प्रो. जी.एन. साईबाबा के मृत शरीर को 14 अक्टूबर को हैदराबाद के मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया गया। वे जन्म से ही पोलियो ग्रस्त थे। शुरू में गरीबी के चलते व्हील चेयर भी प्राप्त नहीं कर सके, इसलिए वे हाथों और पैरों के पंजों के सहारे स्कूल जाते थे।
स्कूल में उनकी प्रतिभा को देखकर सभी शिक्षक आश्चर्यचकित होते थे। उन्होंने सारी पढ़ाई इसी स्थिति में की और अंततः अंग्रेजी भाषा में पीएचडी भी हासिल की। पीएचडी हासिल करने के बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी भाषा पढ़ाई।
इसी दरम्यान उनका क्रांतिकारी विचार रखने वाले संगठनों से संपर्क हो गया। इसके चलते उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे माओवादियों के संगठन से संबंधित थे। इसी आरोप के चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया और लगातार 10 वर्ष तक जेल में रखा गया।
जेल में भी उन्हें एक ऐसी सेल में रखा गया जहां न सूरज की रोशनी पड़ती थी और न ही शुद्ध हवा।
वे 10 वर्ष तक लगातार संघर्ष करते रहे और अदालतों से न्याय की अपेक्षा करते रहे। अंततः बंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया। बेंच ने यह पाया कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों को सिद्ध करने के लिए कोई सबूत नहीं है।
वे जेल में पूरी तरह से टूट गये थे। परंतु सिर्फ शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से नहीं। उन्होंने अपने जेल जीवन के दौरान एक कविता लिखी। जिसमें उन्होंने कहा ‘‘मैं इस देश की जेलों की यातना का टूटने का इंतज़ार कर रहा हूं।’’
अंततः उन्हें जेल से छोड़ा गया। इस दरम्यान उनकी मां की मृत्यु हो गई। परंतु उन्हें अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए पैरोल नहीं दी गई।
अभी अक्टूबर माह में उनकी मृत्यु हो गई। सारे देश के संगठनों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की और उनके संघर्ष को याद किया। 14 अक्टूबर को उनका मृत शरीर मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया गया। हज़ारों लोगों के साथ उनके मृत शरीर को मेडिकल कॉलेज ले जाया गया।
शव या़त्रा में शामिल लोग नारे लगा रहे थे कि तुम्हारा त्याग हमेशा याद रखा जायेगा। तुम अंतिम दिनों तक देश के वंचितों, गरीबों के लिए लड़ते रहे।
देश के अनेक महत्वपूर्ण लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। अंग्रेजी प्रेस में उनके बारे में खूब छपा। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में अंग्रेजी प्रेस के कॉलम भरे पड़े थे।
परंतु दुख की बात है कि हिन्दी प्रेस ने क्यों उन्हें दी गई यातना का विस्तृत विवरण पाठकों तक नहीं पहुंचाया। मेरे घर में करीबन 10 हिन्दी अखबार आते हैं। जहां तक मैंने इन अखबारों को छाना तो उनमें से एक-दो को छोड़कर किसी ने प्रो. साईबाबा की देश के प्रति प्रेम और देश की जनता के प्रति प्रेम का उल्लेख नहीं किया।
इन अखबारों में दैनिक भास्कर भी शामिल है, जो देश में सबसे ज्यादा पढ़ने वाला अखबार होने का दावा करता है। कम से कम मेरे घर में जो भास्कर आता है उसमें तो प्रो. साईबाबा से संबंधित ऐसा विस्तृत विवरण नहीं था।
कल्पना करें कि जिन 10 वर्षों तक वे जेल में रहे उस समय उनकी पत्नी और उनकी बेटी ने कैसे जीवन बिताया होगा? वे लिखते हैं कि जब तक मेरी मां रही मेरी पत्नी और बेटी को सहारा रहा। परंतु उनके जाने के बाद तो वे पूरी तरह से अनाथ हो गये।
(एल.एस. हरदेनिया सेकुलर फ्रंट के संयोजक हैं)
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