Friday, March 29, 2024

कार्पोरेटी हिंदुत्व के डबल म्यूटेंट रामदेव वायरस की टर्र टर्र के पीछे क्या है ?

महामारी से मुकाबले के लिए जरूरी सामूहिक चेतना विकसित करने की बजाय – जिस विज्ञान की इस महामारी से उबरने के लिए सर्वाधिक आवश्यकता है उस विज्ञान के धिक्कार और सामूहिक तिरस्कार के अगले चरण में आ चुके हैं हम भारत के लोग। कोरोना मौतों की भयानक खबरें अभी जारी ही थीं कि निर्बुद्धिकरण के ट्रिपल म्यूटेन्ट वायरस सत्ता गिरोह संबद्ध योग व्यापारी रामदेव ने हमला बोल दिया। इस वायरस ने आधुनिक चिकित्सा प्रणाली – आम भाषा में जिसे एलोपैथी कहते हैं – को ही निशाने पर नहीं लिया बल्कि मोदी सरकार की घोर नाकामी और अत्यंत अपर्याप्त साधनों के बावजूद कोविड-19 से लोगों की जान बचाने में जुटे डॉक्टरों की मौतों का भी मजाक उड़ाते हुए उन्हें डॉक्टर की जगह “टर्र टर्र” बताने वाला एक बेहूदा और अपमानजनक वीडियो भी जारी कर दिया। कार्पोरेटी बाबा वैक्सिनेशन को मौतों का जिम्मेदार बताने की हद तक पहुँच गया। 

अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, अवैज्ञानिकता, अतार्किकता इस वायरस का डीएनए है – असभ्यता इसकी प्रोटीन है। इसमें खुद को मल्टीप्लाय करने की अपार शक्ति है – हमारे समाज की बुनावट, जीवन और आचरण शैली, कथित परम्पराओं और तथाकथित मान्यताओं में इसके आहार के लिए पर्याप्त से अधिक पौष्टिकता मौजूद है। इसने दुनिया को बड़े बड़े नुकसान पहुंचाये हैं। भारतीय सभ्यता के जीवन के तो डेढ़ हजार साल ही हजम कर लिए हैं। अपने अंतिम निष्कर्ष में यह दुनिया और भारत की मानवता की हासिल बौद्धिकता और मनुष्यता दोनों का अंतिम संस्कार है। ठीक इसीलिए यह कोरोना की महामारी से ज्यादा गंभीर और चिंताजनक है। इस कथित बाबा वायरस की कारगुजारियों और उन्हें अंजाम देने की ढीठता के आगे पीछे क्या और कौन है इसका जायजा लेने के पहले मुख्य सवाल – चिकित्सा प्रणालियों के औचित्य – अनौचित्य और उनकी कथित प्रतिद्वन्द्विता के सवाल पर नजर डालना ज्यादा ठीक होगा।

दुनिया में हजार तरह की चिकित्सा प्रणालियाँ हैं। इनमें से कोई भी आसमान से नहीं उतरी। सभी प्रणालियाँ मनुष्य ने प्रकृति के साथ रहते, जीते, लड़ते हुए अपने अनुभवों से सीखा है, प्रयोगों से माँजा और सुधारा है । अगली पीढ़ियों ने अपने तजुर्बों और प्रयोगों, बुद्धि और समझ से इन्हें पहले से बेहतर और आधुनिक से आधुनिकतर बनाया है। हर प्रणाली का अपना इतिहास और योगदान है – उसकी योग्यताएं और क्षमताएं हैं तो सीमाएं भी हैं। यही सीमाएं हैं जो मनुष्य में जिद पैदा करती हैं कि वह उन्हें तोड़े और पहले से अधिक निरोगी तथा दीर्घायु होने के उपचार तलाशने की दिशा में आगे बढ़े। रामदेव जिसका ठेकेदार बनने की कोशिश कर रहे हैं और जिसके बारे में उनका ज्ञान बिहार या उत्तर प्रदेश के किसी कस्बे के पुराने वैद्य जी की तुलना में एक प्रतिशत भी नहीं है वह आयुर्वेद कोई 3000 वर्ष पुरानी चिकित्सा प्रणाली है।

किन्तु सकल ब्रह्माण्ड में वह अकेली प्रणाली – पैथी –  नहीं है। पृथ्वी के इसी हिस्से में होम्योपैथी है, बायोकैमी है, यूनानी है, तिब्बती है, प्राकृतिक चिकित्सा और मृदा (मिट्टी) चिकित्सा है। एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेशर जैसी विधाएं हैं। आदिवासियों की अपनी जड़ी बूटियां और उपचार हैं। नानी और दादी के आजमाये नुस्खों का भण्डार है। इनमें से किसी को भी सिरे से खारिज कर देना उतना ही मूर्खतापूर्ण बर्ताव है जितना कि इनमें से किसी को भी सर्वश्रेष्ठ बताना या एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करना। ऐसा करना असल में स्वयं मनुष्य के सृजन, अनुसंधान, आविष्कार और शोध का और इस तरह उसके इतिहास का नकार है। यह ठीक वैसी ही बात है जैसे डिजिटली लिखना पढ़ना आ जाने के बाद बर्रू, कलम, फाउन्टेन पेन, जेल पेन, टाइपराइटर जैसे लिखने और पत्तों, धातुओं के पटरों और पत्थरों पर लिखी जानकारियों और किताबों को पढ़ने के पुराने उपकरणों की भर्त्सना की जाए या उन्हीं पर मोहित होकर आधुनिक तरीकों को निंदनीय बताया जाए ।  

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अब तक की सारी खोजों और अनुसंधानों का समग्र है – प्रमाण और प्रयोगों से पुष्टि इसका आधार है। समाज अपने अनुभवों के साथ उनका उपयोग करता है और अपने उपयोग के अनुभवों के आधार पर उनका परिमार्जन करता रहा है। उदाहरण के लिए देश के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे प्रदेश केरल के आयुर्वेदिक औषधालय, रसशाला, वैद्य, पंचकर्म विशेषज्ञ तो दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। लेकिन उन्होंने कोरोना से लड़ाई करते में इनमें जाने की सलाह नहीं दी। कोरोना से केरल को बचाने में जी जान से लगे आधुनिक अस्पतालों, डॉक्टर्स, नर्सेज आदि स्वास्थ्यकर्मियों को अपमानित नहीं किया ।  पूरे देश की तुलना में बंगाल में होम्योपैथी का कुछ ज्यादा ही प्रचलन है । मगर वहां भी कोरोना और बड़ी बीमारियों का इलाज करने के लिए लोग आधुनिक चिकित्सा पर ज्यादा विश्वास करते हैं। यहाँ पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में हुए चिकित्सा विज्ञान के विकास की एंटीबायोटिक्स और वैक्सिनेशन और नैनो-टेक्नोलॉजी की क्रांतिकारी खोजों से हासिल उपलब्धियों का ब्यौरा देना संभव नहीं है।  दुनिया की अधिकांश सभ्यताओं ने अपनी-अपनी परम्परागत चिकित्सा प्रणालियों का आधुनिक विज्ञान और प्रणालियों के साथ मेलमिलाप – इंटीग्रेशन – किया है।

रामदेव के कुप्रचार और डॉक्टर्स को निशाना बनाकर की जा रही  उनकी गाली गलौज का आयुर्वेद के साथ कोई रिश्ता नहीं है। रामदेव कार्पोरेटी हिंदुत्व के बीज – प्रतीक हैं। हिंदुत्व के साथ गलबहियां करते हुए दरबारी पूँजीवाद के उदाहरण बन देखते ही देखते उन्होंने खुद को देश के 10 नम्बरी कारपोरेटों में शामिल कर लिया। रामदेव का आयुर्वेद उतना ही खोखला है जितना भाजपा का राष्ट्रवाद ; अपने अपराधों की ढाल की तरह वे आयुर्वेद का इस्तेमाल कर रहे हैं। मगर मसला सिर्फ कमाई भर का नहीं है – इससे आगे का है। इतनी बड़ी महामारी के बीच इस तरह की बकवास बिना मोदी कुनबे के अभयदान के संभव नहीं है। वैसे यह सिर्फ अभयदान का नहीं भागीदारी और संलिप्तता का मामला है। एक साझी पटकथा के मंचन का मामला है। रामदेव की जिस कोरोनिल को दवा प्रमाणीकरण की स्वीकृत प्रयोगशालाओं ने कोरोना की औषधि तो दूर प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली – इम्युनिटी बूस्टर – तक नहीं माना। उसे खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री से लेकर शिक्षा मंत्री तक द्वारा बाक़ायदा प्रचारित और वितरित किया जा रहा है।  हरियाणा से लेकर उत्तराखण्ड तक की भाजपा सरकारें करोड़ों की तादाद में इसे खरीद बेच रही हैं। मध्यप्रदेश सहित अनेक भाजपा शासित राज्य इसी तरह की दवाओं और रामदेवी काढ़े पर सैकड़ों करोड़ लुटा रहे हैं।  

यह कोरोना-वायरस के हमले से कहीं ज्यादा गंभीर और चिंताजनक स्थिति है। यह गुजरे पांच हजार वर्षों की सभ्यता द्वारा हासिल ज्ञान, मेधा और कौशल का तिरस्कार है। यह भारत भर के ही गिने तो ; बुद्ध के निजी चिकित्सक जीवक कुमारभच्छ से लेकर सुश्रुत, चरक, धन्वन्तरि, नागार्जुन,अत्रेय, अग्निवेश, वाग्भट, अश्विनी, दृधबाला जैसे आरंभिक और डॉ आनंदीबेन जोशी से लेकर आज जिलों तहसीलों के अस्पतालों में जोखिम उठाकर मानवता को बचाने के लिए जूझ रहे उनके डॉक्टर, नर्स, पैरा मेडिकल स्टाफ रूपी बेटे बेटियों आदि महानतम चिकित्सकों के श्रम का अपमान है।

खुद बीमार पड़ने पर आधुनिकतम अस्पतालों में प्रामाणिक चिकित्सा प्रणाली से इलाज कराने वाले संघ-भाजपा-कारपोरेट गिरोह ने सुश्रुत, चरक और धन्वन्तरि के देश का गौ-मूत्राभिषेक करके रख दिया है। आर्यभट्ट और जीवक, लीलावती और शूद्रक की उपलब्धियों को लथेड़ कर गोबरान्वित कर दिया है। ऐसा करके वे दो उल्लू सीधा करना चाहते हैं । लाशों से पटी गंगा – यमुना, श्मशानों और कब्रिस्तानों में लगी कतारों के बीच दवा – ऑक्सीजन – वैक्सीन तक उपलब्ध न कराने की सरकार की आपराधिक विफलता से ध्यान बंटाने के लिए सनसनीखेज हेडलाइंस बनाना चाहते हैं।

जब कोरोना की तीसरी लहर के आने की चिंताजनक आशंकाओं के बीच ब्लैक फंगस की नयी बीमारी अलग रंगों में फैलना शुरू कर चुकी हो तब एक फालतू की आग सुलगाकर उसके धुंए में अपने चीफ कोरोना स्प्रेडर ब्रह्मा और उसकी सरकार की नाकामियों को छुपाना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर आयुर्वेद की आड़ में यह विज्ञान और वैज्ञानिक रुझानों पर उस हमले की निरंतरता है जिसे आरएसएस और भाजपा ने शुरू से अपने प्राथमिक एजेंडे पर लिया हुआ है। पहले वे इतिहासकारों के लिए आये, उसके बाद प्रगतिशील विचारकों, साहित्यकारों, कलाकारों से होते हुए विश्वविद्यालयों और शिक्षा के पाठ्यक्रमों को तोड़ा मरोड़ा – अब वे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को निशाने पर ले रहे हैं। भारत को मध्ययुग में पहुंचाने का मिशन आपदा में भी अवसर ढूंढ रहा है।

संतोष की बात यह है कि रामदेव को आगे रखकर चलाई जा रही इस मुहिम के खिलाफ देश के चिकित्सकों ने एकजुट होकर मोर्चा खोला हुआ है। उम्मीद है कि यह बहस सिर्फ रामदेव प्रपंच के खंडन तक सीमित नहीं रहेगी – इसकी जड़ों तक जाएगी।  

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक हैं और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles