उत्तराखण्ड: जहां शराब के बिना न राज्य चलता है और न राजनीति

कभी कहा जाता था कि ‘‘सूरज अस्त और पहाड़ मस्त’’’ लेकिन अब जमाना ऐसा बदला कि ‘‘सूरत उगते ही पहाड़ मस्त होने लगता है और सूरज अस्त होने तक शराबी पस्त हो जाते हैं और उनके परिजन त्रस्त हो जाते हैं।’’ शराबी ही क्यों उत्तराखण्ड में शराब वह संजीवनी है जिसके बगैर न तो राजनीति चलती है और ना ही सरकार चल पाती है। शराब और शराब वालों की महिमा इतनी न्यारी है कि वे राज्य में सरकार बना भी सकते हैं और अगर बात नहीं बनी तो सरकार में बैठे लोगों की किश्मत बिगाड़ भी सकते है। शराब के बिना चुनाव भी नहीं लड़े जा सकते। शराब वालों की परोक्ष रूप से सत्ता में भागीदारी की तो बात सुनी जाती रही है लेकिन राज्य में ऐसे भी मौके आये हैं जबकि शराब वालों ने सत्ता में सीधी भागीदारी मांगी है और सत्ताधारियों को वह भागीदारी लालबत्ती के रूप में देनी भी पड़ी है।

मद्यनिषेध के समर्थन में सरकार या सरकार से बाहर भाषणबाजों की कमी नहीं है। जो राजनीतिक दल सरकार से बाहर रह कर विपक्ष का काम करता है वह सरकार द्वारा शराब बिकवाने के खिलाफ खूब चिल्लाते हैं लेकिन जब वही दल सत्ता में चले जाते हैं तो फिर राजस्व के रूप में बोतल उनके सिर चढ़ कर बोलने लगती है। कारण यह कि आबकारी विभाग सरकार को राजस्व देने के मामले में दूसरे नम्बर का विभाग है।

राज्य गठन के समय आबकारी से राज्य को मात्र 231.6 करोड़ का राजस्व मिला था। 2021-22 के बजट में आबकारी से राजस्व वसूली का लक्ष्य 3202 करोड़ रखा गया। इसलिये जब सरकार चलाने के लिये धन की बात आती है तो सारी की सारी नैतिकता धरी की धरी रह जाती है। और तो रहे दूर स्वयं संस्कारी पार्टी की सरकार भी मोबाइल दुकानें शुरू कर गांव-गांव तक शराब पहुंचाती है। पिछली बार राज्य में जब कांग्रेस सरकार थी तो उस पर डेनिस जैसे शराब के ब्राण्ड बिकवाने का आरोप लगा था। उनके कार्यकाल में पूरे एक साल तक शराब के पापुलर ब्राण्ड बाजार में नजर आये ही नहीं।

वर्ष 2017 के चुनाव में भाजपा 57 विधायकों के प्रचण्ड बहुमत से सत्ता में आयी तो उसे भी प्रदेश की आर्थिकी में शराब के अर्थशास्त्र के महत्व का लोहा मानना पड़ा और इसके लिये उसे अतिरिक्त प्रबंधों के तौर पर मोबाइल शराब की दुकानें चलानी पड़ी। देवप्रयाग सहित नये स्थानों पर शराब के कारखाने खुलवाये गये। पहले शराब के शौकीनों को शराब लेने दूर शहरों में आना पड़ता था लेकिन सरकार की मेहरबानी से अब शराब की मोबाइल दुकानें गांव-गांव तक पहुंचने लगी हैं। इसी तरह जब सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल हाइवे से 500 मीटर दूर शराब की दुकानें खोलने का आदेश दिया तो राज्य सरकार ने सड़क किनारे और सरे बाजार खुली दुकानों को बचाने के लिये रातोंरात राष्ट्रीय राजमार्गों का दर्जा घटा कर उन्हें प्रदेश और जिला मार्ग घोषित कर दिया ताकि राष्ट्रीय राजमार्ग की बंदिशों से मुक्ति मिल सके।

सरकार की तिजोरी तो शराब पर आश्रित है ही लेकिन राजनीति भी बिना शराब के फीकी ही रहती है। सरकार के राजस्व का एक प्रमुख श्रोत की तरह राजनीतिक दलों के लिये शराब व्यवसायी ही चन्दे के प्रमुख आर्थिक श्रोत होते हैं। इसका जीता जागता उदाहरण 30 मई 2002 को भाजपा के राजपुर रोड स्थित तत्कालीन प्रदेश कार्यालय से 27 लाख रुपये की चोरी का मामला है। इस चोरी की घटना की जांच के लिये तत्कालीन अध्यक्ष पूरण चन्द शर्मा द्वारा 5 सदस्यीय जांच कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी के सदस्य एडवोकेट मुकेश महेन्द्रा और ओमप्रकाश भट्ट को चोर का पता लगाने के साथ ही चोरी गयी रकम की मात्रा का पता लगाना आदि जिम्मेदारी सौंपी गयी थीं।

अपनी जांच रिपोर्ट में महेन्द्रा एवं भट्ट दोनों ने तत्कालीन प्रदेश महामंत्री द्वारा लिखाई गयी चोरी की रिपोर्ट को तो फर्जी बताया, मगर पार्टी कार्यालय की तिजोरी से 27 लाख रुपये गायब होने की पुष्टि अवश्य की। इसके साथ ही दोनों ही जांचकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में यह खुलासा भी किया कि यह रकम शराब व्यवसायियों द्वारा दी गयी उस 30 लाख की रकम में से ही थी जो शराब व्यवसायी चन्दादाताओं ने चुनाव के लिये दी थी। इस रकम में से 3 लाख पार्टी पहले ही खर्च कर चुकी थी। मुकेश महेन्द्रा और ओम प्रकाश भट्ट की इस रिपोर्ट से यह बात तो साबित हो ही गयी कि बिना शराब वालों की मदद से चुनाव नहीं लड़े जा सकते। 

उत्तराखण्ड में बिना शराब के चुनाव अभियान भी नहीं चल सकता। मतदान से पहले बस्तियों में शराब बांटने के आरोप तो आम हैं ही लेकिन कार्यकर्ताओं को भी दिन भर की थकान मिटाने और रात को पोस्टर-बैनर लगाने के लिये शराब की ऊर्जा की जरूरत होती है। एक अनुमान के अनुसार केवल विधायक के चुनाव में साधन सम्पन्न प्रत्याशियों को लगभग एक करोड़ रुपये शराब में डुबोने पड़ते हैं। 2012 के चुनाव में कोटद्वार में एक प्रत्याशी के एजेंट की गाड़ी से दूसरे प्रत्याशी के समर्थकों द्वारा शराब की पेटियां और नोटों के बण्डल पकड़े जाने से भारी हंगामा हुआ था।

प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी जैसे भी कुछ सत्ताधारी रहे जिनकी शराब सिंडीकेट से कभी नहीं बनीं। शराब और खनन व्यवसायियों से भिड़ने वाले नित्यानन्द स्वामी की हुकूमत 11 माह और 20 दिन से ज्यादा नहीं चल सकी। पद से इस्तीफा देने से पहले विधानसभा में अपने अंतिम भाषण में नित्यानन्द स्वामी ने कहा था कि, ‘‘…..मैंने माफियाराज से त्रस्त उत्तरांचल को माफिया से मुक्ति दिलाई और शायद यही ताकतें हमेशा हमारी सरकार को अस्थिर करने का प्रयास करती रहीं। परन्तु उनके कब्जे से लगभग 6 हजार एकड़ जमीन मुक्त करा दी, बजरी-शराब के एकाधिकार को समाप्त किया। मैंने जीवन में अपने आदर्शों को कभी नहीं छोड़ा……’’।

शराब वालों और सत्ताधारियों के बीच चोली दामन के रिश्ते 26 फरवरी 2010 को तब बेपर्दा हो गये जब तत्कालीन सरकार ने उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड सहित कई राज्यों में शराब व्यवसाय जगत के बेताज बादशाह गुरुदीप सिंह चड्ढा उर्फ पौंटी चड्ढा के दायें हाथ सुखदेव सिंह नामधारी को अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। बाद में जब 12 जनवरी 2010 को दिल्ली के महरौली के फार्म हाउस में सम्पत्ति के लिये हरदीप और गुरुदीप चड्ढा के बीच खूनी संघर्ष में जब दोनों भाइयों की मौत हो गयी थी तो पुलिस ने इस काण्ड में जिन 19 लोगों को गिरफ्तार किया उनमें नामधारी भी एक था।

गिरफ्तारी के बाद सुखदेव सिंह नामधारी को सचिव एम.एच खान द्वारा हस्ताक्षरित शासन के कार्यालय ज्ञाप 1225/गअपप.3/12-35 (सं.क)/2002 दिनांक 20-11-2012 के द्वारा पद से यह उल्लेख करते हुये हटा दिया कि शासन के संज्ञान में आया है कि नामधारी अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष पर बने रहने हेतु प्रतिष्ठा एवं सत्यनिष्ठा नहीं रखते हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व कैबिनेट मंत्री केदारसिंह फोनिया ने भी अपनी पुस्तक ‘‘उत्तरांचल से उत्तराखण्ड…के 12 वर्ष’’ में भी एकाधिक बार राजनीतिक नेताओं और शराब माफिया में साठगांठ की बात कही थी।

(देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत की रिपोर्ट।)

जयसिंह रावत
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