रिफ्यूजी आदमी को और क्या चाहिये-तेनज़िन त्सुन्डू

‘कार्यक्रम के लिये इलाहाबाद आयेंगे तो क्या आप हमारे घर रह लेंगे?’-उत्पला जी के इस सवाल पर तेनज़िन त्सुन्डू का जवाब-“रिफ्यूजी आदमी को और क्या चाहिये” कार्यक्रम में मौजूद श्रोताओं के मन में नश्तर सा चुभता चला गया। गौरतलब है कि तिब्बत के निर्वासितों की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले कवि, यायावर, एक्टिविस्ट तेनज़िन त्सुन्डू 23 नवंबर को इलाहाबाद में खुर्शीद स्मृति संवाद की सालाना कड़ी में ‘निर्वासित जीवन और जड़ों की तलाश’ विषय पर व्याख्यान देने आये थे।

इंस्टीट्यूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुये तेनज़िन त्सुन्डू ने निर्वासन को भारत के पौराणिक गाथाओं से जोड़ते हुये कहा कि महाभारत और रामायण में निर्वासन की बहुत सी कथायें है। उन्होंने निर्वासन की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुये कहा कि- “हमें अपना देश छोड़कर जाना पड़ा। न हम यहां रह सकते हैं और न वापिस जा सकते हैं। ये न इधर, न उधर की ज़िन्दगी ही निर्वासन है।” हालांकि निर्वासन के सकरात्मक पहलुओं को रेखांकित करते हुये उन्होंने कहा कि निर्वासन के कुछ फायदे भी हैं। जल्दी जल्दी भाषायें सीखो, दोस्ती बनाओ, अपने आपको फ्लेक्सिबल बनाओ, कहीं जाने से न डरो, आदि। उन्होंने आगे भारत में मिले लोकतांत्रिक मूल्यों व नागरिक अधिकारों का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में मैंने लोकतंत्र सीखा। प्रदर्शन करना सीखा।

चीनी दूतावास के सामने हम प्रदर्शन करने पहुंचे तो हम चुपचाप खड़े थे। पुलिस ने हमें सिखाया कि कैसे प्रदर्शन करना है कैसे नारे लगाने हैं। चीन पर बोलते हुये उन्होंने कहा कि चीन ने 25 लाख वर्ग मीटर तिब्बत को क़ब्ज़े में कर लिया। तिब्बत से निर्वासित व भारत में शरणार्थियों के संघर्ष को त्सुंडू बताते हैं कि तिब्बत से निर्वासित होकर आये लोगों को हिमाचल प्रदेश व लद्दाख के क्षेत्रों में बसाया गया जहां उन्हें पत्थर तोड़ने और सड़क बनाने के काम में लगाया गया। त्सुन्डू ने बताया कि उनका जन्म सड़क किनारे एक तम्बू में हुआ था जहां सड़क बनाने वाले तिब्बती रहते थे। त्सुन्डू ने अपने बचपन और मां के संघर्ष को याद करते हुये बताया कि जब वो एक साल के हुये तो उनकी मां उनकी कमर में रस्सी बांधकर एक बड़े पत्थर से बांध देती थी और ख़ुद सड़क निर्माण के काम में जुट जाती थी।

तिब्बत के बाबत अपनी दादी की स्मृतियों व उनकी सुनायी कहानियों का ज़िक्र करते हुये त्सुन्डू ने कार्यक्रम में मौजूद श्रोताओं से बताया कि उनकी दादी तिब्बती गाने गाती। बर्फ़ की कहानी कहती। भेड़, बकरी, याक की कहानी कहती। सेब और खुमैनी की कहानी कहती। उन्होंने तिब्बत को अपनी दादी की कहानियों और गानों से जाना और सत्यममंगलम जंगलों के पास बैठकर एक पेड़विहीन, बर्फीले धरती वाले देश की कल्पना की, जो उनसे खो गया है। अपने देश के प्रति ‘सेंस ऑफ प्राइड’ की बात का ज़िक्र करते हुये त्सुन्डू ने आगे बताया कि तिब्बत समुदाय में बहुत फीका खाना बनता है। तो जब उनके यहां कभी इडली बेंचने वाला आता सारे बच्चे उसे घेर लेते सबको तमिलनाडु की इडली का स्वाद भा गया था। सब उसे इंडियन आया, इंडियन आया कहकर संबोधित करते। उन्होंने आगे बताया कि जिज्ञासावश उन्होंने अपनी माँ से पूछा कि ये इंडियन कहां से आये हैं। तो उनकी माँ ने उन्हें बताया कि वह जहाँ हैं ये इंडिया ही है। ये इंडियन लोगों का देश है और खुद वो लोग अपना देश तिब्बत छोड़कर यहां इंडिया में शरणार्थी हैं और भारत की सहानुभूति से यहां हैं।

त्सुन्डू ने अपनी बचपन की पीड़ा व्यक्त करते हुये कहा कि माँ का वो वाक्य बहुत चुभा। ‘सेंस ऑफ प्राइड’ अपने देश में होने का आया। उनकी मां ने उन्हें बताया कि जब वो लोग तिब्बत से निर्वासित होकर भारत के लिये चले तो रास्ते में भीख मांगकर खाते हुये आये। अपने माता पिता की पीड़ामयी संघर्ष सुनकर पांचवी कक्षा के छात्र तेनज़िन त्सुन्डू ने प्रतिज्ञा किया कि वो बड़े होकर तिब्बत की आज़ादी के लिये काम करेंगे। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा को महाभारत के भीष्म पितामह, सुभाषचंद्र बोस और चंद्रशेखर आज़ाद की परंपरा से जोड़ते हुये कहा कि उनकी प्रतिज्ञा को हमेशा याद रखने के लिये ही अपने माथे पर एक लाल पट्टी बांध रखा है।

तेनज़िन त्सुन्डू ने आगे अपने संघर्ष के बाबत बताया कि वो अहिंसक तरीके से तिब्बत की आज़ादी के संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने ठाना है कि अपनी पीड़ा को अंग्रेजी में कविता कहानियों में अभिव्यक्त करके पूरी दुनिया को बतायेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उन्होंने एक्टिविज्म करके जाना कि वहां जाओ जहां दुख दर्द है। और फिर वे लद्दाख के रास्ते तिब्बत जा पहुंचे जहां बॉर्डर पर चीनी सैनिकों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनसे पूछा गया कि तुम्हें किसने, किस मक़सद से भेजा है। कितने पैसे मिले हैं तुम्हें। लेकिन जब तेनज़िन त्सुन्डू ने बताया कि वो कविता लिखते हैं और कविताओं के जरिये अपने देश तिब्बत की आज़ादी के संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं तो चीनी सैनिक उन पर हँस पड़े कि कविता पढ़कर आज़ादी की लड़ाई लड़ने चला आया है। और तीन महीने की यातना व टॉर्चर के बाद उन्हें इंडिया वापिस भेज दिया गया। जहां आईटीबीपी ने उन्हें गिरफ्तार करके जेल में भेज दिया।

कार्यक्रम में तेनज़िन त्सुन्डू ने जेल की अमानवीय यातना के बाबत भी बताया कि कैसे आधा दर्जन पुलिस वालों के सामने नंगा करके दंड-बैठक करवाया जाता है कि कहीं पिछवाड़े में मोबाइल घुसाकर तो नहीं लाया है।

तेनज़िन ने आगे बताया कि भारत में उन्हें अब तक दिल्ली, गोवा, अंडमान, बिहार समेत अलग अलग राज्यों में कुल 16 बार गिरफ्तार करके जेल में रखा गया है।

उन्होंने बताया कि जेल से ही उन्होंने सही मायने में आज़ादी पाया है। जेल में उनके जूते तकिये बन जाते हैं। उन्हें गालों से लिपटाकर वो सो जाते हैं। शर्ट मच्छरदानी, उंगली टूथब्रश बन जाती है। इसलिये जेल से डरना नहीं चाहिये। उन्होंने कहा कि अच्छे काम के लिये जेल जाइये। उन्होंने एक्टिविस्ट के काम को सराहते हुये कहा कि एक एक्टिविस्ट को रास्ते में इसलिये आना पड़ता है क्योंकि वो बदलाव लाना चाहता है। इसके लिये वो अपनी ज़िन्दगी दांव पर लगा देता है। ये काम कोई जज, वकील, पुलिस या कोई और नहीं कर सकता।

आज़ादी के संघर्ष में अपने त्याग का उल्लेख करते हुये उन्होंने कहा कि उन्होंने चालाकी यह की कि शादी नहीं की। इससे बहुत वक़्त और इमोशंस बचता है जो संघर्ष में काम आता है। उन्होंने यह भी कहा कि वो तिब्बत की राजनैतिक व नैतिक आज़ादी चाहते हैं। उन्होंने कहा कि तिब्बत की आज़ादी भारत की सुरक्षा के लिहाज़ से भी ज़रूरी है। उन्होंने चीन द्वारा तिब्बत की प्राकृतिक खनिज सम्पदा के दोहन पर बात रखते हुये कहा कि चीन तिब्बत में बम फोड़कर लिथियम ऑयन बैटरी बनाकर दुनिया को बेचता है। ये लिथम ऑयन तिब्बत में बहुतायत मिलता है। तिब्बत की धरती से सोना, चांदी, कॉपर जैसी बहुमूल्य धातुओं के खानों का दोहन करके चीन द्वारा दुनिया को बेंचा जा रहा है। चीन इस व्यापार के जरिये दुनिया में तिब्बत की पहचान मिटाने का काम भी कर रहा है। उन्होंने बताया कि पिछले 12 साल में 157 लोगों ने चीन में आत्मदाह कर लिया है। तिब्बत के लोग आज़ादी के लिये अपनी जान दे रहें हैं किसी की जान ले नहीं रहे हैं ये एक अहिंसक सोच है जो तिब्बत ने बुद्ध और भारत से सीखा है।

तेनज़िन त्सुन्डू ने तिब्बत के लोगों के बताया कि वहां के लोग जब भारत आये तो वे ट्रेन देखकर डर गये। उन्होंने इसे लोहे का चलता हुआ घर कहा। क्योंकि इससे पहले उन्होंने इंजन और गाड़ियां नहीं देखे थे। उन्होंने कहा कि अभी बहुत कुछ बदल गया है पिछले सात दशकों में। हमने बहुत कुछ सीख लिया है। 70 हजार तिब्बती यूरोप अमेरिका में बस गये वो वहां से आज़ादी के लिये काम कर रहे हैं।

तेनज़िन त्सुन्डू ने सामरिक मसले पर तिब्बत-चीन को लेकर भारत की रणनीति पर कहा कि-“पहले हम सोचते थे कि हमारी मदद करो। अब समझ आया कि साथ मिलकर एक दूसरे का सहयोग करना है। सबका अपना नेशनल इंट्रेस्ट है।”

उन्होंने आगे कहा कि-“यहां भारत में पहले तिब्बती झंडा रखने की आज्ञा नहीं थी। पहले भारत हिंदी चीनी भाई भाई की नीति पर काम कर रहे थे। फिर चीन से पूंजी निवेश की उम्मीद रखता था भारत। गैलवान संघर्ष का जिक्र करते हुये उन्होंने कहा कि अब सब बदल गया। 2020 में गैलवन संघर्ष के बाद से। यूरोप और अमेरिका के साथ भी तिब्बत का रिश्ता बदल रहा है। तिब्बत के क्रांतिधर्मी कवि तेनजिन त्सुन्डू का कहना है कि भारत को चीन से सतर्क रहने की ज़रूरत है। भारत में रह रहे करीब एक लाख तिब्बती शरणार्थी अपनी संस्कृति, भाषा, परंपरा और अपनी अलग पहचान को संरक्षित रखकर आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। एक दिन ज़रूर आएगा जब तिब्बत को आज़ादी मिलेगी।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये लेखक आलोक राय ने तेनज़िन त्सुन्डू की भावनाओं के भावुक किले को अपने तर्कों से ढराशायी कर दिया। उन्होंने कहा कि बीसवी सदी तक के निर्वासन का इतिहास है पूरी दुनिया से लोग निर्वासित हुये हैं। भारत में तरह तरह के निर्वासित हैं। किसी का स्वागत किया जाता है किसी को दुत्कारा जाता है। उन्हें शक़ की नज़र से देखा जाता है। उन्होंने आगे कहा कि सिर्फ़ चीन ही नहीं संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप भी तिब्बत में अपने लिये मौके टटोल रहे थे। ये महाशक्तियों वहां अब भी नज़र गड़ाये हुये हैं।

बता दें कि तिब्बती कवि तेनज़िन त्सुंडू का आज़ादी पर फोकस कविता संग्रह कोरा काफी लोकप्रिय है। तेनजिन अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों को स्वार्थ की जिंदगी जीने के बजाय अपने मुल्क और मातृ भूमि के लिए सोचने की प्रेरणा देते हैं। कार्यक्रम के कुशल संचालन के साथ कवि, समाजसेवी अंशु मालवीय ने तेनज़िन त्सुंडू की दो कविताओं का भावपूर्ण पाठ किया। यहां वो दोनों कवितायें दी जा रही हैं।

1- मुम्बई में एक तिब्बती

मुम्बई में एक तिब्बती
को विदेशी नहीं समझा जाता ।

यह एक चाइनीज़ ढाबे
में रसोइया होता है
लोग समझते वह चीनी है
बीजिंग से आया कोई भगौड़ा

वह परेल ब्रिज की छाँह में
स्वेटर बेचता है गर्मियों में
लोग समझते हैं वह
कोई रिटायर हो चूका नेपाली बहादुर है ।

मुम्बई में एक तिब्बती
बम्बइया हिन्दी में गाली देता है
तनिक तिब्बती मिले लहज़े के साथ
और जब उसकी शब्द-क्षमता खतरे में पड़ती है
ज़ाहिर है वह तिब्बती बोलने लगता है,
ऐसे मौकों पर पारसी हँसने लगते हैं ।

मुम्बई में एक तिब्बती को
पसन्द आता है मिड-डे उलटना
उसे पसन्द है एफ० एम० अलबत्ता वह नहीं करता
तिब्बती गाना सुन पाने की उम्मीद
वह एक लालबत्ती पर बस पकड़ता है
दौड़ती ट्रेन में घुसता है छलाँग मारता
गुज़रता है एक लम्बी अँधेरी गली से
और जा लेटता है अपनी खोली में ।

उसे गुस्सा आता है
जब लोग उस पर हँसते हैं
चिंग-चौंग-पिंग-पौंग”

मुम्बई में एक तिब्बती
अब थक चूका है
उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना,
11 बजे रात की विरार फ़ास्ट में
वह चला जाता है हिमालय
सुबह 8:05 की फ़ास्ट लोकल
उसे वापस ले आती है चर्चगेट
महानगर में — एक नए साम्राज्य में ।

2- जब धर्मशाला में बारिश होती है

मुक्केबाज़ी के दस्ताने पहने बारिश की बूँदें
हज़ारों हज़ार
टूट कर गिरती हैं
और उनके थपेड़े मेरे कमरे पर ।
टिन की छत के नीचे
भीतर मेरा कमरा रोया करता है
बिस्तर और कागजों को गीला करता हुआ ।

कभी-कभी एक चालाक बारिश
मेरे कमरे के पिछवाड़े से होकर भीतर आ जाती है
धोखेबाज़ दीवारें
उठा देती हैं अपनी एडिय़ाँ
और एक नन्हीं बाढ़ को मेरे कमरे में आने देती हैं ।

मैं बैठा होता हूँ अपने द्वीपदेश बिस्तर पर —
और देखा करता हूँ अपने मुल्क को बाढ़ में,
आज़ादी पर लिखे नोट्स,
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के ख़त,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी नूडल
भरपूर ताक़त से उभर आते हैं सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए ।
तीन महीनों की यंत्रणा
सुईपत्तों वाले चीड़ों में मानसून –,
साफ धुला हुआ हिमालय
शाम के सूरज में दिपदिपाता ।

जब तक बारिश शान्त नहीं होती
और पीटना बन्द नहीं करती मेरे कमरे को
ज़रूरी है कि मैं
ब्रिटिश राज के ज़माने से
ड्यूटी कर रही अपन टिन की छत को सांत्वना देता रहूँ,

इस कमरे ने
कई बेघर लोगों को पनाह दी है,
फिलहाल इस पर कब्ज़ा है नेवलों,
चूहों, छिपकलियों और मकड़ियों का,
एक हिस्सा अलबत्ता मैंने किराए पर ले रखा है,
घर के नाम पर किराए का कमरा —
दीनहीन अस्तित्व भर ।

अस्सी की हो चुकी
मेरी कश्मीरी मकान-मालकिन अब नहीं लौट सकती घर,
हमारे दरम्यान अक्सर खूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है —
कश्मीर या तिब्बत ।

हर शाम
लौटता हूँ मैं किराए के अपने कमरे में
लेकिन मैं ऐसे ही मरने नहीं जा रहा,
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए,
मैं अपने कमरे की तरह नहीं रो सकता,
बहुत रो चुका मैं
क़ैदख़ानों में
और अवसाद के नन्हें पलों में ।
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए,
मैं नहीं रो सकता —
पहले से ही इस कदर गीला है यह कमरा ।

(सुशील मानव जनचौक के विशेष संवाददाता हैं।)

सुशील मानव
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