Wednesday, April 24, 2024

मैंने वरवर राव की आंखों में देखा उत्पीड़ित मनुष्यता के लिए अथाह पीड़ा: ऑक्सफोर्ड की एक छात्रा का संस्मरण

वरवर राव से पहली मुलाकात के समय मैं शोध छात्रा थी। यह 2018 की गर्मियों का दिन था। मैं तेलंगाना में सामाजिक आंदोलन और महिलाओं की गतिविधियों पर काम कर रही थी। हैदराबाद पहुंचने के हफ्ते भर के भीतर ही समाज के सभी हिस्सों के कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से वरवर राव या प्यार से कहे जाने वाले वीवी के बारे में सुनने लगी थी। एक महिला संगठन की सदस्य से बातचीत के बाद ही मैंने तय किया कि वीवी से हैदराबाद वाले पुराने अपार्टमेंट में मिला जाए जो नीचे लिख रही हूं वह हमारी पहली मुलाकात का एक छोटा सा संस्मरण है।

वरवर रावः एक कवि, इतिहासकार और दार्शनिक

मैं उनके पुराने वाले अपार्टमेंट में दिन के 11 बजे पहुंची। मन में थोड़ी हिचक और डर था। यह उन जैसे व्यक्तित्व के साथ पहली मुलाकात के समय मुझे यह अहसास हो ही जाता है। हम किताबों से भरी मेज वाले ड्राइंग रूम में बैठे जहां से उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए किताबें दी थीं। हमारे दूसरी ओर उनकी पत्नी हेमलता बैठी थीं। वह उत्सुकता और आशय के साथ हमें देख रही थीं। चूंकि हमारी बातें मुख्यतः अंग्रेजी में थीं, इसीलिए ज्यादा नहीं बोलीं। वीवी ने बहुत नरमी से बातें रखीं लेकिन स्वर ठोस था। उनकी भाषा पर पकड़, वारंगल जहां उन्होंने तेलुगू साहित्य और भाषा पढ़ाया था, उस महान काॅलेज अध्यापक की असली विरासत में थी।

उनकी बातों में इतिहास और कविता गुंथे हुए थे। वह अक्सर मार्क्स, थाम्पसन, मार्केज और यहां तक कि महाभारत को अत्यंत सुपरिचित तरीके से उद्धृत करते जिससे मैं निश्चिंत हो जाऊं कि वह उन पाठों और उसके लेखकों को अंतरंगता से जानते हैं। हमारी बात तेलंगाना में हुए विविध जन संघर्षाें से शुरू हुई और जल्द ही यह जीवन और उसकी बहुत त्रासदियों और औचक घटनाओं पर चली गयी। खासकर हिंसा एक दर्शन के बतौर और, वह सजाएं जिन्हें उन्होंने झेला।

वरवर रावः जिनसे हिंसा रूबरू रही

इन गुजरे सालों में वरवर राव का जीवन बहुत तरह के संगठनों चाहे वे माओवाद विरोधी अर्ध-सैन्यबल रहे हों या दक्षिणपंथी धारा के रहे हों, के निशाने पर रहे हैं। उनके जीवन को खत्म कर देने की उन्हें धमकियां दी जाती रहीं हैं। इसी के मद्देनजर उन्होंने दो बार अपना घर बदला। एक बार वारंगल से हैदराबाद और दूसरी बार तेलंगाना से बाहर। लेकिन आज भी वह बिना डरे हुए पूरे भारत की हाशिये पर फेंक दी गई जनता के अधिकारों और उनकी आजादी के लिए बिना हिचक खड़े हैं। वह सच्चे मायने में अपनी मार्क्सवादी विचारधारा पर खड़े रहे हैं।

वरवर राव से जब मैंने हिंसा पर उनका विचार जानना चाहा तब उनका जवाब थाः

‘‘हिंसा असमान समाज का चरित्र है। आमतौर पर असमानता ही हिंसा है। जब आप हिंसा के बारे में बात कर रही हैं व्यवस्था (चाहे वह ब्राह्मणवादी हो या पितृ सत्तावादी) का व्यवहार हिंसा के रूप में ही आता है। इसीलिए इसके प्रतिरोध को हिंसा नहीं कहा जा सकता। राज्य के पास हर तरह की मशीनरी और पूंजी है जिसके आधार पर वह हिंसा का व्यवहार करता है। जबकि मेरे पास तो इसमें से कुछ भी नहीं है। मेरे पास मेरा शरीर है और मेरे हाथ हैं जो काम करते हैं। मेरे प्रतिरोध को ही हिंसा कैसे कहा जा सकता है?’’

वरवर राव का उपरोक्त कथन एक उदास विडम्बना जैसा है। राज्य की हिंसा का जो सूत्रीकरण उन्होंने मेरे लिए दो साल पहले किया था वह उसी अथाह शारीरिक और मानसिक हिंसा के शिकार बना दिये गये हैं। उन्होंने शरीर को प्रतिरोध का एक रूप कहा लेकिन जब खुद के शरीर पर ही दमनकर्ता उसका अधिकार छीन ले तब प्रतिरोध भी कोई कैसे करे?

जब व्यवस्था की चाहत लगातार (सांस्थानिक हिंसा खासकर मनगढ़ंत तरीके से यूएपीए के तहत गिरफ्तारियों की संख्या जिस तरह से बढ़ रही है) अज्ञात और आवाज रहित नागरिक गढ़ने में हो तब क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि उन दमन झेल रहे लोगों के लिए हम कुछ करें? वरवर राव के प्रति राज्य की हिंसा कोई अलग-थलग घटना नहीं है। हिंसा एक अकेले व्यक्ति से संबंधित होती भी नहीं है। जेल के भीतर दी जा रही यातनाएं

अनिवार्यतः बाहर की ओर निकलती हैं और यह सामाजिक कड़ियों में फैलती जाती हैं। जब वरवर राव ने तीन अलग अलग समयों में राज्य द्वारा हुई उनकी गिरफ्तारियों और सजाओं के बारे में बताया तब भी यह बात साफ दिखती हैः सिकंदाबाद षड्यंत्र केस (मई 1974-अप्रैल 1975); आपातकाल (21 महीने की जेल); और टाडा के तहत 1985-89 की गिरफ्तारी। जब वह बात करते हैं तब एक व्यक्ति के तौर पर झेली गई कठिनाइयों से कहीं अधिक वह अपने आस-पास के लोगों की तकलीफों के बारे में बात करते हैं।

उन्होंने कहा था, ‘‘हमारी इन गिरफ्तारियों से मैं नहीं, सबसे बुरी तकलीफें मेरी पत्नी ने सहा है।’’ उन्होंने बताया कि ‘‘मेरी पहली गिरफ्तारी के समय मेरी बेटियां मात्र 8 और 5 साल की थीं। मेरी तीसरी बच्ची के जन्म के 18 दिनों बाद ही मेरी दूसरी गिरफ्तारी हुई और उस बार मैं 11 महीनों तक जेल में रहा। जब मैं सिकंदराबाद जेल में था तब मेरी पत्नी वारंगल से लगातार मिलने आती रहीं। उन्होंने मुझसे ज्यादा कष्ट उठाया। ज्यादा समय हेमलता अकेले ही रहीं। एक कविता में मैंने उनका जिक्र किया है ‘मैं अपनी पत्नी के साथ रहा या अपनी मां के साथ, अभी कहीं अधिक दमित लोगों के साथ में हूं।’ दमन का अधिकांश हिस्सा मेरी पत्नी और

मेरे बच्चों ने सहा।’’ वीवी जब हेमलता और अपने परिवार के बारे में बात कर रहे थे तब उनकी आवाज में प्यार, चाह और गर्व को देख सकना आसान था। जब मैं उनसे मिली और भीमा कोरेगांव केस और गिरफ्तारी की आशंका के बारे में बात किया तब वह हेमलता की ओर देखते हुए बोल रहे थे। उनकी आवाज में गुस्सा था।

‘‘मैंने जब भी कोई खतरा उठाया मुझे अपने से अधिक उनके प्रति चिंता और तनाव हुआ है। अब बच्चे बड़े हो चुके हैं। उनकी शादियां हो चुकी हैं। वे अपने अपने घर चले गये हैं। अब तो उसे यह सब अकेले ही झेलना है।’’ हमारी अंतिम मुलाकात के दो हफ्ते बाद ही वरवर राव को भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के आरोप में यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। बहुत सारे लोग हैं जो वरवर राव के बारे में विस्तार से बात कर सकते हैं। मैं यह कत्तई दावा नहीं कर रही हूं कि मैं उन्हें अच्छे से जानती हूं। मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि मुझे एक थोड़े समय के परिचय में उनका जो साथ और सुझाव हासिल हुआ उसके लिए मैं आभारी रहूंगी। जब वीवी का स्वास्थ्य अपने

परिवार और हेमलता से दूर रहकर लगातार गिरता गया है तब इस कर्मशील-कवि की कविता मेरे मस्तिष्क में गूंज रही हैः

मैं उन पक्षियों को नहीं देख पा रहा हूं/जो उड़ रही हैं आसमान

मैं/शाम की शांति/जेल को भर चुकी है/मैं सिर्फ एक दूसरे में

दुबके कबूतरों को देख सकता हूं।/दृढ़ता की सांस से गर्म साफ हवा/इन

दीवारों के आर-पार नहीं हो रहीं।/बंधी आंखों वाले बैल

जैसा/पुरानी यादों की जुगाली कर रहे हैं/मुझे पंख लगाये आते पत्रों की

लालसा है/जिन पर पिघल रही विचारों से बाधा पड़ रही है/हिलने से एकदम मना

कर रही हैं। (कैप्टिव इमैजिनेशन से उद्धृत)।

आज, मुझे दुख से बल्कि कहें गुस्से से रोना आ रहा है। यह राज्य द्वारा एक कलाकार, एक क्रांतिकारी, और सबसे अधिक जरूरी एक साथी और एक पथप्रदर्शक पर की खुली ज्यादती है। आज, मैं वरवर राव और उन जैसे लोग जो हमारे सामने हैं। उनके लिए मैं अपने शब्दों से प्रतिरोध दर्ज कर रही हूं और उन लोगों के प्रति एकजुटता पेश करती हूं। मैं यही उम्मीद कर रही हूं कि आप मुझे सुन सकेंगे।

(ज़ीना ओबेराॅय ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय विकास विभाग से एमफिल किया है। वह इस समय राइज के तहत बिहार के शिक्षा नीति पर चल रहे शोध से जुड़ी हुई हैं। यह लेख क्विंट से साभार लिया गया है। अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का हिंदी अनुवाद अंजनी कुमार ने किया है।)

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