उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा है वैसे-वैसे राजनेताओं के भाषणों में तल्खियां बढ़ती जा रही हैं। योगी आदित्यनाथ 22 करोड़ जनता के सीएम की भाषा नहीं बोल रहे, वे तो सीधे तौर पर अपराधियों की भाषा बोल रहे हैं। यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ ने अपने एक संबोधन में कहा कि 10 मार्च के बाद सारी गर्मी शांत करवा देंगे। ये सीएम की नहीं बल्कि गुंडों की भाषा है। दरअसल संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति यदि किसी सदन में ऐसा बोले तो उसके खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाया जा सकता है लेकिन यदि वह पब्लिक डोमेन में बोले तो इस पर न तो संविधान में कुछ लिखा गया है न ही कानून की किताबों में।
क्योंकि देश के संविधान निर्माताओं ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी। किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप हो तो प्रभावित व्यक्ति सुसंगत धाराओं में मुकदमा दर्ज़ करा सकता है पर इशारों-इशारों में अपराध की आड़ लेकर आक्षेप किया गया हो तो एफ़आईआर भी दर्ज़ नहीं हो सकती। हाँ न्यायपालिका चाहे तो स्वत:संज्ञान ले सकती है क्योंकि ठोक देंगे, एनकाउंटर कर देंगें, गर्मी निकाल देंगे जैसे शब्द कानून के शासन को सीधे चुनौती है।
हमारे देश में एक्स्ट्रा जुडिशियल किलिंग की अवधारणा नहीं है और बिना मुकदमा चलाये, आरोपी को सफाई का मौका दिए बिना दंडित किये जाने का प्रावधान ही नहीं है। यहाँ तक कि बॉम्बे पर हमले में पकड़ा गया आमिर अजमल कसाब हो या तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी का हत्यारा सतवंत सिंह हो या एनी हो, या फिर संसद हमले के आरोपी हों सभी पर मुकदमा चलाकर सजा दी गयी थी। उन्हें पकड़े जाते ही गोली नहीं मार दी गयी थी। लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सारी मर्यादाएं पार कर दी हैं और इस तरह धमकियां दे रहे हैं जैसे वो कोई मध्ययुगीन शासक हों और त्वरित मत्सय न्याय देने का दम्भ भर रहे हों।
समाजवादी पार्टी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भाषा की शिकायत करते हुए चुनाव आयोग को पत्र भेजा है। पत्र में लिखा गया है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में सत्तापक्ष से सीएम योगी आदित्यनाथ विपक्ष के खिलाफ जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वो मर्यादित, संयत और भद्र भाषा की श्रेणी में नहीं आता है। लोकतंत्र में इस तरह की भाषा का कोई औचित्य नहीं है। सपा ने शिकायत में कहा है कि सीएम योगी ने अभी आगरा में 10 मार्च के बाद बुल्डोजर चलाने की धमकी दी है। इसके अलावा वो लगातार समाजावादी पार्टी के नेतृत्व को गुंडा, मवाली और माफिया बता रहे हैं।
इन तमाम बातों के साथ समाजवादी पार्टी ने सीएम योगी के लाल टोपी और गर्मी वाले बयान का भी जिक्र किया है। सपा का कहना है कि योगी ने 01 फरवरी 2022 को मेरठ की सिवालखास और किठौर की सभाओं में कहा कि ‘लाल टोपी मतलब दंगाई हिस्ट्रीशीटर’। सीएम योगी ने कैराना, मुजफ्फरनगर में कहा कि ‘जो गर्मी दिखाई दे रही है, ये सब शांत हो जायेगी, गर्मी कैसे शान्त होगी मैं जानता हूं’ जैसी अलोकतांत्रिक भाषा का प्रयोग किया।
सपा ने चुनाव आयोग से मांग की है कि यूपी में स्वतंत्र, निर्भीक और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा के मुख्यमंत्री को पद की गरिमा के अनुरूप संयमित, मर्यादित और आदर्श आचार संहिता के अनुकूल भाषा के इस्तेमाल के लिए निर्देश जारी किए जाएं।
दरअसल उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 हुए विधानसभा चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश में शानदार जीत हासिल की थी। इसके बाद योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। पद संभालते ही उन्होंने राज्य को अपराध मुक्त बनाने के अपने इरादे जाहिर किए। रिपोर्ट्स के मुताबिक, 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार के बनने के बाद से उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ मुठभेड़ में कुल 112 अपराधी मारे गए हैं और 3196 घायल हुए हैं। इस दौरान 13 पुलिसकर्मियों ने भी अपनी जान गंवाई, जबकि 1112 घायल हुए।
सीएम योगी आदित्यनाथ के पिछले चार साल के कार्यकाल में गैंगस्टर एक्ट के तहत 13700 से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें 43000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, सबसे अधिक जब्ती वाराणसी क्षेत्र में की गई, जहां सर्वाधिक 420 मामले दर्ज किए गए और 200 करोड़ रुपए की कीमत की संपत्तियों को जब्त किया गया। गोरखपुर मंडल में 208 मामले दर्ज हुए थे, जिसमें 264 करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त की गई।
दरअसल योगी आदित्यनाथ ने क्राइम कंट्रोल के लिए पुलिस को एनकाउंटर की खुली छूट दी। इसका असर भी दिखा और विवाद भी हुए। असर ये कि जमानत पर छूटे अपराधी अपनी जमानत कैंसिल करा कर जेल जाने लगे। विवाद वही पुराने जो अधिकतर एनकाउंटर के साथ होते हैं। जैसे वह एनकाउंटर फर्जी था या फिर उस एनकाउंटर में अपराधी नहीं निर्दोष मारा गया। बात आंकड़ों की करें तो योगी सरकार के तीन साल में एनकाउंटर में 112 मौतें हुईं। यूपी में जहां पुलिस एनकाउंटर में मौत के मामले बढ़े हैं। वहीं, पूरे देश की बात करें तो एनकाउंटर में मौत के मामले घट रहे हैं। 2013 से 2018 के बीच के पांच सालों में सबसे ज्यादा मामले 2014-2015 में आए।
6 जनवरी, 2019 को गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने राज्यसभा में बताया कि 2018 में भारत में 22 फेक एनकाउंटर हुए। इनमें 17 यानी 77% से भी ज्यादा उत्तर प्रदेश में हुए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक आरटीआई के जवाब में बताया था कि भारत में 2000 से 2018 के बीच 18 साल में 1804 फेक एनकाउंटर हुए। इनमें 811 फेक एनकाउंटर यानी 45% अकेले उत्तर प्रदेश में हुए।
पुलिस एनकाउंटर के फेक साबित होने पर सरकार को विक्टिम के परिवार को मुआवजा देना पड़ता है। मानवाधिकार आयोग ही मुआवजे की रकम तय करता है। 2012 से लेकर 2017 के बीच, उत्तर प्रदेश सरकार को सबसे ज्यादा 13 करोड़ 23 लाख रुपए मुआवजा देना पड़ा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि योगी के कार्यकाल में कितने फर्जी एनकाउंटर हुए।
योगी सरकार आने के बाद वर्ष 2018 में ही उत्तर प्रदेश में हुये एनकाउंटरों का मामला उच्चतम न्यायालय में पहुँच गया था। एक एनजीओ की ओर से दी गई याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने योगी सरकार को नोटिस जारी कर दो हफ्ते में जवाब मांगा था। याचिका में पुलिस मुठभेड़ों को फर्जी बताया गया है और मामले की जांच कोर्ट की निगरानी में सीबीआई से कराने की मांग की गई है। एनजीओ की ओर से पेश वकील संजय पारिख ने कोर्ट से कहा था कि एक साल में 1500 फर्जी एनकाउंटरों में 58 लोगों की मौत हो चुकी है। इनकी जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई से करानी चाहिये और पीड़ितों को मुआवजा दिया जाये। याचिका में कहा गया था कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इन मामलों की जांच कर रहा है। इस मामले में आगे क्या हुआ इसका पता नहीं चल रहा है।
पिछले साल एक गैर सरकारी संगठन ने मुठभेड़ के कुछ मामलों का अध्ययन करके एक रिपोर्ट जारी की थी, जिनमें 28 मामलों में सोलह मामले यूपी के थे। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि तमाम तथ्य जांच में ऐसे पाए गए जो कि एनकाउंटर्स के सही होने पर सवाल उठाते हैं।
उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहे वीएन राय का कहना है कि एनकाउंटर की संख्या बढ़ाकर अपराध कम नहीं किए जा सकते। फर्जी एनकाउंटर एक गंभीर मसला है। यूपी में जिस तरह से पिछले कुछ समय से एनकाउंटर की खबरें आ रही हैं, उनमें कई ऐसे हैं जो सही नहीं ठहराए जा सकते। तमाम एनकाउंटर्स में पुलिस ने ऐसे लोगों को मारा है जो कि कभी किसी अपराध में शामिल ही नहीं थे। आखिर ऐसे लोगों को पुलिस कैसे अपराधी ठहरा सकती है।
साल 2017 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार फर्जी एनकाउंटर की शिकायतों के मामलों में उत्तर प्रदेश पुलिस देश में सबसे आगे थी। आयोग ने पिछले बारह साल का एक आंकड़ा जारी किया था, जिसमें देश भर से फर्जी एनकाउंटर की कुल 1241 शिकायतें आयोग के पास पहुंची थीं जिनमें 455 मामले यूपी पुलिस के खिलाफ थे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील ओपी श्रीवास्तव का कहना है कि योगी राज में पहले नोएडा में एक जिम संचालक को पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर ने आपसी रंज़िश में गोली मार दी थी और बाद में उसे एनकाउंटर दिखा दिया गया था। मामले की जांच के बाद इंस्पेक्टर का दावा ग़लत निकला और उसके खिलाफ मामला दर्ज किया गया। यही नहीं, एनकाउंटर के कुछेक मामले ऐसे भी सामने आए जिसमें पुलिसकर्मियों ने प्रमोशन के लालच में निर्दोष लोगों को मार दिया। ऐसे मामलों की जांच भी हो रही है। लखनऊ में विवेक तिवारी एनकाउंटर पर यूपी पुलिस की जमकर किरकिरी हुई थी। इस मामले में दो पुलिसकर्मियों को निलंबित किया गया था।
भारतीय क़ानून में ‘एनकाउंटर’
भारतीय संविधान में ‘एनकाउंटर’ शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है। पुलिसिया भाषा में इसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब सुरक्षा बल/पुलिस और चरमपंथी/अपराधियों के बीच हुई भिड़ंत में चरमपंथियों या अपराधियों की मौत हो जाती है। भारतीय क़ानून में वैसे कहीं भी एनकाउंटर को वैध ठहराने का प्रावधान नहीं है। लेकिन कुछ ऐसे नियम-क़ानून ज़रूर हैं जो पुलिस को यह ताक़त देते हैं कि वो अपराधियों पर हमला कर सकती है और उस दौरान अपराधियों की मौत को सही ठहराया जा सकता है। इसी का लाभ पुलिस उठाती है।
आम तौर पर लगभग सभी तरह के एनकाउंटर में पुलिस आत्मरक्षा के दौरान हुई कार्रवाई का ज़िक्र ही करती है। आपराधिक संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 46 कहती है कि अगर कोई अपराधी ख़ुद को गिरफ़्तार होने से बचाने की कोशिश करता है या पुलिस की गिरफ़्त से भागने की कोशिश करता है या पुलिस पर हमला करता है तो इन हालात में पुलिस उस अपराधी पर जवाबी हमला कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले पर अपने नियम-क़ानून बनाए हुए हैं। एनकाउंटर के दौरान हुई हत्याओं को एकस्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग भी कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इसके लिए पुलिस तय किए गए नियमों का ही पालन करे। 23 सितंबर, 2014 को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढा और जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन की पीठ ने पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र मामले में दिए गये फ़ैसले में कहा कि राज्य को अनुच्छेद 21 के उल्लंघन का अधिकार नहीं है। पीठ ने अपने फ़ैसले में लिखा था कि पुलिस एनकाउंटर के दौरान हुई मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जांच के लिए इन नियमों का पालन किया जाना चाहिए। उस फ़ैसले की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं:
1. जब कभी भी पुलिस को किसी तरह की आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है, तो वह या तो लिखित में हो (विशेषकर केस डायरी की शक्ल में) या फिर किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के ज़रिए हो।
2. अगर कोई भी आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है, या फिर पुलिस की तरफ़ से किसी तरह की गोलीबारी की जानकारी मिलती है और उसमें किसी की मृत्यु की सूचना आए। तो इस पर तुरंत प्रभाव से धारा 157 के तहत कोर्ट में एफ़आईआर दर्ज करनी चाहिए। इसमें किसी भी तरह की देरी नहीं होनी चाहिए।
3. इस पूरे घटनाक्रम की एक स्वतंत्र जांच सीआईडी से या दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम से करवानी ज़रूरी है, जिसकी निगरानी एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी करेंगे। यह वरिष्ठ पुलिस अधिकारी उस एनकाउंटर में शामिल सबसे उच्च अधिकारी से एक रैंक ऊपर होना चाहिए।
4. धारा 176 के अंतर्गत पुलिस फ़ायरिंग में हुई हर एक मौत की मजिस्ट्रियल जांच होनी चाहिए। इसकी एक रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजना भी ज़रूरी है।
5. जब तक स्वतंत्र जांच में किसी तरह का शक़ पैदा नहीं हो जाता, तब तक एनएचआरसी को जांच में शामिल करना ज़रूरी नहीं है। हालांकि घटनाक्रम की पूरी जानकारी बिना देरी किए एनएचआरसी या राज्य के मानवाधिकार आयोग के पास भेजना आवश्यक है।
उच्चतम न्यायालय का निर्देश है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत किसी भी तरह के एनकाउंटर में इन तमाम नियमों का पालन होना ज़रूरी है। अनुच्छेद 141 भारत के सुप्रीम कोर्ट को कोई नियम या क़ानून बनाने की ताकत देता है।
मार्च 1997 में तत्कालीन एनएचआरसी के अध्यक्ष जस्टिस एमएन वेंकटचलैया ने सभी मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा था, ”आयोग को कई जगहों से और गैर सरकारी संगठनों से लगातार यह शिकायतें मिल रही हैं कि पुलिस के ज़रिए फ़र्जी एनकाउंटर लगातार बढ़ रहे हैं। साथ ही पुलिस अभियुक्तों को तय नियमों के आधार पर दोषी साबित करने की जगह उन्हें मारने को तरजीह दे रही है।”
जस्टिस वेंकटचलैया साल 1993-94 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। उन्होंने लिखा था, ”हमारे क़ानून में पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी व्यक्ति को मार दे, और जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि उन्होंने क़ानून के अंतर्गत किसी को मारा है तब तक वह हत्या मानी जाएगी।”
सिर्फ दो ही हालात में इस तरह की मौतों को अपराध नहीं माना जा सकता। पहला, अगर आत्मरक्षा की कोशिश में दूसरे व्यक्ति की मौत हो जाए। दूसरा, सीआरपीसी की धारा 46 पुलिस को बल प्रयोग करने का अधिकार देती है। इस दौरान किसी ऐसे अपराधी को गिरफ़्तार करने की कोशिश, जिसने वो अपराध किया हो जिसके लिए उसे मौत की सज़ा या आजीवन कारावास की सज़ा मिल सकती है, इस कोशिश में अपराधी की मौत हो जाए।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निर्देश
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह निर्देशित किया है कि वह पुलिस एनकाउंटर में हुई मौत के लिए तय नियमों का पालन करे। वो नियम इस प्रकार हैं-
1. जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस एनकाउंटर की जानकारी प्राप्त हो तो वह इसको तुरंत रजिस्टर में दर्ज करे।
2. जैसे ही किसी तरह के एनकाउंटर की सूचना मिले और फिर उस पर किसी तरह की शंका ज़ाहिर की जाए तो उसकी जांच करना ज़रूरी है। जांच दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम या राज्य की सीआईडी के ज़रिए होनी चाहिए।
3. अगर जांच में पुलिस अधिकारी दोषी पाए जाते हैं तो मारे गए लोगों के परिजनों को उचित मुआवज़ा मिलना चाहिए।
(इलाहाबाद से वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)
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