांव में बिजली नहीं है। विभाग को कई बार ग्रामीणों ने अनुरोध किया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। सड़क भी नहीं है। कच्ची सड़क है लेकिन जगह जगह गड्ढा बना हुआ है। बरसात में आवागमन खतरों से भरा रहता है। गांव में पेयजल सहित अन्य बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। ग्रामीणों ने उपायुक्त को कई बार पत्र देकर गांव की समस्या से अवगत कराते हुए बुनियादी सुविधा बहाल कराने का अुनरोध किया है। लेकिन परिणाम सिफर रहा है।

सड़क का हाल

राज्य के गोड्डा जिला अंतर्गत ठाकुरगंगटी प्रखंड क्षेत्र की बनियाडीह पंचायत के गड़ी पड़वारा गांव भी अन्य गांवों की तरह सड़क एवं पानी की समस्या से ग्रसित है। गांव के लोगों को गांव से बाहर आने-जाने के लिए सड़क आज तक नसीब नहीं हो पायी है। ग्रामीण आज भी सड़क व पेयजल की समस्या के निदान के लिये जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक पहल की बाट जोह रहे हैं।

20 घर वाले इस गांव में लगभग दो सौ लोगों की आबादी है। गांव में मात्र एक चापाकल के भरोसे लोगों की प्यास बुझती रही है। गर्मी के दिनों में चापानल के पानी का लेयर घटने लग जाता है जिसकी वजह से ग्रामीणों को बगल में बहने वाली नदी का पानी पीने को मजबूर होना पड़ता है। 

ग्रामीण दुखू मिर्धा, परमेश्वर मिर्धा, सिकंदर मिर्धा, महेंद्र मिर्धा, महेश्वर यादव समस्याओं को गिनाते हुए कहते हैं कि गांव में शुद्ध पेयजल की समुचित सुविधा नहीं है। स्थानीय विधायक की पहल पर गांव में एक चापाकल लगाया गया है। लोगों को उसी चापाकल से पानी की उपलब्धता होती है। गांव में एक भी जलमीनार नहीं लगाया गया है। पानी का लेयर काफी नीचे चले जाने की वजह से पानी निकलना बंद हो जाता है। ग्रामीणों ने बताया कि मवेशियों के लिये पानी की समस्या बड़ी तकलीफ देह हो गयी है।

पानी के लिए एकमात्र चापाकल का सहारा

ग्रामीणों की मानें तो गांव के सभी लोग कैदी जैसा महसूस करते हैं। ग्रामीणों को गांव से बाहर आने-जाने के लिए सड़क तक नहीं है। ग्रामीण बहियार में बनी पगडंडी के सहारे आवागमन करने को मजबूर हैं। वो बताते हैं कि गांव में कुर्मी, मंडल, यादव व मिर्धा जाति के लोग रहते हैं। सभी गरीब तबके हैं। मजदूरी कर अपना गुजर-बसर करते हैं। लोगों के लगातार प्रयास के बावजूद अब तक गांव में सड़क नहीं बन सकी है, सड़क के न होने की वजह से गांव में चार पहिया वाहन भी नहीं आ पाते हैं।

आवागमन की सुविधा के अभाव में बीमार पड़ने पर मरीज को खाट के सहारे अस्पताल ले जाना पडता है। क्योंकि गांव तक एंबुलेंस नहीं आ पाती है। ग्रामीण बताते हैं कि गांव से पूरब में बनियाडीह गांव है। जहां एक हाई स्कूल है, इस गांव की सड़क से गड़ा पड़वारा गांव को भी जोड़ा जा सकता है। उत्तर में आदिवासी बाहुल्य गांव धरनीचक है। इस गांव तक लोग पगडंडी के सहारे सड़क तक जाते हैं। दोनों ओर पगडंडी ही है, अतः ग्रामीण इसी के सहारे आवागमन करते हैं।

ग्रामीण एक किलोमीटर पैदल चलकर गोपालपुर गांव के डीलर के दुकान से राशन लाते हैं। गड़ा पड़वारा गांव में छोटे बच्चों के लिये प्राइमरी स्कूल तो दूर आंगनवाड़ी केंद्र तक नहीं है। जिला प्रशासन से ग्रामीणों ने कई बार मांग की है कि गांव तक आने जाने के लिए सड़क की व्यवस्था कर दी जाये, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट)

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