आखिरकार वही हुआ जिसकी संभावना अधिक थी। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री या कहें एक्सीडेंटल मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन ने भाजपा में शामिल होने की तारीख 30 अगस्त को मुकर्रर कर ही दी। यह घोषणा चंपाई ने 26 अगस्त की रात केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और असम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्वा सरमा से मुलाकात के बाद की।
इसकी जानकारी असम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्वा सरमा ने भी दी है। हिमंता विश्वा सरमा ने ‘एक्स’ पर लिखा है कि “झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और हमारे देश के प्रतिष्ठित आदिवासी नेता चंपाई सोरेन जी ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जी से मुलाकात की। वे 30 को रांची में आधिकारिक रूप से भाजपा में शामिल होंगे।”
चंपाई सोरेन ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। सोरेन ने कहा है कि “जनता के समर्थन के कारण संन्यास का फैसला मैंने बदल दिया है।”
खबर है कि चंपाई सोरेन 28 अगस्त को रांची आयेंगे और पार्टी व सरकार में अपने सभी पदों से इस्तीफा देंगे।
इससे पहले चंपाई सोरेन के रांची से दिल्ली जाने से पहले हिमंता विश्वा सरमा ने कहा था – “हम खुद चाहते हैं कि चंपाई सोरेन भाजपा में आयें और ताकत दें। वे बड़े लीडर हैं। उनके बारे में मुझे टिप्पणी करना अच्छा नहीं लगता है। पिछले पांच-छह माह से उनसे बात होती रही है। अब तक उनके साथ कोई भी राजनीतिक बात नहीं हुई है। पर मुझे लगता है कि अब समय आ गया है।”
चंपाई सोरेन ने भी भाजपा में जाने की पुष्टि करते हुए कहा कि “मैंने अपनी स्थिति 18 अगस्त को ही स्पष्ट कर दी थी। पहले मैंने सोचा था कि संन्यास ले लूंगा, लेकिन फिर जनता के समर्थन के कारण मैंने फैसला बदला। अब मैंने बीजेपी में जाने का फैसला कर लिया है।”
एक सप्ताह पहले ही चंपाई सोरेन ने झामुमो छोड़ने का संकेत दे दिया था। उस वक्त वे दिल्ली गये थे और दो दिनों बाद सरायकेला वापस आ गये। इस दौरान वह लगातार अपने समर्थकों से मिलते रहे।
25 अगस्त को वे पुनः कोलकाता चले गये और वहां से दोबारा दिल्ली गये। दिल्ली के होटल ताज में वह दिन भर रुके रहे।
खबर के मुताबिक वे देर रात को असम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्वा सरमा उन्हें अपनी गाड़ी में बिठा कर अमित शाह से मिलाने ले गये। करीब आधे घंटे तक अमित शाह के साथ उनकी बातचीत हुई। इसके बाद उनके भाजपा में शामिल होने की घोषणा की।
वैसे चंपाई सोरेन पर लिखने के लिए कुछ विशेष नहीं है बावजूद इसके झारखंड की राजनीतिक करवट जिस तरह से दिल्ली शिफ्ट गई है, ऐसे में चंपाई सोरेन भी झारखंड की राजनीति के केन्द्र में शिफ्ट हो गए हैं।
इन घटनाक्रम पर यह बताना जरूरी हो जाता है कि झामुमो की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखें तो झामुमो से दूर होने वाले नेताओं में अर्जुन मुंडा और विद्युत वरण महतो को छोड़कर जिन लोगों ने झामुमो से नाता तोड़ा वे राजनीतिक हाशिए पर ऐसे पड़े कि आज की पीढ़ी उनको जानती भी नहीं है।
उल्लेखनीय है कि झामुमो से राजनीतिक सफर की शुरुआत करने वाले सिर्फ अर्जुन मुंडा और जमशेदपुर के सांसद विद्युत वरण महतो ही अभी तक राजनीतिक पर्दे पर हैं, जबकि कृष्णा मार्डी, सूरज मंडल, दुलाल भुइंया, कुणाल षाड़ंगी और सीता सोरेन का राजनीति करियर हाशिए पर लग गया है।
जहां अर्जुन मुंडा झारखंड के तीन बार मुख्यमन्त्री रहे, वहीं वे केंद्रीय मंत्री की भी जिम्मेवारी संभाल चुके हैं। वहीं 2014 में विद्युत वरण महतो झामुमो का दामन छोड़ भाजपा में गए, तब से वे भाजपा के टिकट पर जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं।
आइए देखते हैं झामुमो से नाता तोड़ने के बाद कौन कहां रहा…..
●कृष्णा मार्डी
एक समय कृष्णा मार्डी झामुमो के कद्दावर नेताओं में शुमार थे। वे सरायकेला से 1985 व 1990 में दो बार विधायक बने। 1991 में सांसद भी बने। 1992 में झामुमो से किनारा कर नया दल झामुमो (मार्डी) बनाया। साथ में नौ विधायक को भी साथ ले गए, लेकिन फायदा नहीं मिला। मजबूत जमीन की तलाश में 2006 में भाजपा दामन थामा, वहां भी बात नहीं बनी। 2008 में आजसू में गए, यहां भी टिक नहीं पाए, 2013 में कांग्रेस का दामन था। फिर 2014 में कांग्रेस को अलविदा कह दिया। आज हाशिए पर पड़े हैं।
●सूरज मंडल
एक समय ऐसा भी था जब दिशोम गुरू शिबू सोरेन के बाद झामुमो के कद्दावर नेता के रूप में सूरज मंडल का सितारा बुलंद था। आज सूरज मंडल अपनी पहचान को मोहताज हैं।
झामुमो से किनारा करने के बाद सूरज मंडल अपनी सफलता तो दूर, अपनी पहचान के मोहताज हो गए। सूरज मंडल 1980 से 1991 तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे। 1991 में गोड्डा से सांसद बने। झामुमो से निकाले जाने के बाद सूरज मंडल का सितारा गर्दिश में आ गया। इसके बाद वह सफलता को तरस गए। अब भी वे राजनीतिक सफलता के लिए काफी हाथ पैर मार रहे हैं मगर, कहीं कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा। यहां तक कि भाजपा सहित कोई भी राजनीतिक दल उन्हें घास नहीं डाल रहे हैं।
●दुलाल भुईयां
झामुमो से किनारा करने के बाद दुलाल भुईयां सियासी पिच पर अब तक सेट नहीं हो पाए हैं। 1995, 2000 और 2005 में जुगसलाई से झामुमो के टिकट पर विधायक बने थे। साल 2005 में विधायक बनने के बाद झामुमो ने उन्हें मंत्री भी बनाया था। मगर साल 2009 के विधानसभा चुनाव में वह आजसू के रामचंद्र सहिस से चुनाव हार गए। इसके बाद झामुमो छोड़कर झारखंड विकास मोर्चा का दामन थामा। 2014 में चुनाव से पहले वह भाजपा में आ गए। भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। फिर वे कांग्रेस के साथ हो लिए। फिलहाल वे सक्रिय राजनीति में दिखाई नहीं दे रहे।
●कुणाल षाड़ंगी
झामुमो से अपनी राजनीतिक सफर की शुरुआत करने वाले कुणाल षाड़ंगी भाजपा का दामन थामने के बाद अब तक उन्हें मजबूत जमीन नहीं मिल पाई है। 2014 में झामुमो के टिकट पर चुनाव लड़कर भाजपा के दिग्गज नेता दिनेशानंद गोस्वामी को मात दी और जीत हासिल की। उसके बाद 2019 में भाजपा का दामन। भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा, लेकिन जीत नहीं पाए। अब वे पुनः झामुमो में आने की जुगाड़ में हैं।
●सीता सोरेन
शिबू सोरेन की बड़ी बहु और हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन जामा से झामुमो के टिकट पर विधायक थीं। जामा से साल 2019 में तीसरी बार चुनाव जीती थीं। लोकसभा चुनाव 2024 में उन्होंने झामुमो छोड़ भाजपा का दामन थामा, लेकिन उनका झामुमो छोड़ना उन्हें रास नहीं आया और वे लोकसभा चुनाव 2024 में दुमका से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ीं और वह हार गईं। अब उनका राजनीतिक करियर दांव पर है।
अब चंपाई सोरेन ने झामुमो से किनारा कर भाजपा का दामन थामने की घोषणा कर दी है। ऐसे में उनकी राजनीति अब भविष्य के गर्भ में है।
कहना ना होगा कि झामुमो में राजनीतिक ककहरा पढ़ने के बाद जितने भी नेता अलग हुए सब का सियासी समंदर में बेड़ा गर्क ही हुआ है। इसका मतलब साफ है कि झामुमो छोड़ने के बाद जनता ने इन्हें नकार दिया। एकाध नेताओं को छोड़कर सबकी यही स्थिति रही है। देखना यह कि भाजपा में जाने के बाद चंपाई सोरेन का सफर उन्हें किस मुकाम तक ले जाता है।
लोकसभा चुनाव 2024 में राज्य के आदिवासियों के लिए आरक्षित 5 सीटों पर इंडिया अलायंस की जीत भाजपा को पच नहीं रहा है।
झामुमो को तोड़ने की कोशिश के तहत भाजपा ने लोकसभा चुनाव में सीता सोरेन को अपने पाले में किया था, लेकिन नतीज़ा सिफर रहा। इसी रणनीति के तहत भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के वोट पर कब्जे को लेकर आदिवासी नेताओं को अपने पाले में करने कोशिश में लगी है, जिसकी एक कड़ी के रूप में चंपाई सोरेन हैं।
दूसरी तरफ भाजपा आदिवासियों बीच में बार-बार प्रचारित कर रही है कि बांग्लादेशी घुसपैठिए मुसलमान झारखंड की आदिवासी लड़कियों को बहला-फुसलाकर उनसे शादी करके उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। भाजपा इसे लैंड जिहाद के नाम से प्रचारित कर रही है।
बता दें कि भाजपा का खेल तो हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद से ही शुरू हो गया था। हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद जेएमएम की ओर से चंपाई सोरेन को विधायक दल का नेता चुना गया। वहीं गांडेय उपचुनाव में हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन ने जीत हासिल की। कल्पना सोरेन के सक्रिय राजनीति में आने के साथ ही चर्चा होने लगी थी कि झामुमो की ओर से उन्हें कभी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती हैं।
वहीं बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे जो गोड्डा से लगातार चौथी पर निर्वाचित हुए थे, ने ट्वीट कर मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन को इशारा करते हुए लिखा था- ‘चंपाई दा होशियार, कल्पना भाभी आ गई हैं, झारखंड की वर्तमान सरकार के लिए आने वाले 7 दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होने वाले हैं।’
मतलब भाजपा हर संभव कोशिश में लगी रही है कि विधानसभा चुनाव में वह सरकार बनाने की स्थिति में आ जाए।
सामाजिक-राजनीतिक जानकारों का मानना है कि भाजपा को झारखंड की सत्ता में लाने की कोशिश में परोक्ष रूप से सबसे बड़ी भूमिका गुजरात के कार्पोरेट लाबी की है, जिसकी नजर झारखंड की खनिज सम्पदाओं पर है। झारखंड में तोड़-फोड़ की कोशिश के पीछे यही कारण है।
जिस तरह छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनी और अडानी को हसदेव का कोयला खदान और बैलाडिला का लौह-अयस्क मिला गया। हसदेव की दशा पूरा देश देख रहा है।
इस बार ओड़िशा में भाजपा की सरकार बनी है और अडानी ने बाॅक्साइट में पूंजी निवेश शुरू कर दिया है। संभव है बहुत जल्द भाजपा सरकार आदिवासियों से नियमगिरी पहाड़ छीनकर अडानी को दे देगी।
बताना जरूरी हो जाता है कि 2014 में झारखंड में भाजपा की सरकार बनी थी, तब गोड्डा में आदिवासियों के धान की लहलहाती फसल पर बुलडोजर चलाकर अडानी के लिए कब्जा किया गया। अब अडानी की नजर सारंडा जंगल के लौह-अयस्क पर है, जिसके लिए झारखंड में भाजपा की सरकार होना जरूरी है।
झारखंड की राजनीतिक गलियारे में अब यह चर्चा के केंद्र में है कि खुद को कोल्हान टाईगर समझने वाले चंपाई सोरेन ‘‘सारंडा’’ को लुटाने के लिए भाजपा से गलबहियां की है।
(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं।)