Wednesday, April 24, 2024

बरसी पर विशेष: ऑपरेशन ब्लूस्टार का असली गुनहगार कौन?

जून-84 पंजाब कभी भुला नहीं पाया या भुलाने नहीं दिया गया। पंजाबी खास तौर से सिख लोकाचार में वह बरस किसी खंजर-सा गहरे तक धंसा हुआ है। एक जून, 1984 को अमृतसर की सरजमीं पर स्थित विश्वप्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर पर फौजी कार्यवाही की विधिवत प्रक्रिया शुरू हुई थी, जिसने सिख, पंजाब और देश के इतिहास को एकाएक ऐसा मोड़ दिया जो नागवार मंजिल तक गया या मुफीद साबित हुआ-इसका फैसला आज तलक समग्रता से हो नहीं पाया है। उस कार्यवाही को सरकार और उसकी नियंत्रित सैन्य अफसरशाही ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ का नाम दिया।

इसी ऑपरेशन ब्लू स्टार के तहत स्वर्ण मंदिर ढह गया। हजारों जानें गईं। इसे अंजाम देने वालीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जान भी इसी ऑपरेशन के चलते 1984 के 31 अक्टूबर को गई। प्रतिशोध के तौर पर की गई उनकी हत्या के बाद सिख विरोधी हिंसा हुई। इस बर्बरता में हजारों बेगुनाह सिख बेजान कर दिए गए। 84 के जख्म आज भी रिस रहे हैं। जबकि पुरानी पीढ़ियां जा चुकी हैं और नई वजूद में हैं। पुलों के नीचे से बहुत सारा पानी बह चुका है। फिर भी कुछ सवाल जस के तस हैं। इसलिए भी कि त्रासदियों से वाबस्ता कुछ सवाल निरंतर जवाब मांगते रहते हैं।                                                 

यक्ष प्रश्न है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार का सबसे बड़ा गुनाहगार आखिर कौन था? यह सवाल तब भी दरपेश है जब इससे जुड़े बहुत सारे लोग जिस्मानी तौर पर दुनिया से कूच कर गए हैं पर उनके किरदार आज भी कहीं न कहीं जिंदा हैं। इंदिरा गांधी, ज्ञानी जैल सिंह, संत जरनैल सिंह भिंडरावाला, संत हरचंद सिंह लोंगोवाल, दरबारा सिंह, जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा, भजनलाल, पत्रकार लाला जगतनारायण, अरुण नेहरू आदि अब नहीं हैं।                                           

पंजाब के एक छोटे से कस्बे जैतो से राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने वाले ज्ञानी जैल सिंह मूलतः एक गुरुद्वारा-ग्रंथी अथवा ‘पाठी’ थे जो बाद में राजनीतिज्ञ बन गए। कांग्रेस में वह परंपरागत सिखी का सबसे बड़ा सियासी चेहरा रहे। पंजाब के मुख्यमंत्री थे तो आजाद भारत का कांग्रेस से भी पुराना राजनीतिक दल शिरोमणि अकाली उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बना रहा। इंदिरा गांधी उन्हें दिल्ली ले आईं। गृहमंत्री बने। लेकिन पंजाब का मोह नहीं छूटा। अकाली राजनीति से अदावत भी नहीं। शिरोमणि अकाली दल की अंदरूनी धारा के साथ-साथ पंजाब की राज्यस्तरीय कांग्रेस में तब भी दखलअंदाजी करते रहे, जब राष्ट्रपति बन गए थे।                                        

पंजाब में एक मुद्दत तक जिस ‘संत’ के इशारों पर खुलेआम आतंकवाद की आग लगाई जाती रही और बेगुनाहों को बेखौफ मारा जाता रहा, वह जरनैल सिंह भिंडरावाला दरअसल ज्ञानी जैल सिंह की देन थे। अकाली राजनीति और अपनी ही पार्टी कांग्रेस के (धर्मनिरपेक्ष अक्स वाले, उनसे भी ज्यादा लोकप्रिय साबित हो रहे) मुख्यमंत्री दरबारा सिंह का जनप्रभाव भोथरा करने के लिए भिंडरावाला को खड़ा किया गया। यकीनन बाद में वह काबू से बाहर भस्मासुर साबित हुए।            

संत जरनैल सिंह भिंडरावाला को जब लगा कि वह राज्य व्यवस्था के अधीन नहीं चलेंगे बल्कि स्टेट उनके हुक्म से चलेगी तो उन्होंने बाकायदा ज्ञानी जैल सिंह को आंखें दिखानी शुरू कीं और उनकी आका इंदिरा गांधी को भी। बेशक कभी भिंडरावाला के ‘आका’ रहे ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति हो चुके थे और श्रीमती गांधी तो प्रधानमंत्री थीं ही। जिस राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के चुनावी उम्मीदवारों के पक्ष में भिंडरावाला प्रचार करते फिरते थे, वही कांग्रेस उन्हें सिखों की सबसे बड़ी ‘दुश्मन’ लगने लगी। जबकि 1982 के आसपास तब के कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी उन्हें ‘संत’ का खिताब दे चुके थे।                                            

सिख इतिहास का यह भी एक काला अध्याय है कि जो जरनैल सिंह भिंडरावाला सरेआम बेगुनाहों के कातिलों की पैरवी करते थे व उन्हें हथियार और शह देते थे, उनका कब्जा सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था (जिसे रूहानियत का दरबार कहा जाता है) पर हो गया। ‘संत जी’ इसलिए भी श्री अकाल तख्त साहिब की पनाह में चले गए क्योंकि उन्हें एक प्रतिद्वंदी कट्टरपंथी संगठन बब्बर खालसा से जान का खतरा था। सिख धार्मिक रिवायतों से बखूबी वाकिफ भिंडरावाला जानते थे कि श्री अकाल तख्त साहिब की अहमियत क्या है। यानी इस जगह उन पर न तो भारतीय हुकूमत हमला करेगी और न ही प्रतिद्वंदी खालिस्तानी मरजीवड़े।

एक हद तक ऐसा हुआ। संत जरनैल सिंह भिंडरावाला के हौसले बढ़ते गए। पंजाब में लोग मरते गए। दो बार संत की गिरफ्तारी हुई। एक बार खुद हुकूमत ने उन्हें पिछले रास्ते से बचाया और दूसरी बार वह परिस्थितिवश ‘रिहा’ हुए। कानून की गिरफ्त से छूटे भिंडरावाला कानून को नौकर-चाकर समझने लगे थे। भारतीय राज्य व्यवस्था उनके ठेंगे पर आ गई। प्रसंगवश, भारतीय दंड संहिता के तहत मरहूम भिंडरावाला के खिलाफ कहीं कोई मुकदमा दर्ज नहीं है। जबकि इंदिरा गांधी सरकार, कानून के निष्पक्ष पैरोकार और सेना उन्हें पंजाब के आतंकवाद के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार का सबसे बड़ा ‘खलनायक’ मानती थी। दीगर है कि यह ‘मानना’ तब शुरू और तय हुआ, जब वह नियंत्रण से बहुत दूर जा चुके थे।                                               

सब हदों से बाहर होकर संत जरनैल सिंह भिंडरावाला श्री अकाल तख्त साहिब से भारतीय राष्ट्र-राज्य को जबरदस्त खुली चुनौती देने लगे। सरकार और कांग्रेस का एक बड़ा खेमा फिर भी उनके आगे नतमस्तक रहा। सीधी टक्कर के लिए ललकारने वाले भिंडरावाला को मनाने-रिझाने की कवायद भी हुई। हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे दिग्गज (वामपंथी) सियासत दान तो सक्रिय हुए ही दिवंगत वरिष्ठ पत्रकारों (दोनों पंजाबी) कुलदीप नैयर और खुशवंत सिंह ने भी बाकायदा स्वर्ण मंदिर जाकर मध्यस्थता की लेकिन संत अपने तीखे तेवरों से आगे बढ़ते रहे। क्योंकि उनसे ज्यादा कौन जानता था कि उनका यह रूप और हैसियत ‘दिल्ली’ की वजह से बनी है। उन्हें गुमान था कि वक्त आने पर वह बहुतेरों की ‘पोल-पट्टी’ खोल देंगे। प्रसंगवश, जिस दमदमी टकसाल के वह अधिकृत मुखिया थे, उस टकसाल को आज भी सरकारें और उनकी हिदायत पर चलने वाली एजेंसियां प्रश्रय देती हैं। इसके अनेक प्रमाण हैं।                                           

खैर, वक्त यहां तक आ गया कि ब्रिटेन, रूस , जर्मन और अमेरिका की खुफिया एजेंसियों ने भी भारत सरकार के साथ यह जानकारी साझा की कि हिंदुस्तान का एक सिरमौर धार्मिक स्थल आतंकवाद का खुला पोषण कर रहा है। ब्रिटेन ने तो यहां तक लिखा कि देशद्रोह का अड्डा बन गया है। (ऑपरेशन ब्लू स्टार के 30 साल के बाद वहां की फाइलें जाहिर हुईं तो यह तथ्य सामने आया।)  इस काली आंधी को रोकना अपरिहार्य है। कूटनीतिक मोर्चे पर तो इंदिरा गांधी सरकार बड़े दबाव में आती जा ही  रही थी। अंदरूनी मोर्चे भी लग गए थे।                           आखिरकार मई में इंदिरा सरकार ने फैसला लिया निर्णायक लड़ाई का। इसमें मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार में शामिल एक बड़ी शख्सियत भी शामिल थी, जो तब केंद्र की एक खुफिया एजेंसी के ‘कामयाब जासूस’ थे। ब्लूप्रिंट बना। फौजी कार्रवाई एक बड़ा कदम थी। लेकिन तमाम प्रक्रिया से राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को इस सबसे सिरे से अलहदा रखा गया। जबकि यह निहायत गैर लोकतांत्रिक था। ज्ञानी जी को इसलिए भी ‘विश्वास’ में नहीं लिया गया क्योंकि उनकी धार्मिक ‘भावनाओं’ को ठेस लगती और वह कभी संत भिंडरावाला के ‘अनौपचारिक बॉस’ रहे थे।                   

एक जून-1984 में फौज का घेरा स्वर्ण मंदिर पर हो गया। सैनिकों की गाड़ियां शहर अमृतसर और पंजाब के शेष इलाकों में गश्त करने लगीं। बतौर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने हस्तक्षेप नहीं किया या उन्हें खबर ही नहीं थी कि सरकार इतनी बड़ी कार्यवाही करने जा रही है। ऑपरेशन ब्लूस्टार हुआ और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह स्वर्ण मंदिर परिसर में रोते हुए नजर आए। तब तक संत जरनैल सिंह भिंडरावाला और उनके करीबी साथियों तथा खालिस्तान के रणनीतिकार जरनल शुबेग सिंह का अंतिम संस्कार फौज कर चुकी थी। वह फौज, जिसके संवैधानिक मुखिया ज्ञानी जैल सिंह थे!                                       

तो बहुत सारे राज, रहस्य ही रह गए। देश-दुनिया में रहने वाला (स्वर्ण मंदिर साहिब आस्था में रखने वाला) हर पंजाबी और सिख बेतहाशा आहत हुआ। ऑपरेशन ब्लू स्टार किस बरसी पर अभी भी बेशुमार घर ऐसे हैं जिनमें शोक व्याप्त रहता है। कइयों में खाना तक नहीं बनता और व्रत रखा जाता है। इस बार भी ऐसा है। लेकिन यह सवाल सिरे से नदारद है कि आखिर ऑपरेशन ब्लू स्टार का असली गुनाहगार कौन है? इस रिपोर्ट के जरिए इस पत्रकार ने कुछ अहम पहलू छुए हैं पर वे नाकाफी हैं। 

(अमरीक सिंह पंजाब के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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