प्रदूषण के असली गुनहगारों की जगह किसान ही खलनायक क्यों और कब तक ?

इस देश में वर्तमान समय की राजनैतिक व्यवस्था में किसान और मजदूर तथा आम जनता का एक विशाल वर्ग सबसे दीन-हीन और कमजोर वर्ग है,क्योंकि सत्ता के कर्णधार अपने लाडले पूँजीपतियों के लिए ही अपनी सारी नीतियों को बनाते हैं और उसे निर्लज्जता से लागू कराने की कोशिश भी करते हैं, चूँकि भारत की लगभग सम्पूर्ण मीडिया बड़े कार्पोरेट घरानों के स्वामित्व में है, इसलिए प्रदूषण के डाटा सहित कोई भी डाटा को अपने हित के अनुसार अपने पक्ष में बदल लेना इनके लिए बाँए हाथ का खेल है, यह रिपोर्ट कि ‘इस देश के प्रदूषण में किसानों द्वारा जलाई गई पराली का योगदान 40 प्रतिशत है ‘,उतना ही झूठ है, जितना आकाश में धान के बीज बोकर उसे उगा देना। अब तक के प्रदूषण डाटा के सर्वेक्षण रिपोर्ट्स के अनुसार इस देश के कुल प्रदूषण में 72% प्रदूषण डीजल-पेट्रोल चालित गाड़ियों से, 20% प्रदूषण कल कारखानों से और सिर्फ 8% प्रदूषण में पराली सहित सभी प्रदूषण सम्मिलित है, क्या पिछली रिपोर्ट गलत है ? वास्तव में हकीकत यह है कि इस देश की सशक्त पूंजीपतियों और कार-लॉबी के गोद में सरकार के कर्णधार बैठे हुए हैं और उन्हीं के हक में वे अपनी सारी नीतियों को बनाते हैं और कार्यान्वित भी करते हैं।

प्रश्न है कि आखिर सरकारों के कर्णधार आज तक किसानों को स्वामीनाथन आयोग द्वारा सुझायी गयी रिपोर्ट के अनुसार उनकी फसलों की जायज कीमत मतलब एमएसपी मूल्य क्यों नहीं देते ?केवल इसी एकमात्र नीतिगत निर्णय से ही किसानों की आत्महत्या करने और परालीजनित प्रदूषण सहित लगभग अन्य सभी समस्याओं का समाधान हो जाता, दूसरी बात पराली के निस्तारण का समय से पूर्व समुचित समाधान क्यों नहीं किया जाता है ?सरकारें सालभर बिल्कुल सुसुप्तावस्था में रहती हैं,जब किसान अपनी धान की फसल को अगली गेहूँ की फसल को समय से बुआई के लिए हार्वेस्टिंग मशीनों से काटकर खेत की साफ-सफाई करने के क्रम में मजबूरी में खेत में हार्वेस्टिंग मशीन की कटाई से बची पराली यानी पुआल को जलाने लगते हैं, तब अचानक सरकारें अपनी कुंभकर्णी नींद से जगतीं हैं।

चूँकि किसानों की धान की फसल को हार्वेस्टिंग मशीन से कटवाना मजबूरी है,क्योंकि वह मजदूरों की महंगी मजदूरी देकर अपने धान की फसल को गेहूँ बोने के समय से पूर्व कटवा ही नहीं सकते,चूँकि हार्वेस्टिंग मशीन फसलों को कुछ ऊँचाई से काटती है,इसीलिए पराली की समस्या उत्पन्न हो रही है। ये सरकारें किसानों को उनकी फसलों की उत्पादन लागत के अनुसार कीमत न देकर प्रतिदिन 32 किसानों को खुदकुशी करने के अलावे अब अपने पालित डाटा सर्वेक्षण कार्यालयों के मिथ्या सर्वेक्षणों और कथित न्यायपालिकाओं के जजों से अपने मनमाफिक और किसानों के खिलाफ निर्णयों को दिलवाकर,इस देश में प्रदूषण का मुख्य कारण पराली जनित प्रदूषण फैलाने का सारा दोष किसानों के सिर पर मढ़कर,इस देश के किसानों को प्रदूषण के लिए एकमात्र दोषी ठहराने का एक सुनियोजित,सुचिंतित साजिश कर रही हैं। इस देश में 60 प्रतिशत तक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र और अन्नदाता किसानों को पराली से ही मुख्य प्रदूषण के खलनायक बनाने की एक सुनियोजित साजिश चल रही है।

मैं पूछता हूँ इस देश को औद्योगिक राष्ट्र बनाने को उद्यत इस देश के कर्णधार और कथित अर्थशास्त्री अब तक इस देश का कितना विकास कर दिए हैं और बेरोजगार युवाओं को कितनी नौकरी दे दिए हैं ?सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस देश में पिछले 45सालों में बेरोजगारी अपने सर्वोच्च स्तर पर है,उस दुःखद स्थिति में इस देश की ढहती और बदहाल अर्थव्यवस्था की संबल बनी कृषि को भी पूरी तरह बर्बाद करने की एक सुनियोजित व सोची-समझी साजिश रची जा रही है। आज इस देश का किसान,मजदूर और आम आदमी सबसे कमजोर,असहाय,असंगठित व दरिद्रता से अभिशापित वर्ग है। इसलिए भारतीय समाज के इस अंतिम छोर पर पड़े किसी तरह अपनी रोजी-रोटी कमाने-खानेवाले इस निर्बल समाज को सशक्त, बलशाली और संगठित पूँजीवादी परस्त वर्ग व उनकी संरक्षक सरकारों के कर्णधार अनाप-शनाप आरोप लगाकर,उन्हें खलनायक व असली गुनाहगार बताने की साजिश रच रहे हैं।

इस देश में किसानों के अन्तहीन शोषण के विरोध में मजबूर होकर किसानों द्वारा किए जा रहे आंदोलन को हर तरह से बदनाम करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है ! बहुत दुःख,अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि भारतीय किसानों को यहाँ के सत्ता के दलालों द्वारा अमेरिका की शह पर शोषणकारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर न तो उनके द्वारा उत्पादित फसलों की उचित कीमत दी जा रही है,न ही उनको खाद, बीज, उर्वरक, डीजल, पेट्रोल और ट्रैक्टर आदि पर कोई छूट या सब्सिडी दी जा रही है। जिससे पिछले मनमोहन सिंह की कांग्रेसी सरकारों और उसके पहले की स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की तथा वर्तमान कथित सर्वश्रेष्ठ प्रधानजनसेवक नरेन्द्र भाई दामोदर भाई मोदीजी नीत बीजेपी की सरकारों के समय में लगभग 7.50 लाख किसान आत्महत्या करने को बाध्य हो गए, इतने किसानों की निर्ममतापूर्वक बलि चढ़ाने के बाद भी सत्ता के इन दरिंदों को और इनके चाटुकार,चमचे और भाँड़ पत्रकारों और सम्पादकों को आज हो रहे किसान आंदोलन में राजनीति दिखाई दे रही है। इससे ज्यादे क्षुब्ध करने वाली क्या बात हो सकती है। शर्म है ऐसे पत्रकारों पर और कथित सम्पादकों पर जो ऐसे विकट समय में भी अपने देश के अन्नदाताओं, भूमिपुत्रों और किसानों की आलोचना करते हुए सत्ता के सामने अपनी दुम हिला रहे हैं।

यक्ष प्रश्न है सरकार के कर्णधारों के सर्वाधिक प्रिय लाडले बड़े पूँजीपतियों यथा अडानियों,अंबानियों ने इस देश की आर्थिक स्थिति को कितना सुदृढ़ किया है ? यहाँ की जीडीपी पाताल में चली गई है,बेरोजगारी पिछले 44 सालों में सर्वोच्च स्तर पर है,बैंकों का दिवाला निकल रहा है,शिक्षा,स्वास्थ्य,कुपोषण आदि के मामले में यह देश अपने अति निर्धन और नन्हें देशों यथा नेपाल,भूटान,श्रीलंका,बाँग्ला देश आदि छोटे पड़ोसी देशों से भी पिछड़ गया है। उस भयंकर स्थिति में कृषि ही एक क्षेत्र बचा हुआ है,जो अभी भी इस देश के साठ करोड़ लोगों को रोजगार और रोजीरोटी मुहैया करा रही है। उसे भी यह सरकार बर्बाद करने पर तुली हुई है। जरा कल्पना करिए अगर इस देश की कृषि व्यवस्था नष्ट हो गई तो ये अडानी और अंबानी इस देश को होने वाली भुखमरी से बचाने हेतु यहाँ की 1 अरब 39 करोड़ की की विशाल आबादी को एक दिन भी खाना नहीं खिला सकते। और भारत के कथित प्रधानसेवक जी को 60-70 के दशक के कांग्रेसी कर्णधारों की तरह भारत की तरफ से कटोरा हाथ में लेकर आस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरिका से घटिया दर्जे का गेहूं और लाल रंग का ज्वार खरीदने को बाध्य होना पड़ सकता है। इसलिए हर हाल में इस देश की कृषि व किसानों को बचाया जाना चाहिए।
(निर्मल कुमार शर्मा पर्यावरणविद और लेखक हैं। आजकल आप गाजियाबाद में रहते हैं।)

निर्मल कुमार शर्मा
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निर्मल कुमार शर्मा