इधर सुप्रीम कोर्ट ने 19 मई, 2023 को वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद में पाए गए कथित ‘शिवलिंग’ की वैज्ञानिक जांच पर रोक लगाई, उधर 31 मई , 2023 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वाराणसी कोर्ट में हिंदू उपासकों के मुकदमे के सुनवाई योग्य होने के खिलाफ मस्जिद समिति की याचिका खारिज की और विवाद कायम रखा। दरअसल 1991 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने के बजाय स्वीकार कर सुप्रीम कोर्ट ने जाने अनजाने में प्रॉक्सी मुकदमेबाजी में केंद्र और हिन्दू साम्प्रदायिकता की भारी मदद कर दी है और विवादित स्थलों को लेकर न्यायालयों में मुकदमों की बाढ़ आ गयी है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 31 मई, 2023 को अंजुमन इंतजामिया मस्जिद समिति (जो वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद का प्रबंधन करती है) द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के अंदर पूजा करने के अधिकार की मांग को लेकर वाराणसी कोर्ट में दायर हिंदू उपासकों के मुकदमे की विचारणीयता पर आपत्ति जताते हुए दायर पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें वाराणसी अदालत के आदेश (12 सितंबर, 2022 को) को चुनौती दी गई थी, जिसने पिछले साल दायर सीपीसी के आदेश 7 नियम 11 की याचिका को खारिज कर दिया था। ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के अंदर पूजा करने के अधिकार की मांग को लेकर वाराणसी कोर्ट में दायर हिंदू उपासकों के मुकदमे की विचारणीयता पर आपत्ति जताते हुए।
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार 19 मई को वाराणसी ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर पाई गई उस संरचना की वैज्ञानिक जांच पर रोक लगाने का निर्देश दिया, जिसे हिंदूवादी ‘शिवलिंग’ होने का दावा करते हैं और मस्जिद कमेटी एक फव्वारे का दावा करती है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 12 मई को पारित आदेश के खिलाफ अंजुमन इस्लामिया मस्जिद कमेटी (जो वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद का प्रबंधन करती है) की विशेष अनुमति याचिका पर यह आदेश पारित किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने आदेश में संरचना की आयु का पता लगाने के लिए ‘शिवलिंग’ के वैज्ञानिक सर्वेक्षण का निर्देश दिया था। पीठ ने निर्देश दिया कि हाईकोर्ट के आदेश में निहित निर्देशों का कार्यान्वयन सुनवाई की अगली तारीख तक स्थगित रहेगा।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 31 मई के आदेश में 5 हिंदू महिला उपासकों के मुकदमे पर अपनी आपत्ति को खारिज करने वाले वाराणसी कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली ज्ञानवापी मस्जिद समिति द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए, कहा कि केवल मां श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश, भगवान हनुमान की पूजा करने के अधिकार को लागू करने के लिए कह रहे हैं। और अन्य देवता (मस्जिद परिसर के अंदर स्थित) एक ऐसा कार्य नहीं है जो ज्ञानवापी मस्जिद के चरित्र को मंदिर में बदल देता है।
जस्टिस जे जे मुनीर की पीठ ने अपने आदेश में कहा कि वादी (5 हिंदू महिलाओं) द्वारा वाराणसी कोर्ट के समक्ष दायर याचिका में मंदिर की बाहरी दीवार पर मां श्रृंगार गौरी और अन्य देवताओं की पूजा करने का अधिकार मांगा गया है। मस्जिद परिसर, (ज्ञानवापी मस्जिद परिसर) में कोई बदलाव नहीं लाना चाहता है या इसके चरित्र को बदलना नहीं चाहता है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, न्यायालय ने वादपत्र, विशेष रूप से राहत खंड और भौतिक अभिकथनों का अवलोकन किया, यह ध्यान देने के लिए कि यह वाद दैनिक आधार पर पूजा करने और देवताओं के दर्शन करने के अधिकार के अस्तित्व पर जोर देता है, जिसका प्रयोग वर्ष 1990 तक सामान्य रूप से हिंदू, बिना किसी रोक-टोक के, द्वारा किया गया था।
दरअसल यह सारा रायता प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 के कारण फ़ैल रहा है जिसकी संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट को सुनवाई करना है। प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर पिछली सुनवाई 5 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में हुई थी ।
9 सितंबर, 2022 को इससे जुड़ी याचिकाओं को तीन जजों की पीठ के पास भेजा गया था। याचिका में कहा गया था कि यह एक्ट लोगों की समानता, जीने के अधिकार और व्यक्ति की निजी आजादी के आधार पर पूजा के अधिकार का हनन करता है। सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की पीठ-सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ सिंह, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जेपी पादरीवाला इन सभी याचिकाओं पर सुनवाई करेगी। पीठ इस एक्ट की संवैधानिकता और वर्तमान संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर भी सुनवाई करेगी। कोर्ट के फैसले पर पूरे देश की निगाह है। इस फैसले से देश में आगे की राजनीतिक और धार्मिक विवादों की दिशा तय हो सकती है।
वर्शिप एक्ट के कुछ प्रावधाओं को चुनौती देने वाली याचिकाओं के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने केद्र से कई बार जवाब मांग चुकी है। कोर्ट ने 12 मार्च, 2021 को नोटिस जारी किया था। इसके बाद पिछले साल 9 सितंबर को फिर जवाब मांगा। लेकिन सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने मोहलत मांग ली। इसके बाद 9 जनवरी को कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा। तब कोर्ट ने सरकार को फरवरी तक का समय दिया था।
प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 के कुछ प्रावधानों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कुल छह याचिकाएं लगाई गई हैं इनमें पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय के अलावा विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ की याचिकाएं भी शामिल हैं। पूरे मामले पर सुन्नी मुस्लिम उलेमाओं का संगठन भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है। संगठन ने कहा है अयोध्या के फैसले के दौरान कोर्ट बाकी धार्मिक स्थलों के बारे में जो वर्जन दे चुका है, उसमें बदलाव नहीं किया जाना चाहिए। इसमें बदलाव से अल्पसंख्यकों में असुरक्षा पनपेगी।
दरअसल 1991 का पूजा अधिनियम 15 अगस्त 1947 से पहले सभी धार्मिक स्थलों की यथास्थिति बनाए रखने की बात कहता है। वह चाहे मस्जिद हो, मंदिर, चर्च या अन्य सार्वजनिक पूजा स्थल। वे सभी उपासना स्थल इतिहास की परंपरा के मुताबिक ज्यों का त्यों बने रहेंगे। उसे किसी भी अदालत या सरकार की तरफ से बदला नहीं जा सकता।
सार्वजनिक पूजा स्थलों के चरित्र को संरक्षित करने को लेकर संसद ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इतिहास और उसकी गलतियों को वर्तमान और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में बदलाव नहीं किये जा सकते। सुप्रीम कोर्ट ने 2019 के अयोध्या फैसले के दौरान भी पांच न्यायाधीशों ने एक स्वर में यही कहा था।
इसमें पांच धाराएं हैं। प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट धारा -2 के मुताबिक 15 अगस्त 1947 में किसी धार्मिक स्थल में बदलाव को लेकर कोर्ट में केस लंबित है तो उसे रोक दिया जाएगा। प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट धारा-3 के मुताबिक किसी भी पूजा स्थल को दूसरे धर्म के पूजा स्थल के रूप में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट धारा-4 (1) के मुताबिक विभिन्न धर्मों के पूजा स्थलों का चरित्र बरकरार रखा जाएगा। वहीं धारा-4 (2) कहती है इस तरह के विवादों से जुड़े केसों को खत्म करने की बात कहती है।
1991 का कानून पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार के समय आया था, तब राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा, बिहार में उनकी गिरफ्तारी और उत्तर प्रदेश में कारसेवकों पर गोलीबारी ने सांप्रदायिक तनाव बढ़ा दिया था। इसी दौरान संसद में विधेयक को पेश करते हुए तत्कालीन गृहमंत्री एस बी चव्हाण ने कहा था सांप्रदायिक माहौल को खराब करने वाले पूजा स्थलों के रूपांतरण के संबंध में समय-समय पर उत्पन्न होने वाले विवादों को देखते हुए इन उपायों को लागू करना आवश्यक है। लेकिन तब के मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस विधेयक का पुरजोर विरोध किया था।
सुप्रीमकोर्ट ने 21 मई 22 को पूजा स्थल अधिनियम 1991 को लेकर अहम टिप्पणी की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र का पता लगाना प्रतिबंधित नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह उसका मंतव्य नहीं है, लेकिन यह दोनों पक्षों के बीच संवाद में बात कही गई है। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ ने ज्ञानवापी मस्जिद विवाद की एक घंटे की सुनवाई के दौरान महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उन्होंने कहा था कि इसने 2019 के अयोध्या फैसले में पूजा स्थल अधिनियम के प्रावधानों पर गौर किया है तथा धारा 3 पूजा स्थल धार्मिक चरित्र सुनिश्चित करने पर स्पष्ट तौर पर रोक नहीं लगाती है।
पीठ ने कहा कि हमने अयोध्या फैसले में इन प्रावधानों पर चर्चा की है। धर्म स्थल का धार्मिक चरित्र तय करना स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं है। पीठ ने स्पष्ट किया कि यह उसका मंतव्य नहीं है, लेकिन यह दोनों पक्षों के बीच संवाद में बात कही गई है। पीठ की ओर से टिप्पणी करने वाले न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ उस पांच सदस्यीय पीठ का हिस्सा थे, जिसेन 2019 में अयोध्या विवाद में अपना फैसला सुनाया था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहाथा कि मान लीजिए कि एक ही परिसर में अगियारी (पारसी अग्नि मंदिर) और क्रॉस हो, तो क्या अगियारी की मौजूदगी क्रॉस को अगियारी बनने देती है? क्या क्रॉस की मौजूदगी उस परिसर को ईसाइयों का पूजास्थल बनने दे सकती है?
सुप्रीम कोर्ट वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद का प्रबंधन करने वाली समिति अंजुमन इंतजामिया मस्जिद की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें इसने इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय को चुनौती दी है। उच्च न्यायालय ने इस मामले में कोर्ट कमिश्नर नियुक्त करने के निचली अदालत के फैसले में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया था।
अब सवाल है कि क्या 1991 के कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने के बजाय स्वीकार करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला अनजाने में प्रॉक्सी मुकदमेबाजी में केंद्र की मदद तो नहीं कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने ने 2019 में 1991 के कानून को अन्य जगहों पर इस्तेमाल किए जा रहे समान तरीकों के खिलाफ एक आश्वासन के रूप में देखा।
भारतीय दंड संहिता में धर्म से संबंधित अपराधों को संबोधित करने के लिए विभिन्न प्रावधान हैं। इनमें से, धारा 295 में कहा गया है कि जो कोई भी व्यक्ति के किसी वर्ग के धर्म का अपमान करने के उद्देश्य से या किसी वर्ग के व्यक्तियों के धर्म का अपमान करने के उद्देश्य से पूजा के किसी भी स्थान या किसी भी वर्ग के व्यक्तियों द्वारा पवित्र मानी जाने वाली किसी भी वस्तु को नष्ट, क्षतिग्रस्त या अपवित्र करता है। इस तरह के विनाश, क्षति या अपवित्रता को अपने धर्म का अपमान मानने के लिए दंडित किया जाएगा। धारा 295 उस व्यक्ति के लिए भी सजा का प्रावधान करती है जो-भारत के नागरिकों के किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से, मौखिक या लिखित शब्दों द्वारा, या संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या अन्यथा-अपमान या प्रयास करता है।
एम. इस्माइल फ़ारूक़ी बनाम भारत संघ के फ़ैसले के पैराग्राफ 143 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि समान विचारधारा वाले लोगों के पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के प्रावधानों से कम प्रभावित होने की संभावना है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की दलील (1991 के अधिनियम के आधार पर) के जवाब में यह टिप्पणी की कि 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में जो हुआ था, वह फिर कभी नहीं हो सकता।
1991 के अधिनियम में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी वर्ग के किसी भी पूजा स्थल को उसी धार्मिक संप्रदाय या किसी अलग धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी खंड के पूजा स्थल में परिवर्तित नहीं करेगा। यह घोषणा करता है कि 15 अगस्त, 1947 को मौजूद पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र वैसा ही बना रहेगा जैसा कि उस तारीख को मौजूद था। अधिनियम ने निर्दिष्ट किया कि क़ानून में निहित कुछ भी पूजा के स्थान पर लागू नहीं होगा जो कि अयोध्या में विवादित ढांचा था और इससे संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या अन्य कार्यवाही के लिए।
1991 के कानून पर सुप्रीम कोर्ट के विचार एम. इस्माइल फारूकी मामले में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अयोध्या अधिनियम, 1993 में निश्चित क्षेत्र के अधिग्रहण को असंवैधानिक करार दिया और भारत के राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर देने से भी इनकार कर दिया कि हिंदू मंदिर है या कोई हिंदू राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद (ऐसी संरचना के आंतरिक और बाहरी प्रांगणों के परिसर सहित) के निर्माण से पहले उस क्षेत्र में धार्मिक संरचना मौजूद थी, जिस पर संरचना खड़ी थी। ऐसा करते हुए, बेंच ने 1991 के पूजा स्थल अधिनियम, 1991 की प्रासंगिकता पर भी विचार किया, भले ही उसके सामने कोई चुनौती नहीं थी।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)
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